शनिवार, सितम्बर 13, 2025

पूंजी, श्रम और मानवता का भविष्य: कॉरर्पोरेट मुनाफा और आदिवासी सीख

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आज जब दुनिया विकास की नई ऊंचाइयों को छू रही है, तब एक सवाल बार-बार उठता है – क्या इस विकास की कीमत इंसान और इंसानियत चुका रहे हैं? कल-कारखानों से लेकर खेतों तक, दिन-रात पसीना बहाने वाले मजदूरों के हक और उनके श्रम के मूल्य पर एक गंभीर बहस छिड़ गई है। यह बहस सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और मानवीय भी है, जो पूंजीवाद की चकाचौंध के पीछे छिपे अंधेरों और सदियों पुरानी आदिवासी सामूहिक जीवन-पद्धति के बीच भविष्य का रास्ता तलाश रही है।

पूंजीवाद की अंधी दौड़ और हाशिये पर मजदूर

आधुनिक अर्थव्यवस्था का पहिया पूंजी और श्रम, दोनों से मिलकर चलता है। लेकिन आज की पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी इतनी शक्तिशाली हो गई है कि श्रम और श्रमिक दोनों हाशिये पर चले गए हैं। उत्पादन का मुख्य उद्देश्य समाज की जरूरतें पूरी करने के बजाय सिर्फ मुनाफा कमाना बन गया है, जिसके कारण श्रमिकों का शोषण एक आम बात हो गई है। कंपनियां अरबों का मुनाफा कमाती हैं, लेकिन इस मुनाफे की नींव रखने वाले मजदूर अक्सर गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली में जीने को मजबूर हैं।

यह स्थिति भारत में और भी गंभीर है, जहां देश के प्राकृतिक संसाधन, जैसे कोयला, बॉक्साइट और लोहा, मुख्य रूप से आदिवासी इलाकों से निकलते हैं। इन संसाधनों के खनन से कॉरपोरेट घराने तो मालामाल हो रहे हैं, लेकिन सदियों से उन जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय विस्थापन और विनाश का दर्द झेल रहे हैं। उनके हिस्से में न तो विकास का कोई फल आता है और न ही मुनाफे में कोई हिस्सेदारी।

श्रम अधिकारों पर हमला और बढ़ता असंतोष

हाल के वर्षों में, भारत में श्रम कानूनों में किए गए बदलावों ने मजदूरों की चिंताओं को और बढ़ा दिया है। ट्रेड यूनियनों का आरोप है कि नए लेबर कोड (श्रम संहिता) ने मजदूरों के अधिकारों को कमजोर किया है। काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने, यूनियन बनाने को मुश्किल बनाने और “हायर एंड फायर” (काम पर रखने और निकालने) की नीति को आसान बनाने जैसे प्रावधानों से श्रमिकों में भारी असंतोष है।इसी के विरोध में इस साल ट्रेड यूनियनों ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान भी किया था, जिसमें लाखों मजदूरों और किसानों ने हिस्सा लिया।

विशेषज्ञों का मानना है कि इन बदलावों से मजदूरों का शोषण और बढ़ सकता है, क्योंकि अब उन्हें नौकरी से निकालना आसान हो जाएगा और वे अपने अधिकारों के लिए संगठित भी नहीं हो पाएंगे। यह स्थिति न केवल मजदूरों के वर्तमान को प्रभावित कर रही है, बल्कि उनके भविष्य को भी अंधकार में धकेल रही है।

एक वैकल्पिक दृष्टि: साम्यवाद और आदिवासी दर्शन

पूंजीवाद की इस शोषणकारी व्यवस्था के विकल्प के रूप में साम्यवाद और आदिवासी समाज की सामूहिक जीवन-पद्धति एक नई राह दिखाते हैं। साम्यवाद एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की वकालत करता है, जहां उत्पादन के साधनों पर किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि पूरे समाज का अधिकार हो। इसका मूल सिद्धांत है – “इंसान सबसे बड़ा है” और पूंजी या मशीनें सिर्फ इंसान की भलाई के औजार हैं। इसका लक्ष्य मुनाफा कमाना नहीं, बल्कि समाज की जरूरतों को पूरा करना है।

दूसरी ओर, भारत की आदिवासी संस्कृति हमें सदियों से सामूहिकता और समानता का पाठ पढ़ाती आई है। उनकी जीवन-व्यवस्था में जंगल, नदी और जमीन किसी एक की संपत्ति नहीं, बल्कि सबकी साझी विरासत होती है। श्रम सामूहिक होता है और उसका फल भी सबमें बराबर बांटा जाता है। यह दर्शन प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व और इंसानी बराबरी पर आधारित है, जहां कोई मालिक या गुलाम नहीं होता। आज जब पूंजीवाद प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहा है, तब आदिवासी जीवन-दर्शन हमें एक टिकाऊ और न्यायपूर्ण भविष्य का मार्ग दिखाता है।

भविष्य की राह: इंसानियत और न्याय को केंद्र में रखना होगा

सवाल यह नहीं है कि कौन सी विचारधारा बेहतर है, बल्कि सवाल यह है कि हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं? एक ऐसा समाज जहां कुछ लोगों का मुनाफा करोड़ों लोगों की जिंदगी से ज्यादा कीमती हो, या एक ऐसा समाज जहां हर व्यक्ति को सम्मान से जीने और अपने श्रम का उचित मूल्य पाने का अधिकार हो?

आज जरूरत इस बात की है कि विकास के मॉडल पर फिर से विचार किया जाए। एक ऐसा मॉडल अपनाया जाए जो इंसान और प्रकृति को केंद्र में रखे, न कि सिर्फ पूंजी और मुनाफे को। आदिवासी समाज की सामूहिकता और साम्यवाद के मानवीय मूल्यों से प्रेरणा लेकर एक ऐसे भविष्य का निर्माण संभव है, जहां श्रम का शोषण न हो और हर हाथ को उसका हक मिले। फैसला हमें करना है – क्या हम पूंजी की गुलामी स्वीकार करते रहेंगे या अपने सामूहिक श्रम से एक नया, बराबरी और सम्मान पर आधारित समाज बनाएंगे?

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