बुधवार, अक्टूबर 15, 2025

आदिवासी कोई जनजाति या बनवासी नहीं, बल्कि एक विशिष्ट सामाजिक-ऐतिहासिक समूह का नाम है

Must Read

भारत के अस्तित्व में आदिवासी समाज का स्थान सबसे प्राचीन, सबसे विशिष्ट और सबसे महत्वपूर्ण है। “आदिवासी” मात्र एक नाम नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान है, जो जल-जंगल-जमीन, श्रम, सामूहिकता और समानता की जीवनदृष्टि में निहित है। लेकिन दुखद यह है कि इस अस्मिता को बार-बार “जनजाति” और “वनवासी/बनवासी” कहकर छोटा किया गया है। यह केवल भाषाई गलती नहीं, बल्कि एक सुनियोजित वैचारिक षड्यंत्र है, जो आदिवासी समाज को उनकी असली पहचान से काटकर एक संकीर्ण धार्मिक चादर में लपेटने का प्रयास करता है।

आदिवासी बनाम जनजाति और वनवासी

“आदिवासी” का अर्थ है – इस धरती के आदि निवासी, मूल निवासी। यह शब्द उनकी ऐतिहासिक जड़ों, सांस्कृतिक धरोहर और प्राकृतिक जीवन के साथ उनके गहरे जुड़ाव का प्रतिनिधि है। जबकि “जनजाति” शब्द औपनिवेशिक और प्रशासनिक परिभाषाओं से प्रकट हुआ और चलन में आया, जिसने उन्हें मात्र एक “कबीलाई” समूह तक सीमित कर दिया।
“वनवासी” या “बनवासी” कहना और भी अपमानजनक है, क्योंकि यह बताने की कोशिश है कि आदिवासी सिर्फ जंगलों के वासी हैं और सभ्यता से अलग-थलग पड़े हुए लोग। जबकि सच्चाई यह है कि आदिवासी समाज ने खेती, धातुकर्म, कला, भाषा, आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था और लोकतांत्रिक ग्राम व्यवस्था जैसी श्रेष्ठ परंपराएँ दीं।
आदिवासियों को “जनजाति” या “वनवासी” कहना वस्तुतः उनकी पहचान का अपमान है। यह उनके इतिहास, संस्कृति और अस्मिता को मिटाने की कोशिश है।

धार्मिक ढांचे में ढालने की साज़िश

आदिवासी अस्मिता किसी धर्म की मोहताज नहीं। आदिवासी अपने तरीके से प्रकृति, पर्व-त्योहार, पुरखों-पूर्वजों और सामुदायिक जीवन का उत्सव मनाते हैं। वे चाहे किसी धर्म को मानें या बिल्कुल न मानें – यह उनकी अपनी मर्जी है और उनका संवैधानिक अधिकार है। लेकिन संगठित रूप से उन्हें “हिंदू धर्म” की चादर में लपेटकर और और एक नए ढांचे में ढालकर “वनवासी” कहने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि आदिवासी समाज का घोर अपमान भी है।

आदिवासियों की आस्था को नकारकर उन पर जबरन हिंदू धर्म थोपना और उनके आरक्षण पर बार-बार सवाल उठाना एक खतरनाक प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति न केवल सामाजिक समरसता के खिलाफ है, बल्कि भविष्य में गंभीर टकराव का कारण भी बन सकती है। धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को इतिहास के सामाजिक संघर्षों से सबक लेना चाहिए और समझना चाहिए कि जब भी किसी समुदाय की अस्मिता पर लगातार हमला होता है, तो वह संघर्ष और प्रतिरोध के रास्ते पर उतर आता है।

संवैधानिक अधिकार और गारंटी

भारत का संविधान आदिवासी समाज को अनुसूचित जनजाति के रूप में विशेष अधिकार, आरक्षण और सुरक्षा देता है। यह अधिकार कोई कृपा नहीं, बल्कि सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय का आंशिक प्रतिकार है।
इसलिए आवश्यक है कि—

आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन पर पूर्ण अधिकार मिले।
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में आरक्षण की गारंटी अक्षुण्ण रखी जाए।
उनकी संस्कृति, भाषा और परंपराओं की रक्षा की जाए।
किसी भी धार्मिक-सांस्कृतिक दबाव से मुक्त होकर उन्हें अपने जीवन की दिशा चुनने की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए।

आदिवासी समाज को “जनजाति” या “वनवासी” कहना उनके इतिहास और अस्मिता का घोर अपमान है। उन्हें केवल सही नाम से बुलाना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों की गारंटी और उनकी विशिष्ट पहचान का सम्मान करना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

आज के दौर में यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि –
आदिवासी न तो “जनजाति” हैं और न “वनवासी”; वे इस भूमि के मूल निवासी, इतिहास के वाहक और भविष्य के सामाजिक संतुलन की आधारशिला हैं। उनकी अस्मिता को छीनने की किसी भी कोशिश के गंभीर सामाजिक परिणाम होंगे।

आदिवासी अस्मिता घोषणापत्र!

प्रस्तावना
हम, भारत के आदिवासी समाज और उनके समर्थक, यह घोषणा करते हैं कि आदिवासी न “जनजाति” हैं, न “वनवासी” और न ही “बनवासी”।
आदिवासी एक विशिष्ट ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान हैं।
उन्हें किसी धर्म, पंथ या संकीर्ण श्रेणी में बांधना, उनके गौरव और अस्मिता का घोर अपमान है।

असली पहचान पर अडिग रहना

“आदिवासी” ही उनकी असली पहचान है।
उन्हें “जनजाति” कहकर औपनिवेशिक श्रेणी में सीमित करना अस्वीकार्य है।
“वनवासी/बनवासी” कहकर उन्हें हिंदू धर्म की चादर में लपेटने का हर प्रयास एक षड्यंत्र है।

आस्था और धर्म की स्वतंत्रता

आदिवासी समाज चाहे किसी भी धर्म को माने या बिल्कुल न माने – यह उनका संवैधानिक और मानव अधिकार है।
आदिवासी पर किसी भी धर्म को जबरन थोपने की कोशिश अस्वीकार्य और लोकतंत्र-विरोधी है।
उनके धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन में दखल देना सामाजिक सौहार्द पर सीधा हमला है।

आरक्षण और संवैधानिक अधिकार

आदिवासी समाज का आरक्षण उनका ऐतिहासिक अधिकार है, कोई दान या उपकार नहीं।
आरक्षण को छीनने, घटाने या कमजोर करने का हर प्रयास आदिवासी अस्मिता के खिलाफ युद्ध माना जाएगा।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों के अधिकार की पूर्ण गारंटी दी जानी चाहिए।

जल-जंगल-जमीन और आजीविका

आदिवासी का जीवन जल, जंगल और जमीन से जुड़ा है।
कॉर्पोरेट या विकास परियोजनाओं के नाम पर आदिवासी भूमि का अधिग्रहण बंद होना चाहिए।
ग्रामसभा और स्थानीय समुदाय की अनुमति के बिना किसी संसाधन का दोहन असंवैधानिक है।

चेतावनी और सबक

धर्म के नाम पर आदिवासी पहचान को मिटाने की कोशिश एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
इतिहास गवाह है कि अस्मिता पर हमला होने पर संघर्ष और विद्रोह अनिवार्य हो जाता है – चाहे वह शहीद वीर नारायण सिंह का “अस्तित्व संघर्ष” हो, बिरसा मुंडा का उलगुलान हो, ताना भगत आंदोलन हो या जल-जंगल-जमीन की आज की आधुनिक लड़ाई।
राजनीति करने वालों को चेत जाना चाहिए कि आदिवासी अस्मिता पर चोट भविष्य में गंभीर सामाजिक संघर्ष को जन्म दे सकती है।

हम यह संकल्प लेते हैं कि –
आदिवासी समाज की पहचान को हर कीमत पर “आदिवासी” नाम से सुरक्षित रखेंगे।
किसी भी धार्मिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक षड्यंत्र के खिलाफ आवाज़ उठाएँगे।
संविधान प्रदत्त अधिकारों और आरक्षण की रक्षा करेंगे।
आदिवासी अस्मिता के सम्मान और गौरव के लिए संघर्ष को तेज करेंगे।
आदिवासी अस्मिता अटूट है –
इसे जनजाति या वनवासी कहकर मिटाया नहीं जा सकता।
आदिवासी ही इस धरती के असली मालिक और उसके भविष्य के संरक्षक हैं।
– आदिनिवासी गण परिषद

- Advertisement -
  • nimble technology
Latest News

बालको के सेवानिवृत्त कामगारों की हक और सम्मान की लड़ाई तेज़ — 15 अक्टूबर को एकता पीठ में होगी निर्णायक बैठक

स्थान: एकता पीठ परिसर, ऐक्टू यूनियन कार्यालय, बालकोनगर, कोरबासमय: प्रातः 11:30 बजे से कोरबा (आदिनिवासी)। बालको के सेवानिवृत्त श्रमिकों के...

More Articles Like This