भिलाई (आदिनिवासी)। भिलाई इस्पात् संयंत्र के कर्मी हमेशा से ही ठगी के शिकार होते रहे हैं। कभी एनजेसीएस के नाम पर तो कभी तथाकथित सबसे बड़ी यूनियन होने के नाम पर, कभी क्षेत्रीयता के नाम पर तो कभी अंध राष्ट्रवाद या धार्मिक विभाजन के नाम पर, कभी मेंबरशिप वेरिफिकेशन के नाम पर और कभी कुछ तो कभी कुछ!… जबकि हम सभी का एक ही वर्ग है– मेहनतश वर्ग (वर्किंग क्लास)। विडंबना है कि हमने कभी सचेत ढंग से सोचा ही नहीं कि हमारा वर्गीय हित कहाँ और कैसे होगा। अब तक हमारी प्रतिनिधि यूनियनों ने भी हमें इस बात से अवगत कराने और कर्मियों के हित में ईमानदारी से हल खोजने का प्रयास नहीं किया।
ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (AICCTU) से संबद्ध श्रमिक संगठन सेंटर ऑफ स्टील वर्कर्स-ऐक्टू के महासचिव श्याम लाल साहू ने श्रमिक समस्याओं पर अपनी बात रखते हुए आगे कहा है कि आख़िर इस तरह हम कब तक किसी बहकावे या प्रलोभन में आकर बटे रहेंगे या प्रबंधन के आगे घुटने टेकते रहेंगे और खुद का नुकसान करवाते रहेंगे। वैसे हमारी अज्ञानता या उदासीनता तथा ट्रेडयूनियन मूवमेंट से कटे होने और बिखराव के चलते हमारा काफी नुकसान पहले ही हो चुका है जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती।
कर्मियों के प्रति सरकार पूरी तरह बेरहम हो चुकी है और लाभ कमाने वाले सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को षड़यंत्रपूर्वक तबाही की ओर धकेल कर औने-पौने अपने कार्पोरेट आक़ाओं के हवाले कर देने पर आमादा है। सरकार ने तमाम श्रम-संगठनों के विरोधों को दरकिनार कर श्रमिकों के लंबे संघर्षों से हासिल श्रम-कानूनों को खत्म कर कार्पोरेट घरानों के बेसुमार मुनाफों के लिए मात्र चार श्रम-संहिताओं में समेट दिया है जो वास्तव में कर्मियों व तमाम मेहनतकश लोगों की गुलामी का दस्तावेज़ है।
प्रबंधन सरकार और कार्पोरेट घरानों की जी हुजूरी करने उनके निर्देशों पर कर्मियों की तमाम सुविधाओं में कटौती करने और अन्यान्य तरीके से कर्मियों पर काम का बोझ बढ़ाने में लगा हुआ है। हक़ीक़त यही है कि प्रबंधन पूरी तरह निरंकुश हो चुका है और किसी श्रम-संगठन को कोई महत्व नहीं दे रहा है। तथाकथिक बड़ी यूनियनों सहित ज्यादातर श्रम-संगठन भी प्रबंधन के आगे नतमस्तक हो चुके हैं और यूनियन-मान्यता के चुनाव में मात्र किसी भी तरह जीत हासिल कर अपनी दुकानदारी और निजी सुख-सुविधाओं को बरकरार रखने के लिए ज़द्दोज़हद में लगे हुए हैं जो दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर उन्हें सचमुच कर्मियों के हितों की चिंता होती तो सभी ट्रेडयूनियंस को एकजुट कर संयुक्त समिति बनाने और प्रबंधन पर कर्मियों के हित में सार्थक दबाव बनाने का प्रयास करतीं। वे जानती हैं कि संयुक्त समिति बनाकर और उसे मान्यता दिलाकर प्रबंधन को आसानी से झुकाया जा सकता है।
प्रबंधन भी इस बात से अच्छी तरह अवगत है, इसीलिए उसने आईडी एक्ट लगने से पहले व लगने के बाद भी इस मांग को कभी स्वीकार नहीं किया। लेकिन बावजूद इसके ज्यादातर श्रम-संगठनों को कर्मियों के व्यापक हितों के बजाय चिंता इस बात की है कि फिर उनकी दुकानदारी का क्या होगा? फिर संयुक्त समिति बनने से सबके सामने उनका असली चेहरा भी उजागर हो सकता है। इसलिए उन्हें संयुक्त समिति से बड़ी एलर्जी है। जबकि आज के इस क्रूर दौर में संयुक्त समिति बनाकर व्यापक एकजुटता के साथ कर्मियों के हित में संघर्ष चलाने की ज़रूरत है अन्यथा प्रबंधन निरंकुश होकर मनमानी करता रहेगा और इसी तरह कर्मियों का नुकसान होता रहेगा।
सेंटर ऑफ स्टील वर्कर्स-ऐक्टू लगातार इस दिशा में प्रयासरत रहा है। लेकिन तथाकथित बड़ी यूनियनों की हठधर्मिता व दुकानदारी की प्रवृत्ति के चलते यह प्रयास अब तक विफल रहा है। आज कर्मियों को फिर से मौका मिला है कि वे उनके मंसूबों पर पूरी तरह पानी फेर दें और यूनियन-मान्यता के चुनाव में ऐक्टू को मजबूती के साथ अपनी बात रखने की ताकत प्रदान करें।