गुरूवार, सितम्बर 19, 2024

आदिवासी पेनगुड़ियों को मंदिरों में बदलने कांग्रेस का आक्रामक हिंदूवादी अभियान

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राम वन गमन पथ के नाम पर जारी है भूपेश सरकार का आदिवासी समाज पर हमला

छत्तीसगढ़ (आदिनिवासी)। किसी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करना हो, तो उसके पास जो जल, जंगल, जमीन, खनिज व अन्य प्राकृतिक संपदा है, उस पर कब्जा करो। वह सभ्यता अपने आप मर जाएगी। आर्य और अनार्य/द्रविड़ों के संघर्ष का इतिहास यही सच्चाई बताता है। यह संघर्ष आज भी जारी है, लेकिन विकास के नाम पर आधुनिकता के नए जामे के साथ।

पेनगुड़ी क्या है ?

पेनगुड़ी आदिवासी देवों का प्राकृतिक आवास है। यह एक घर (झोपड़ी) होता है, जहां आदिवासियों के देव प्रकृति-चिन्हों के रूप में रहते हैं। आदिवासी समुदाय प्रकृति पूजक है। वे पहाड़, नदी, जंगल पूजते हैं। सो इन पेनगुड़ियों में किसी देव की मूर्ति नहीं मिलेगी। आदिवासी देवों का आवास उनके आवास से अलग हो भी कैसे हो सकता है? उनके देव भी उनकी तरह झोपड़ियों में ही रहते हैं। कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार अब इन पेनगुड़ियों को मंदिरों में बदलने जा रही है।

तब भाजपा की सरकार थी, तो राम को केंद्र में रखकर एक आक्रामक सांप्रदायिकता की नीति पर अमल किया जा रहा था। इसके लिए शोध का पाखंड रचा गया। राम के वन गमन की खोज (Discovery of ram’s forest movement,Lord Rama’s journey in India) पूरी की गई। बताया गया कि छत्तीसगढ़ के धुर उत्तर में कोरिया जिले के सीतामढ़ी से लेकर धुर दक्षिण में सुकमा जिले के रामाराम तक ऐसी कोई जगह नहीं है, जो कि राम के चरण-रज से पवित्र ना हुई हो। संघी गिरोह के इतिहासकारों की यह नई खोज है। इतिहास-विज्ञान वैज्ञानिक साक्ष्यों पर जोर देता है, उसकी बात कृपया ना करें, तो अच्छा है।

आदिवासी क्षेत्रों में भले ही 3000 स्कूलों को बंद कर दिया गया हो, लेकिन इतिहासकारों, संस्कृतिविदों की एक फौज जरूर खड़ी हो गई है, जो आदिवासियों को उनके अज्ञात इतिहास से परिचित करवाने पर तुली हुई है। सुकमा-कोंटा क्षेत्र के लोगों को एक दिन पता चला कि उनकी पुरखों की माता चिटपीन माता का घर वास्तव में राम का घर है। इस क्षेत्र के वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता मनीष कुंजाम बताते हैं:-

‘जहां मैं रहता हूं वहां लोगों को पता ही नहीं है कि राम कभी यहां आए थे। एक दिन सरकार के आदेश पर राम वन गमन का बोर्ड लगा दिया गया। जिस स्थल पर यह बोर्ड लगाया गया है, वह हमारे पुरखों का स्थान है। हम लोग उसे चिटपीन माता के स्थान से जानते हैं।’

प्रकारांतर से संघी गिरोह के स्वघोषित इतिहासकारों का महान शोध है कि राम के स्थान पर आदिवासी देवों ने कब्जा कर लिया है। अनार्यों के इन देवों से ‘आर्य’ राम को मुक्त कराना है। यह छत्तीसगढ़ में राम के कथित चिन्हों को आदिवासियों के चंगुल से मुक्त कराने का अभियान है। इसके लिए राम वन गमन विकास के नाम पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। पहले यह खेल भाजपा खेल रही थी, अब सत्ता में आने के बाद उदार हिंदुत्व के नाम पर कांग्रेस खेल रही है।

आर.एस.एस. के आक्रामक सांप्रदायिकता का दावा है कि उसने अयोध्या में एक राम जन्मभूमि को मुस्लिमों से मुक्त किया है। इधर कांग्रेस के उदार हिंदुत्व का दावा है कि वह छत्तीसगढ़ में राम के 51 इतिहास-चिन्हों को आदिवासियों से मुक्त करने जा रही है। इसके लिए छत्तीसगढ़ के 29 जिलों में से 16 जिलों में हिंदुत्व की पताका फहराई जाएगी। कोरिया में 06, सरगुजा में 05, जशपुर में 03, जांजगीर में 04, बिलासपुर में 01, बलौदा बाजार-भाटापारा में 04, महासमुंद में 01, रायपुर में 03, गरियाबंद में 08, धमतरी में 04, कांकेर में 01, कोंडागांव में 02, नारायणपुर में 02, दंतेवाड़ा में 03, बस्तर में 04 और सुकमा में 04 –इस प्रकार आदिवासियों के 51 स्थलों को मंदिरों में बदला जा रहा है।

आदिवासियों की सभ्यता व संस्कृति पर आक्रमण कोई नया नहीं है। वनवासी कल्याण आश्रम के जरिए संघी गिरोह दशकों से यह काम आदिवासियों को शिक्षित करने के नाम पर कर रहा है। इस अभियान में उन्होंने रामायण का गोंडी व अन्य आदिवासी भाषाओं में अनुवाद कर उसे बांटने का काम किया है। जगह-जगह ‘मानस जागरण’ के कार्यक्रम भी हो रहे हैं। हिंदुओं के त्योहारों को मनाने व उनके देवों को पूजने, हिंदू धर्म की आस्थाओं पर टिके मिथकों को आदिवासी विश्वास में ढालने का काम भी किया जा रहा है। इस आक्रामक अभियान में आदिवासियों के आदि धर्म व उनके प्राकृतिक देवों से जुड़ी मान्यताओं, विश्वासों व मिथकों पर खुलकर हमला किया जा रहा है और जनगणना में आदिवासियों को हिंदू दर्ज करवाने का अभियान चलाया जा रहा है।

कारपोरेट पूंजी के हिंदुत्व की राजनीति के साथ गठजोड़ होने के बाद से यह अभियान और ज्यादा आक्रामक हो गया है। इतना आक्रमक कि अब समूची आदिवासी सभ्यता व संस्कृति को लील जाना चाहता है। अपने मुनाफे के लिए इस कारपोरेट पूंजी को आदिवासियों के स्वामित्व वाले जंगल चाहिए, ताकि उसे खोदकर उसके गर्भ में दबे खनिज को निकाल-बेच कर मुनाफा कमा सके। लेकिन बस्तर में टाटा को उल्टे पांव वापस लौटना पड़ा है। सलवा जुडूम अभियान भी आदिवासियों की हिम्मत नहीं तोड़ पाया। जिन जंगलों-गांवों से उसे भगाया गया था, अब वे फिर वापस आकर उस पर काबिज होने लगे हैं। जिन गांव-घरों को उसने जलाया था, उस पर फिर झोपड़ियां उगने लगी हैं।

जो आदिवासी पेड़ की एक टहनी भी उससे पूछ कर ही तोड़ते हैं, जिनके जीवन में फसल बोने से लेकर काटने तक, जन्म से मृत्यु तक प्रकृति है, जो अपने आनंद के लिए सामूहिकता में रच-बस कर प्रकृति को धन्यवाद देता है, उसका आभार मानता है, वह आदिवासी और उसकी सामूहिकता कारपोरेट पूंजी के मुनाफे के लिए सबसे बड़ी दीवार बनकर उभरी है। पेड़ से पूछ कर ही उसकी टहनी तोड़ने वाला आदिवासी समुदाय भला जंगलों के विनाश की स्वीकृति कैसे देगा? इसलिए जरूरी है कि पूरे समुदाय का विनाश किया जाए। शाब्दिक अर्थों में उनका जनसंहार नहीं, तो सांस्कृतिक हत्या तो हो ही सकती है। अपनी सभ्यता और संस्कृति के बिना किसी समाज के पास प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती। वे आदिवासियों की प्रतिरोधक क्षमता को खत्म करके उन्हें जिंदा मांस के लोथड़ों में तब्दील कर देना चाहते हैं, ताकि कारपोरेट मुनाफे की भट्टी में उन्हें आसानी से झोंका जा सके।

-अमलेन्दु


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