सोमवार, अक्टूबर 14, 2024

मिलार्ड, निर्णय तो मिला पर न्याय नहीं!

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2019 के अगस्त में शुरू में जम्मू-कश्मीर के संबंध में केंद्र सरकार ने जो विवादास्पद कदम उठाए, उनकी कानूनी/ संवैधानिक वैधता पर उस समय संसद में तथा संसद के बाहर भी गंभीर सवाल उठे थे और उसी आधार पर इन कदमों को सुप्रीम कोर्ट में कई राजनीतिक तथा सामाजिक-नागरिक अधिकार संगठनों की ओर से चुनौती भी दी गयी थी। बहरहाल, कानूनी वैधता पर विवाद के विपरीत, मोदी सरकार के उक्त कदमों के संबंध में एक बात निर्विवाद थी।

ये कदम सत्ताधारी भाजपा और उससे भी बढक़र उसके मातृ संगठन, आरएसएस के बुनियादी लक्ष्यों में से एक को पूरा करने वाले कदम थे। कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली संविधान की धारा-370 को खत्म कराना, स्वतंत्रता की शुरूआत से ही आरएसएस के और उसके द्वारा खड़ी की गयी राजनीतिक पार्टियों, पहले जनसंघ और आगे चलकर भाजपा के मूल एजेंडे पर रहा था। अगर सवा चार साल पहले, भाजपा की प्रबल बहुमत की सरकार ने, आरएसएस के इस पुराने एजेंडे को पूरा कर दिया था, तो अब सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने, मोदी सरकार के उक्त कदमों पर वैधता की मोहर लगाकर, आरएसएस के उक्त एजेंडे के पूरे किए जाने को, तथाकथित अमृतकाल के भारत की नियति बना दिया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि देश को बलपूर्वक इस दिशा में धकेले जाने की समस्या सिर्फ यह नहीं है कि यह दिशा आरएसएस के एजेंडे की है। समस्या यह है कि यह दिशा, इस देश के स्वतंत्रता संघर्ष की मूल दिशा से उल्टी है। स्वतंत्रता संघर्ष की उस मूल दिशा ने ही इसका रास्ता बनाया था कि इस्लाम के नाम पर भारत से अलग होकर पाकिस्तान के बनने और ज्यादातर लगते हुए मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान में जाने के बावजूद, सीमाएं लगने के बावजूद मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर कानूनन भारत के साथ बना रहा है और उसका बड़ा हिस्सा आज भी भारत के अधिकार में है। आरएसएस के एजेंडे की मूल दिशा, जो जम्मू-कश्मीर की इस बहुसंख्यक आबादी के प्रति बैर भाव पर आधारित है, इस नाजुक रिश्ते को उधेड़ने का ही काम कर सकती है, फिर चाहे एक भूभाग के रूप में उसके कितने ही बड़े हिस्से पर बलपूर्वक नियंत्रण रखना क्यों न संभव हो।

इसलिए, भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के बीच से निकली, स्वतंत्र भारत की मूल संकल्पना की परवाह करने वाला कोई व्यक्ति अगर बरबस, बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बैंच के ही फैसले के बाद चलन में आयी इस उक्ति को एक बार फिर दोहराए, तो हैरानी की बात नहीं होगी — मीलार्ड, फैसला मिला है, न्याय नहीं!
न्याय नहीं मिलने के दो पहलू हैं, जो आगे चलकर आपस में जुड़ जाते हैं। पहला तो यही कि धारा-370 के निरस्त किए जाने को वैध ठहराते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने उस विशिष्ट रिश्ते की ओर से आंखें ही मूंदे रखी हैं, जिसकी अभिव्यक्ति इस धारा की विशिष्ट व्यवस्था में हो रही थी। इसी का नतीजा सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस दावे के रूप में सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद, उसकी कोई ‘आंतरिक संप्रभुता’ नहीं रह गयी थी। और इसलिए, संप्रभुता के इकलौते आसन के रूप में भारतीय संघ को, अपने अंग के रूप में उसके लिए निर्णय लेने के समस्त अधिकार हैं, जिसमें धारा 370 को खत्म करना भी शामिल है।

लेकिन, संप्रभुता की यह नितांत एकात्मवादी अवधारणा है, जबकि भारतीय संविधान में स्थापित संघीय व्यवस्था, संप्रभुता की एक बहुपरतीय अवधारणा की मांग करती है, जहां स्वायत्तता के रूप में संप्रभुता के तत्व दूर तक बिखरे रहते हैं। राज्यों के अधिकारों की विस्तृत व्यवस्था पर आधारित भारतीय संघीय व्यवस्था, संप्रभुता के तत्वों के इसी बिखराव की अभिव्यक्ति है। धारा-371 के अंतर्गत उत्तर-पूर्व के अनेक राज्यों में तथा अन्य कई राज्यों में भी, संघीय शासन के बरक्स स्थानीय शासन को दिए गए विशेषाधिकार, इसी का एक और स्तर हैं। धारा-370 इसी के एक और स्तर को अभिव्यक्त करती थी, जिसमें इस रूप में इसकी अनुल्लंघनीयता की गारंटी भी जोड़ी गयी थी कि इसका अनुमोदन करने वाली जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के अनुमोदन से ही, इसे बदला जा सकता था। यह एक पवित्र वादे की अभिव्यक्ति थी, जो भारतीय संघ की ओर सेे विलय के समय, जम्मू-कश्मीर की जनता से किया गया था।

लेकिन, 2018 में राज्य में राज्यपाल/ राष्ट्रपति शासन लगाकर, विधानसभा के भंग किए जाने के जरिए, कपटपूर्वक इस वादे को तोड़े जाने का रास्ता तैयार किया गया, जिस पर अदालत ने इसलिए अनुमोदन की मोहर लगा दी है कि उसकी नजर में ऐसा करना उस संप्रभुता के दायरे में था, जिसका एकमात्र संघ में ही वास है। संप्रभुता की इसी सीमित करने वाली अवधारणा का विस्तार कर, मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में, पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस मनमाने निष्कर्ष पर पहुंची कि संविधान की धारा, जम्मू-कश्मीर के भारत से ‘पूर्ण-एकीकरण’ के लिए की गयी एक ‘अस्थायी’ व्यवस्था थी और इसलिए, उसका खत्म होना उसके अस्तित्व के उद्देश्य के ही पूरा होने का सूचक है। धारा-370 के खत्म किए जाने के लिए, इस धारा को ही दलील बनाए जाने से, ऊटपटांग चीज दूसरी नहीं हो सकती है।
न्याय नहीं मिलने का दूसरा पहलू, मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने और उसे दो केंद्र शासित क्षेत्रों में बांटने के निर्णय से संबंधित है। राज्य का दर्जा खत्म करने और उसे टुकड़ों में बांटने का यह निर्णय, इसके बावजूद लिया गया था कि उस समय जम्मू-कश्मीर विधानसभा अस्तित्व में ही नहीं थी, जबकि संघीयता के तकाजों के आधार पर संविधान इसकी स्पष्ट व्यवस्था करता है कि संघ के हिस्से के रूप में किसी राज्य के दर्जे या उसकी सीमाओं में बदलाव केे लिए, संघ का प्रस्ताव राष्ट्रपति द्वारा राज्य की राय हासिल करने के लिए उसे भेजा जाना आवश्यक है, भले ही राज्य की राय राष्ट्रपति के लिए बाध्यकर नहीं होती है। इस मामले में कपटपूर्वक इस मामले में राज्य की राय के स्थानापन्न के रूप में राज्यपाल की राय को रख दिया गया, जो निर्विवाद रूप से संघीय सरकार का एजेंट होता है। विचार करने का प्रश्न यह था कि क्या केंद्र को इसकी इजाजत दी जा सकती है कि अपने ही एजेंट की राय को, राज्य की राय बनाकर, राज्यों के साथ अपनी मनमानी का रास्ता बना ले।
दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस प्रश्न को सीधे संबोधित करने से बचने का ही रास्ता ही अख्तियार किया। उल्टे, उसने पूरे मामले में विचार कर कोई निर्णय देने से ही इस बहाने से इंकार कर दिया कि संघ सरकार की ओर से यह वादा किया गया था कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। इसलिए, इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत ही नहीं रह जाती है! लेकिन, इस मामले में विवाद में न जाने की अदालत की उत्सुकता इतनी प्रबल थी कि उसने वादा करने वाले संघीय शासन से यह तक जानने की जरूरत नहीं समझी कि राज्य के दर्जे की बहाली कब की जाएगी? उल्टे, उसी फैसले में उसने मोदी सरकार के उन्हीं कदमों के क्रम में, जम्मू-कश्मीर को तोड़कर, लद्दाख को केंद्र शासित क्षेत्र बनाए जाने को वैध भी ठहरा दिया। यानी कुल मिलाकर, एक राज्य को, उसकी राय लिए बिना टुकड़ों में बांटे जाने को उसी अदालत ने वैध ठहरा दिया, जिसने ऐसा किए जाने की वैधता को दी गयी चुनौतियों पर विचार कर इस पर संवैधानिक व्यवस्था स्पष्ट करने जरूरत नहीं समझी।

एक नजीर के रूप में, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का यह पहलू, जम्मू-कश्मीर के साथ जो कुछ करता है, उसके अलावा देश की संघीय व्यवस्था मात्र के लिए गंभीर खतरे का रास्ता खोल देता है। इस तरह तो कोई संघीय शासन अपनी मर्जी से पहले किसी राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाकर और इस तरह से वहां अपने एजेंट के रूप में राज्यपाल को राज्य की राय का स्थानापन्न बनाकर, इस कपटचाल के जरिए आसानी से किसी भी राज्य का दर्जा घटा सकता है, उसे तोड़ सकता है, उसकी सीमाओं को बदल सकता है या उसके क्षेत्र का किसी दूसरे राज्य में विलय कर सकता है। सिद्घांत रूप में तो इस तरह संघीय शासन, सभी राज्यों को खत्म कर, संघीय ढांचे का अस्तित्व ही खत्म कर सकता है और देश में एकात्मक व्यवस्था कायम कर सकता है। जिस तरह, धारा-370 का सहारा लेकर धारा-370 को ही खत्म किया गया है, उसी प्रकार संघीय व्यवस्था करने वाले संविधान का सहारा लेकर, संघीय व्यवस्था को भी खत्म किया जा सकता है।

अन्याय के ये दोनों पहलू वहां जुड़ जाते हैं, जहां संविधान पीठ भारतीय संघ के केंद्रीयकरणकारी मंसूबों पर अंकुश लगाने का अपना संवैधानिक दायित्व पूरा करने के बजाए, उसमें संप्रभुता के वास के नाम पर ज्यादा से ज्यादा उसके कदमों के साथ चलता नजर आता है। हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के दो-दो पूर्व-न्यायाधीश अब तक सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अन्यायपूर्ण करार देकर, सर्वोच्च न्यायालय से अपने निर्णय को बदलने की मांग कर चुके हैं।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व-न्यायाधीश रोहिंग्टन नारीमन ने तो यह गंभीर सवाल भी उठाया है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह अन्याय कैसे होने दिया कि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन का बिना किसी आधार के विस्तार किया जाता रहा है, जबकि देश का संविधान एक साल से आगे विस्तार पर काफी कड़ाई से अंकुश लगाता है और इसके कोई लक्षण नहीं हैं कि जम्मूू-कश्मीर के मामले में इस कड़े अंकुश के तकाजों को पूरा किया गया हो। परोक्ष रूप से वह इसका इशारा करते नजर आते हैं कि जम्मू-कश्मीर के प्रति, संघ परिवार के सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से संचालित अन्याय में, सुप्रीम कोर्ट भी हमकदम बनता नजर आता है।
(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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