2024 के लोकसभा चुनावों से पहले, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया था। उन्होंने न केवल इसकी आवश्यकता पर बल दिया, बल्कि आरक्षण की 50% की सीमा को हटाने की भी वकालत की। इस मुद्दे को विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस-शासित राज्यों और एनडीए-शासित बिहार ने समर्थन दिया। विपक्ष के लिए यह मुद्दा 2024 की हार से उबरने का एक मजबूत हथियार बन गया था।
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने शुरू में जाति जनगणना का कड़ा विरोध किया। मोदी ने इसे “अर्बन नक्सल” सोच का हिस्सा करार दिया, जबकि आरएसएस ने इसे हिंदू समाज को विखंडित करने की साजिश बताया। लेकिन, 30 अप्रैल, 2025 को मोदी कैबिनेट ने आगामी जनगणना में जाति को शामिल करने का ऐतिहासिक फैसला लिया। इसके साथ ही, 2021 में प्रस्तावित जनगणना को स्थगित कर दिया गया। इस फैसले ने सियासी गलियारों में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। आखिर, बीजेपी ने इस समय ऐसा कदम क्यों उठाया?
बिहार और चुनावी रणनीति
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर लिया गया है। बिहार में जातिगत समीकरण हमेशा से राजनीति का केंद्र रहे हैं। हालांकि, सरकार ने जाति जनगणना के निष्कर्षों को नीतियों में बदलने की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह कदम मुख्य रूप से चुनावी लाभ के लिए उठाया गया हो सकता है। राहुल गांधी के जाति जनगणना और आरक्षण के मुद्दे को जनता के एक बड़े वर्ग, खासकर पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदायों ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी। ऐसे में, सामाजिक न्याय के प्रति अपनी छवि को मजबूत करने के लिए बीजेपी-आरएसएस को यह कदम उठाना पड़ा, भले ही यह उनके मूल विचारों के विपरीत हो।
आरएसएस और सामाजिक न्याय का इतिहास
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, आरएसएस की स्थापना और उदय का एक प्रमुख उद्देश्य सामाजिक न्याय के लिए बढ़ती जागरूकता, खासकर दलितों और पिछड़े वर्गों में, का विरोध करना था। 19वीं और 20वीं सदी में जोतिराव फुले और डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने सामाजिक समानता की नींव रखी थी, जिससे उच्च जातियों में असहजता बढ़ने लगी। इस प्रतिक्रिया के रूप में, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को बल मिला, जिसमें मनुस्मृति के सिद्धांतों को सामाजिक मूल्यों का आधार बनाया गया।

आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने मनुस्मृति की प्रशंसा करते हुए इसे आधुनिक समय में लागू करने की वकालत की थी। जब महात्मा गांधी ने 1932 के बाद जाति व्यवस्था के खिलाफ अभियान चलाया और दलितों को मंदिरों, जल स्रोतों और सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए काम किया, तब आरएसएस ने इस प्रक्रिया से दूरी बनाए रखी। इसके बजाय, संगठन ने अपने स्वयंसेवकों को जातिगत और लैंगिक पदानुक्रम के मूल्यों का प्रशिक्षण देना जारी रखा।
इसी तरह, विनायक दामोदर सावरकर ने जाति व्यवस्था के खिलाफ कुछ सतही प्रयास किए, लेकिन उनकी ब्रिटिश समर्थक राजनीति ने इन प्रयासों को कमजोर कर दिया। आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने भारतीय संविधान का विरोध करते हुए कहा था कि यह मनुस्मृति के मूल्यों की अनदेखी करता है और इसमें “भारतीयता” का अभाव है।
दलितों को लुभाने की रणनीति
समय के साथ, चुनावी मजबूरियों ने हिंदुत्ववादी ताकतों को दलितों, आदिवासियों और ओबीसी समुदायों को अपने साथ जोड़ने के लिए मजबूर किया। इसके लिए आरएसएस ने ‘सामाजिक समरसता मंच’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों को हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति से जोड़ना था। संगठन ने विभिन्न जातियों की प्रशंसा करते हुए उनकी “ऐतिहासिक महानता” को उजागर करने वाली किताबें प्रकाशित कीं। उदाहरण के लिए, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदू चर्मकार, वाल्मीकि और खटिक जातियों की पुस्तकों का विमोचन करते हुए सभी जातियों की समानता की बात कही।
इसके अलावा, पासी समुदाय के राजा सुहेल देव जैसे प्रतीकों को हिंदू नायकों के रूप में प्रस्तुत किया गया और उन्हें मुस्लिम-विरोधी छवि दी गई। दलितों के साथ भोजन जैसे कार्यक्रमों के जरिए संस्कृतिकरण को बढ़ावा दिया गया। आरएसएस ने यह भी प्रचारित किया कि बीजेपी ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो “मुस्लिम तुष्टिकरण” से मुक्त है, जिसे हिंदू समाज का दुश्मन बताया गया। दलित नेताओं जैसे रामविलास पासवान, रामदास अठावले और चिराग पासवान को सत्ता और संसाधनों का लालच देकर अपने साथ जोड़ा गया।
मंडल बनाम कमंडल
सामाजिक न्याय के लिए सबसे बड़ी परीक्षा मंडल आयोग के लागू होने के समय आई। उच्च जातियों ने इसका तीखा विरोध किया, जिसमें आत्मदाह जैसे चरम कदम भी शामिल थे। बीजेपी-आरएसएस ने इसका खुला विरोध करने से परहेज किया, क्योंकि इससे उनके चुनावी हितों को नुकसान हो सकता था। इसके बजाय, उन्होंने “मंडल” के जवाब में “कमंडल” की रणनीति अपनाई। बाबरी मस्जिद विध्वंस अभियान को तेज करके उच्च जातियों का ध्रुवीकरण किया गया, जिससे सांप्रदायिक राजनीति को बल मिला और बीजेपी की सत्ता तक पहुंच आसान हो गई।
अब क्या होगा?
जाति जनगणना का यह फैसला बीजेपी के लिए दोधारी तलवार साबित हो सकता है। उच्च वर्ग, जो लंबे समय से बीजेपी का समर्थन करता रहा है, इस फैसले से असहज है। दूसरी ओर, दलित और ओबीसी वोटरों को लुभाने की यह रणनीति कितनी कारगर होगी, यह देखना बाकी है।

आरएसएस और बीजेपी की गहरी सामाजिक और राजनीतिक पैठ को देखते हुए, यह संभावना है कि वे जाति जनगणना को अपने हितों के अनुकूल ढालने की कोशिश करेंगे।
सामाजिक न्याय की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, बशर्ते इसके परिणामों का ईमानदारी से और पारदर्शी तरीके से उपयोग किया जाए। भारतीय संविधान के प्रति प्रतिबद्ध सभी राजनीतिक दलों को अब एकजुट होकर सामाजिक न्याय के एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहिए। जाति जनगणना के निष्कर्षों को नीतियों में बदलकर एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की नींव रखी जा सकती है।
(लेखक: डॉ राम पुनियानी, पूर्व प्रोफेसर, आईआईटी मुंबई और 2007 के राष्ट्रीय सांप्रदायिक सौहार्द पुरस्कार से सम्मानित।)