रविवार, मई 25, 2025

युद्ध का भय और आम आदमी की त्रासदी: 1965 के भारत-पाक युद्ध का संस्मरण

Must Read

“जोधपुर में आम आदमी का डर और दहशत”

युद्ध की विभीषिका और उसका मानवीय प्रभाव समय के साथ बदलते तकनीकी परिदृश्य के बावजूद अपरिवर्तित रहता है। 1965 के भारत-पाक युद्ध में प्रयुक्त तकनीक आज के युग की तुलना में साधारण थी, किंतु युद्ध से उपजी आशंकाएँ, अफवाहें, भय और अनिश्चितता आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। यह संस्मरण मूल रूप से 18 जुलाई 2020 को लिखा गया था, जब मैं अपने बचपन की स्मृतियों को शब्दों में पिरो रहा था। आज, जब देश में युद्धोन्माद को तेजी से हवा दी जा रही है, यह संस्मरण आम आदमी के लिए युद्ध के वास्तविक अर्थ को समझाने में सहायक हो सकता है।

1962 का युद्ध: एक बालमन की समझ
1962 में भारत-चीन युद्ध के समय मैं मात्र दस वर्ष का था। उस उम्र में मेरी समझ इतनी थी कि चीन ने हमारी हजारों किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया है और वह हमारा शत्रु है, जैसा कि पाकिस्तान। उस समय देशभक्ति के गीत, फिल्में और प्रचार के माध्यम से जनमानस में राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की जाती थी। लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार रक्षा कोष में दान देते थे, और ऐसी कहानियाँ अखबारों की सुर्खियाँ बनती थीं। हमें यह विश्वास दिलाया गया कि पाकिस्तान और चीन ने हमारी भूमि हड़प ली है, और एक दिन हमें इसे वापस लेना होगा। युद्ध की कोई स्पष्ट तस्वीर मेरे मन में नहीं थी, सिवाय इसके कि यह सैनिकों का खेल है, जिसमें गोलियाँ और गोले चलते हैं। हमें बताया जाता था कि हमारे सैनिक अत्यंत वीर हैं—एक भारतीय सैनिक दस दुश्मन सैनिकों को मारकर ही शहीद होता है। बाद में ये बातें बचकानी लगने लगीं, और यह समझ आया कि शायद हर देश अपने शत्रुओं के बारे में ऐसा ही सोचता है।

1965 का युद्ध: जोधपुर में भय का माहौल
1965 में भारत-पाक युद्ध छिड़ा, और इस बार मैं तेरह वर्ष का था, नौवीं कक्षा का छात्र। पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठियों को भेजा, जिसके जवाब में युद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध ने मुझे पहली बार यह एहसास दिलाया कि युद्ध केवल सीमाओं पर नहीं लड़ा जाता, और इसके शिकार सिर्फ सैनिक नहीं, बल्कि आम नागरिक भी होते हैं। जोधपुर, राजस्थान का एक सीमावर्ती शहर, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यहाँ का हवाई अड्डा और लड़ाकू विमानों का प्रशिक्षण केंद्र युद्ध के दौरान निशाने पर थे। जोधपुरवासी लड़ाकू विमानों की गर्जना और उनके करतबों के आदी थे, लेकिन युद्ध ने इस परिदृश्य को भयावह बना दिया।

युद्ध के पहले दिन से ही जोधपुर पर हवाई हमले शुरू हो गए। पाकिस्तानी बी-57 बमवर्षक विमानों के आने से पहले सायरन बजता, जो लोगों को घरों की बत्तियाँ बुझाने और खाइयों में शरण लेने का संकेत देता था। खतरा टलने पर दूसरा सायरन बजता, जो राहत का प्रतीक था। जोधपुर में स्थापित शक्तिशाली रडार प्रणाली दुश्मन के विमानों को जल्दी पहचान लेती थी। हमारे घर से हवाई अड्डा मात्र तीन-चार किलोमीटर दूर था, और यह हमलों का प्रमुख लक्ष्य था। हमारा घर एक संकरी गली में था, जहाँ न खाइयाँ खोदी जा सकती थीं, न ही बेसमेंट थे।

खाइयों में शरण और सामुदायिक भेद
गली में एक बड़ा हवेलीनुमा मकान, जिसे स्थानीय भाषा में ‘नोहरा’ कहा जाता था, खाइयों के लिए चुना गया। इस नोहरे में दो-तीन खाइयाँ खोदी गई थीं, जिनका उपयोग केवल हिंदू परिवार करते थे। गली में 70-80 मुस्लिम और 10-12 हिंदू परिवार थे, लेकिन मैंने कभी किसी मुस्लिम परिवार को वहाँ शरण लेते नहीं देखा। शायद उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया, या वे स्वयं नहीं आए। कुछ मुस्लिम परिवारों के छोटे नोहरों में भी खाइयाँ हो सकती थीं, लेकिन ये खाइयाँ न तो हिंदुओं के लिए, न ही मुस्लिमों के लिए पर्याप्त थीं। ये मुख्यतः बच्चों और बुजुर्गों के लिए थीं। बच्चे खाइयों में बैठना खेल समझते थे, और बार-बार बाहर झाँकने की कोशिश करते, जिसके लिए उन्हें डाँट पड़ती थी।

हमारे परिवार से दादाजी और बच्चे नोहरे में भेजे जाते थे, लेकिन पूरी रात वहाँ बैठना असहज था। इसलिए सायरन बजते ही हम भागकर वहाँ जाते और खतरा टलने पर लौट आते। यह प्रक्रिया मुझे व्यर्थ लगने लगी, और कुछ दिनों बाद मैंने वहाँ जाना बंद कर दिया। हमारे घर में भी खाई खोदना संभव नहीं था, इसलिए हम निचली मंजिल पर दीवार के सहारे दुबक जाते। बमों की तेज आवाज से कान के पर्दे सुरक्षित रखने के लिए कानों में रुई ठूँसी जाती थी। लाउडस्पीकरों के माध्यम से ब्लैकआउट और सुरक्षा के निर्देश प्रसारित होते थे। कई युवा स्वयंसेवक रातभर गलियों में निगरानी करते थे।

भय, अफवाहें और सामाजिक तनाव
रातें डरावनी थीं। विमानों की गर्जना, बमों के धमाके और सायरन की आवाजें दिल की धड़कनें बढ़ा देती थीं। डर भगाने के लिए हमें हनुमान चालीसा पढ़ने को कहा जाता था। खतरा टलने पर बड़े धीमी आवाज में भजन गाते, लेकिन बत्तियाँ जलाने की हिम्मत नहीं होती थी। बच्चे डरे हुए थे, हालाँकि हमें यह नहीं पता था कि मरना क्या होता है। बमों की आवाजें सुनकर यह संतोष होता कि कम से कम हमारे घर पर बम नहीं गिरा। लेकिन डर हमेशा बना रहता था।

दिन में अफवाहों का बाजार गर्म रहता था। ज्यादातर अफवाहें मुस्लिम समुदाय के खिलाफ थीं, जैसे किसी मुस्लिम मोहल्ले से टॉर्च की रोशनी से इशारा किया गया। कुछ लोग मानते थे कि मुस्लिमों की सहानुभूति पाकिस्तान के साथ है। यहाँ तक कि उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन के किसी रिश्तेदार के जासूसी में पकड़े जाने की अफवाह भी उड़ी। हमारे मोहल्ले के एक पागल व्यक्ति को भी जासूस बताकर पकड़े जाने की बात फैलाई गई, हालाँकि युद्ध के बाद उसे फिर से उसी तरह घूमते देखा गया। इन अफवाहों का स्रोत उस समय अज्ञात था, लेकिन बाद में समझ आया कि ये हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य फैलाने के लिए सुनियोजित थीं।

युद्ध की तीव्रता और पलायन
जैसे-जैसे युद्ध तेज हुआ, हवाई हमले बढ़ते गए। शहर को कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ था, लेकिन डर का माहौल गहराता गया। मेरे दादाजी सबसे अधिक भयभीत थे, और उनकी रातें चिंता में बीतती थीं। दादी साहसी थीं, लेकिन उनकी चिंता गहनों की सुरक्षा को लेकर थी। उन्होंने अपने कपड़ों में जेबें बनाकर गहने छिपा लिए थे। बच्चे डरे हुए थे, और बड़े तनाव में। कुछ लोग चिड़चिड़े हो गए थे, और कुछ अपने डर को बच्चों पर डाँट-मार के जरिए निकालते थे। स्कूल में पढ़ाई समझ नहीं आती थी, क्योंकि रात की दहशत और नींद की कमी का असर होता था। शिक्षकों का भी मन पढ़ाने में नहीं लगता था।

कई परिवार शहर छोड़कर रिश्तेदारों के पास चले गए। हमारी बुआ जयपुर के पास नावा में रहती थीं, और उन्होंने हमें वहाँ आने को कहा। दादाजी किसी भी कीमत पर जोधपुर छोड़ना चाहते थे, लेकिन दादी घर छोड़ने को तैयार नहीं थीं। आखिरकार, 14 सितंबर की रात, जब एक ही रात में 40 बम गिरे, दादी ने फैसला किया कि बच्चों, बहुओं और दादाजी को नावा भेज दिया जाए। पिताजी और बड़े चाचा को नौकरी और कारोबार के कारण रुकना पड़ा। दूसरे चाचा के नेतृत्व में 17 लोगों का परिवार नावा रवाना हुआ।

नावा में चिंता और वापसी
नावा पहुँचकर भी डर और चिंता ने पीछा नहीं छोड़ा। जोधपुर में छूटे लोगों की फिक्र सताने लगी। संचार साधनों की कमी के कारण ताजा खबरें नहीं मिलती थीं। बमबारी की खबरें चिंता बढ़ाती थीं। स्कूल और पढ़ाई की चिंता भी सताने लगी। आठ दिन बाद जोधपुर रेलवे स्टेशन के पास जेल अस्पताल पर बम गिरा, जिसमें कई मरीज मारे गए। इस घटना ने दहशत बढ़ा दी, और हमने युद्धविराम से पहले ही जोधपुर लौटने का फैसला किया। लौटते समय कुछ लोगों ने हमें भगोड़ा कहकर ताने भी मारे।

युद्ध का प्रभाव और सबक
समाचारों के अनुसार, युद्ध के दौरान जोधपुर पर 250 से अधिक बम गिराए गए, जिनका वजन दो लाख पाउंड था। हवाई अड्डे को कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन जेल अस्पताल की घटना ने कई जिंदगियाँ छीन लीं। युद्ध के वे 15-20 दिन दहशत भरे थे। हम आम लोग केवल शिकार बन सकते थे, न मुकाबला कर सकते थे, न अपनी रक्षा। हमने मैदान छोड़कर भागने का रास्ता चुना।

(लेखक: जवरीमल्ल पारख)

छह साल बाद 1971 में एक और हवाई हमला हुआ, लेकिन वह केवल एक रात का था। बनाड़ के पास तेल भंडार पर बमबारी हुई, और आग की लपटें आसमान छूने लगीं। लेकिन इसके बाद कोई हमला नहीं हुआ, और लोग युद्ध की चर्चा मजाक में करने लगे।

आज का परिदृश्य
आज भारत और पाकिस्तान परमाणु हथियारों से लैस हैं। 1965 और 1971 की तुलना में उनके पास एक-दूसरे को नष्ट करने के कहीं अधिक साधन हैं। यदि युद्धोन्मादी नेतृत्व सत्ता में हो, तो जोधपुर जैसे सीमावर्ती शहर आसान निशाना बन सकते हैं। यह संस्मरण हमें याद दिलाता है कि युद्ध का सबसे बड़ा शिकार आम आदमी होता है, जिसके पास न लड़ने की शक्ति होती है, न बचने का साधन।
(लेखक: जवरीमल्ल पारख, जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष)

- Advertisement -
  • nimble technology
Latest News

निर्वाचन आयोग का बड़ा फैसला: मतदान केंद्रों पर मिलेगी मोबाइल जमा सुविधा, प्रचार नियमों में भी बदलाव

रायपुर (आदिनिवासी)। मतदाताओं की सुविधा को ध्यान में रखते हुए भारत निर्वाचन आयोग ने दो महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए...

More Articles Like This