ममता बनर्जी के आरएसएस प्रेम में पगे उदगारों को पढ़-सुनकर जिन्हें आश्चर्य हुआ है, उन्हें थोड़ा-सा बड़ा होने की सायास कोशिशें करनी चाहिए। रोटी को हप्पा, पानी को पप्पा और बाकी सबको अप्पा-चप्पा कहने की बचकानी उम्र से थोड़ा ऊपर उठने की जतन करनी चाहिए, क्योंकि हर चीज की तरह राजनीति भी कुल मिलाकर सब कुछ का जोड़ होती है। वह जैसी होती दिखती है, वैसी होती नहीं है, बल्कि एक प्रक्रिया से गुजरकर वैसी हुई होती है।
इसे उससे अलग या असंबद्ध करके न देखा जा सकता है, ना ही समझा जा सकता है। ममता बनर्जी भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं, इसलिए उनके सरोकारों, संबद्धताओं का आंकलन उनके आतिशी गालबजाऊ बयानों से नहीं, बल्कि उनके वास्तविक आचरण से किया जाना चाहिए। ऐसा करने के अनेकानेक आयाम हो सकते हैं, यहां उनमें से कुछ पर नजर डालना काफी है।
सबसे प्रमुख तो यह कि ममता बनर्जी बंगाल की समृद्ध साझी विरासत की जड़ों में तेज़ाब डालने की अपराधी हैं। भारत विभाजन के पूर्व और दौरान अनेक भीषण संत्रासों से गुजरने के बावजूद पश्चिम बंगाल की जनता का मानस और सामाजिक वातावरण कभी साम्प्रदायिक नहीं हुआ। उसने कभी साम्प्रदायिक राजनीति को तरजीह नहीं दी। न मुस्लिम लीग पनप पाई, ना हीं आरएसएस और उसकी जनसंघ, भाजपा नामी राजनीतिक भुजाओं को जड़ जमाने या अपनी विषबेल फैलाने का मौक़ा दिया। जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुख़र्जी के बंगाल से ही होने के बावजूद उनकी पार्टी लोकसभा और विधानसभा तो दूर की बात है, पंचायतों और नगरपालिकाओं में भी अपने निशान पर कभी किसी को नहीं जिता पाईं।
यह ममता बनर्जी थीं, जो बंगाल में भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को ढोकर ले जाने वाली पालकी की कहार बनीं – 1998 में दमदम लोकसभा सीट से भाजपा के तपन सिकदर इसके पहले सांसद थे, 1999 में 2 हो गए और उसके बाद कैंसर की तरह बढ़ते गए। इस तरह ममता के आरएसएस ममत्व ने बंगाल में भाजपा और संघ की घुसपैठ कराकर समावेशी बांग्ला संस्कृति की सदभाव और सौहार्द्र की मजबूत परम्परा में दरार डालने का कुचक्र रचा। यही सिलसिला आज भी जारी है।
राजनीति में बेमकसद कुछ नहीं होता, ममता ऐसा करके आरएसएस का अहसान चुका रही थीं। उनकी मनोरोगिता से भरी विकृत राजनीति के लिए जब कांग्रेस भी उन्हें उपयुक्त मंच नहीं लगी, तो 1998 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी टीएमसी बनाई। टीएमसी के बनते ही, अब तक बंगाल में असफल रही आरएसएस ने तुरंत इस नवजात पार्टी के पीछे अपनी ताकत झोंक दी – टीएमसी के बनने के बाद से 2011 के विधानसभा चुनाव तक ममता बनर्जी को स्थापित करने, उनकी हवा बनाने और उन्हें विकल्प बनाने की परियोजना की सीढ़ी अगर कॉरपोरेट था, तो उसकी धुरी संघ परिवार था।
नंदीग्राम से सिंगूर तक की लड़ाईयों को इन्ही के कंधों ने अपने ऊपर धरा। खुद लालकृष्ण आडवाणी तक उनके नाटकीय धरना, प्रदर्शनो में बैठने गए। तबके एनडीए के चेयरमैन जॉर्ज फर्नांडीज ने रो-रोकर अपने कुर्ते तक गीले कर लिए। नंदीग्राम के सवाल पर वाम विरोधी एकता में ममता के साथ खुलेआम माओवादी होने के बाद भी दोनों का साथ अटूट बना रहा। इतना अटूट कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी बंगाल की सभाओं में राज्य में दीदी और केंद्र में मोदी के रूप में दोनों हाथ में लड्डू होने का झांसा देकर वोट मांगते घूमे।
इसी निकटता के प्रतिदान में टीएमसी बनाते ही ममता एनडीए में शामिल हो गयीं और अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में रेल मंत्री बन गयीं। बीच-बीच में वे एनडीए के प्रति कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद होती रही। प्रेस गैलरी की तरफ मुखातिब होकर बोलती भले कुछ भी रहीं हो – संघ, भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति का दिल से कभी साथ नहीं छोड़ा। ऐसा नहीं कि वे इस विचार गिरोह के बारे में कुछ जानती नहीं थी। भाजपा नेतृत्त्व वाले गठबंधन से उनकी संबद्धता ही बाबरी विध्वंस के बाद शुरू हुयी थी, जो 2006 तक टीएमसी की एनडीए के साथ संलग्नता के रूप में जारी रही।
गुजरात के 2002 के भीषण दंगों के बाद भी वे न सिर्फ 2004 की जनवरी से लेकर मई तक अटल सरकार में मंत्री रहीं, बल्कि उस राज्य प्रायोजित वीभत्स हिंसा से बनाये गए उन्मादी माहौल में नरेंद्र मोदी के पुनः मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें शुभकामना देने अपने प्रतिनिधि के रूप में लोकसभा में टीएमसी के नेता विश्वजीत बंदोपाध्याय को गुलदस्ता लेकर गांधीनगर में हुए शपथ ग्रहण समारोह में भेजा। पिछले महीने उन्होंने ही बताया था कि अभी भी वे नरेंद्र मोदी को कुर्ता-पायजामा भेजती रहती हैं।
हाल के वर्षों में अलगाव की वजह भी वैचारिक भिन्नता नहीं है। मोदी-शाह-विजयवर्गीय द्वारा बंगाल में किया गया महाराष्ट्र का पूर्व रिहर्सल है। जब टीएमसी को तोड़ने की कोशिश हुई, थोक के भाव ममता के सांसद विधायक खरीदे जाने लगे, तब जरूर ममता भड़भड़ाईं, मगर इसके बाद भी अपनी नाराजगी पत्तों और टहनियों तक ही रखी, जड़ पर नहीं गयीं। संघ-भाजपा और मोदी से जुड़ने वाले पुल उन्होंने कभी नहीं जलाये।
भाजपा को “स्वाभाविक सहयोगी” और आरएसएस के लोगों में “बैड तालिबान – गुड तालिबान” बताना अज्ञानतावश नहीं है।यह उनके मन की बात है। इन दोनों के प्रति यह ममत्व ममता बनर्जी की राजनीतिक कार्यनीति भर नहीं है, वह उनकी वैचारिकता और आचरण दोनों का हिस्सा है। उन्होंने दावा किया है कि आरएसएस में अनेक अच्छे लोग हैं। आने वाले दिनों में जब वे इन “अच्छे संघियों” के नाम गिनायेंगी, तो सावरकर सबसे पहले नंबर पर होंगे, क्योंकि वे सिर्फ मनसा वाचा ही नहीं, कर्मणा भी सावरकर की पक्की अनुयायी हैं!! भारत की राजनीति में सिर्फ सावरकर हैं, जिन्होंने स्त्रियों के साथ बलात्कार को एक राजनीतिक हथियार बनाने का आह्वान किया था। व्यवहार में भले बाद में उनकी हिन्दू महासभा और संघ भाजपा इसे अमल में लाते रहे हों, लेकिन सार्वजनिक रूप से इस तरह के एलान करने की हिम्मत – अभी तक – उनकी भी नहीं हुयी।
ममता बनर्जी की टीएमसी देश की ऐसी इकलौती पार्टी है, जिसके नेताओं ने भरी सभा में न सिर्फ सीपीएम कार्यकर्ताओं की महिलाओं के साथ बलात्कार के खुलेआम आव्हान किये, बल्कि धड़ल्ले से इस तरह के बलात्कारों की आपराधिकताएँ अंजाम भी दीं। लैंगिक आधार पर एक स्त्री होने के बावजूद ममता बनर्जी ने इन आव्हानों की निंदा-भर्त्सना करना तो अलग रहा, बलात्कार के इन आव्हानकर्ताओं और बलात्कारियों को संरक्षण प्रदान किया। उनका हौंसला बढ़ाया। लोकतंत्र और संविधान सम्मत बर्ताव के मामले में उन्होंने बंगाल की क्या गत बना रखी है, यह किसी से छुपा नहीं है।
राजनीति एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें ताकत साथ आकर गठबंधन करके ही नहीं जुटाई जाती, अलग रहकर बाकी का विभाजन करके, करवा के भी हासिल भी की जाती है। अपनी ताकत के मुकाबले खड़ी शक्तियों को छिन्न भिन्न करना फासिस्ट रुझान वाली राजनीति की मुख्य तिकड़म होती है। इसके लिए वे अपने घोषित आनुषंगिक संगठनों से ही काम नहीं लेते, देखने में विरोधी दिखते दलों, समूहों से भी काम चलाते हैं ; हाल के दिनों में ओवैसी, मायावती और केजरीवाल के उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। ममता आरएसएस के इसी ग्राण्ड प्रोजेक्ट का महत्वपूर्ण मोहरा हैं। वे पूरे भक्तिभाव और समर्पण के साथ अपने लिए निर्धारित भूमिका निबाह रही हैं।
जब-जब इस देश में विपक्षी दलों के एकजुट होने के आसार बने, इसकी ठोस संभावनाएं सामने आईं – तब-तब ममता उसे तोड़ने का औजार बनी हैं। हाल में हुए राष्ट्रपति – उपराष्ट्रपति चुनाव इसका ताजातरीन उदाहरण हैं। ममता बनर्जी ने खुद अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का साथ बीच में छोड़कर और उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का साथ देने से इंकार करके जहां एक तरफ भाजपा का काम आसान कर दिया, वहीँ सत्ता पार्टी के “अब तो देश में कोई विपक्ष बचा ही नहीं” के नैरेटिव को आगे बढ़ाने का बहाना मुहैया करा दिया। सत्तान्मुखी कारपोरेट मीडिया को “अब तो कोई विकल्प संभव ही नहीं है” का निराशाजनक माहौल बनाने का मौक़ा दे दिया।
छल और छद्म ज्यादा दिन नहीं चलते – रंग-रोगन कितना भी गाढ़ा क्यों न हो, हमेशा नहीं टिकता। देश की जनता इसे समझ रही है। बंगाल की जनता इसे समझ चुकी है। पूरे बंगाल में लाखों की तादाद में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। विराट लामबन्दियां हो रही हैं। मध्यम वर्ग और छात्र-युवाओं की तंद्रा टूट रही है, मेहनतकश जाग रहे हैं। इस उभार और अपनी असलियत उजागर होने से खीजी और बौखलाई ममता बनर्जी की सरकार लाठियों, जेलों की बर्बरता से उन्हें दबाने और कुचलने की कोशिश कर रही है।
वे भूल रही हैं कि अतीत में इसी तरह के दमनों की भट्टी से गुजरकर बंगाल और देश-दुनिया का वाम और ज्यादा ताकतवर होकर उभरा है। इस बार भी ऐसा ही होगा ; यही हालात हैं, जिनके चलते आरएसएस के प्रति ममता की ममता उमड़ी पड़ रही है। जैसे-जैसे उनका अलगाव बढ़ेगा, वैसे वैसे आरएसएस के प्रति उनका प्रेम और ऊँची पींगें लेगा।
इसी मौके पर मोदी सरकार के हथियार के तौर पर काम कर रही सीबीआई आदि सरकारी एजेंसियों ने भी अपनी भूमिका संभाल ली है। बुनियादी तौर पर सत्ता तथा भ्रष्टाचार के गोंद से जुड़ी तृणमूल कांग्रेस के, ममता के ख़ास नजदीकी भ्रष्टों की गार्डन की ओर हाथ बढ़ाने का डर दिखाकर, उन्होंने ममता के लिए त्राताओं के रूप में आरएसएस के लोगों की अच्छाई को सार्वजनिक रूप से याद करना और जरूरी बना दिया है।
-बादल सरोज
(लेखक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)