रविवार, सितम्बर 8, 2024

आरक्षण और आदिवासी

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आरक्षण जैसे विषय पर आदिवासी समाज में गहन अध्ययन करने से ज्ञात होगा कि, आरक्षण से प्राप्त होने वाले सभी सँवैधानिक लाभों को अधिकाँश आदिवासी यही समझता है कि यह सबकुछ उसे सरकार की कृपा से मिल रहा है।ऐसा समझने वाले सिर्फ ग्रामों में रहने वाले आदिवासी ही नही है बल्कि पढे, लिखे शहरी भी कुछ सालों पहले तक ऐसा ही मानते थे।

भारत की अनुसूचित जातियों ने जिस तेजी से देश के सभी क्षेत्रों में अपनी उपलब्धि पूर्ण उपस्थित दर्ज कराई है, उसके पीछे शिक्षा की भूख और साहित्यिक अध्यनशीलता की बहुत बडी भूमिका है।बिखराव और टकराव वहां पर भी है लेकिन अपने सामाजिक न्याय के लिए वे लोग सारे मतभेदों व मनभेदो को मिटाकर एक हो जाते हैं।वे लोग आज भी सँघर्ष कर रहे हैं और मुझे सौ प्रतिशत विश्वास है कि 100वर्षों में वे अपनी सफलता का परचम देश भर मे लहराने मे कामयाब जरूर होगें।

आदिवासी समाज का तो वर्तमान ही इतना अस्त,व्यस्त है कि भविष्य के सुनहरे होने का सवाल ही खडा नही होता।आज की आदिवासी युवा पीढी के पास कोई विजन नही है क्योंकि उनके वरिष्ठों के पास ही कोई अपनी विचारधारा नहीं है।

आज बडे पैमाने पर दलित वर्ग का बुद्धिजीवी पूरे देश भर मे कार्यशाला आयोजित कर अपने समुदाय को हर क्षेत्र का प्रशिक्षण दे रहे है।आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी इस कार्यशालाओं मे निःशुल्क प्रवेश नही दिया जाता।उनकी कार्यशाला में राशि देकर प्रवेश करने वालों की भीड होती है। एक आदिवासी समाज हैं जहाँ इस प्रकार के आयोजन की सोच तक पैदा नही हो पा रही हैं।कुछ समाज सेवियों ने ऐसा कुछ करने का प्रयास किया भी तो आँशिक सफलता ही मिल पाई।

आदिवासी समाज, सभा सम्मेलन व नाचने गाने से आज भी बाहर नहीं आ पा रहा है।आदिवासी समाज को इस बदलते परिवेश में साँस्कृतिक जन जागरण से अधिक बौद्धिक दृष्टिकोण को अपनाने की एकमात्र जरूरत है।

आरक्षण और निःशुल्क मानसिकता से आदिवासी समुदाय ग्रसित होते चले जा रहा है।आज इस फोकट छाप वाली मानसिकता ने आदिवासियों का बहुत कुछ लूट लिया है।साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं,अखबारों, किताबों का आज भी शिक्षित आदिवासियों के पास कोई स्थान नहीं है।यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।इससे हर हाल में बाहर निकलना ही होगा।भारत की अनुसूचित जातियों ने आज साहित्य का पिरामिड खडा कर दिया है तो दुसरी तरफ भारत की जनजातियों के पास ना पढने की फुरसत हैं और ना लिखने के लिए समय है।अभी भी वक्त है नया करने का, नया सोचने का। अब भी नही जागे तो आने वाला सँकट और बडा होगा।

-के.आर.शाह

(लेखक छत्तीसगढ़ आदिवासी विकास परिषद के अध्यक्ष एवं ‘आदिवासी सत्ता’ के संपादक हैं)

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