15 अक्टूबर 1934 को बांबे विधान परिषद में पहली बार देवदासी प्रथा के खिलाफ विधेयक पारित किया गया और इस रोक लगाने की सरकारी कोशिशें हुईं। यह सब बहुत पहले की बात नहीं है। वर्तमान में भी यह प्रथा जारी है।
खैर, मैं जोया जैदी की एक कविता के बारे में सोच रहा हूं। इस कविता का शीर्षक है– देवदासी का गीत
मेरे कानों में मंदिर की घंटियां बजती हैं
जिस दिन जन्मी मैं बिनब्याही माँ को
उस दिन से सुनती आ रही हूँ घंटियाँ मंदिर की
मेरी मां ब्याही गई मंदिर को
लेकिन, मेरा पिता कैसे हो सकता…?
मेरे कानों में मंदिर की घंटियां बजती हैं
मैं मंदिर की दीवारों के मौन उच्छ्वास
सुनती हूँ रात के गहरे अंधेरे में
सुनती हूँ उसांसे …परितृप्ति की
सुनती हूँ मां की सिसकियां
परितृप्त उसांसों से लिपटी दबी सिसकियां
उसांसे अतृप्ति की
मैं लेटी हूँ मंदिर के ठंडे बेजान पत्थर पर
मेरा पालना है गहरे अंधेरे खोह में
जहाँ बुमिश्कल पहुँच पाती है कोई रौशनी
मुझे चाहिए पिता का स्नेह स्पर्श
उसकी ममतालु गोद
माँ से पूछती हूँ जब
कहती है मंदिर ही है तुम्हारा पिता
एक दिन अकस्मात्
अधभिड़े किवाड़ की दरार से
पुजारी को हाँफते, सिसकारियाँ भरते पसीने से तरबतर
देखा, माँ की आँखों में विषादमय आश्चर्य!
(क्योंकि वह निरावृत्त थी मेरे सामने)
मौन गिड़गिड़ाहट और असहाय अश्रुपूरित आँखों को सुना मैंने
जाओ यहाँ से जाओ-बच्ची हो अभी
लेकिन एक दिन,
मैं बच्ची नहीं रही
प्रथम स्पर्श महसूसा
रेंगता, लिजलिजाता, चिपचिपा स्पर्श
पुजारी की आँखों में
वही स्पर्श उसकी बाँहों की जकड़ में था
जी मिचला गया, वमन से सँध गया गला
ये पिता-सा स्पर्श तो नहीं
मेरी मासूम हड्डियाँ भी जान गईं
फिर कोई दूसरा, फिर तीसरा …
अब मैं भी हूँ माँ …
जो नहीं जानती गर्भस्थ शिशु के पिता का नाम
अपनी माँ की तरह ही कहूँगी
अपनी बेटी से
मंदिर ही है तुम्हारा पिता
यही सदियों से चला आया है
चलता रहा है
चलता रहेगा
मैं मंदिर की देवदासी हूँ
मंदिर हो सकते हैं क्षत-विक्षत, जीर्ण-शीर्ण
लेकिन मैं
रहूँगी सदा देवदासी
चलती रहूँगी यूं ही अनवरत.
जोया की इस कविता में देवदासी प्रथा का संपूर्ण चित्रण है, जिसे धार्मिक मान्यता रही है। इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि इसके पीछे ब्राह्मण्वादी-सामंती समाज की विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक संरचना रही है। यह विडंबना ही है कि वर्ष 2019 में राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा जारी रपट के अनुसार आज भी हजारों की संख्या में दलित स्त्रियाँ देवदासी बनने के लिए बाध्य हैं। रपट के अनुसार महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर 250,000 दलित देवदासियां मौजूद हैं। आंध्र प्रदेश में इन देवदासियों को ‘जोगिनी’, आसाम में ‘नटी’, कर्नाटक में ‘बासवी’, गोवा में ‘भवानी’ जैसे अनेक नामों से पुकारा जाता है।
दरअसल जिस ब्राह्मणवादी-सामंती सामाजिक अर्थव्यवस्था की बात मैं कर रहा हूं, वह मेरे हिसाब से उसका प्रारंभ पांचवीं-छठी शताब्दी रहा होगा। इतिहास में इसे मध्यकाल का प्रारंभ माना गया है।
(आर.एस. शर्मा, भारतीय सामंतवाद, अनवुादक – आदित्य नारायण, दिल्ली, 1973, पृ. 2)
इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि इसी समय बड़े पैमाने पर राजनीति, सेना और धर्म से जुड़े हुए लोगों को अनुदान और वेतन के रूप में जमीनें देने की प्रथा आरंभ हुई। वेतन के तौर पर जमीन देने की प्रथा दक्षिण भारत में सातवाहन शासकों से शुरू हुई।
मैं मंदिरों के बारे में सोचता हूं। जाहिर तौर पर मैं सोच इसलिए रहा हूं क्योंकि दुनिया के लगभग हर मुल्क में सत्ता के केंद्र के रूप में ऐसे केंद्र स्थापित किये गये हैं। भारत में इन्हें मंदिर कहा गया। बौद्ध धर्म की अवधारणा में यह मठ, स्तूप और विहार हैं। कबीरपंथ में भी मठों की परंपरा रही है। यह सब बिल्कुल वैसे ही है जैसे ईसाई धर्म की अवधारणा में चर्च और इस्लाम में मस्जिद है।
हिंदू धर्म में मंदिरों की परंपरा बहुत पुरानी है, यह तो माना ही जाना चाहिए। लेकिन यह कितनी पुरानी है, इसे लेकर सवाल हैं। मैं तो अपने गांव ब्रह्मपुर में स्थपित मंदिर के बारे में सोच रहा हूं। मेरा यह गांव बिहार की राजधानी पटना में है। दस्तावेज बताते हैं कि मेरा गांव 1914 में बसा। इसका एक प्रमाण मेरे गांव का मंदिर है। यह मंदिर भी उसी साल स्थापित हुआ। हालांकि तब मेरे गांव का नाम ब्रह्मपुर नहीं था। मेरा यह गांव मेरे पड़ोसी गांव रानीपुर जो कि तत्कालीन जमींदार को उसके ससुराल द्वारा दहेज के रूप में दिया गया था, का एक टोला कहलाता था– रानीपुर का टोला। मेरे गांव का नामकरण 1960 के दशक में हुआ। मेरे गांव के लोग बताते हैं कि यह तब हुआ जब मेरे गांव में ब्राह्मण परिवार बसने आया।
खैर, मैं उन मंदिरों के बारे में सोच रहा हूं जहां देवदासी प्रथा रही।
दरअसल, भक्ति संस्कृति के विकास ने मंदिर निर्माण क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। भक्ति आंदोलन ने सभी वर्गों और जातियों के लोगों को अपने-अपने आराध्य देव के पूजन और आराधन का अवसर दिया। ईश्वर आराधना के अंतर्गत मंदिर निर्माण, मंदिरों का पुनरुद्धार, मंदिर प्रांगण का परिष्कार, आराध्य का स्तुतिगान और नृत्यगान आदि आते थे। वहीं दक्षिण के राज्यों में नयनार संतों के उपदेशों ने भी मंदिर व्यवस्था को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। निश्चित तौर पर इनका उपयोग सियासत के लिए किया गया।
वैसे भारत के मठ-मंदिरों का अपना आर्थिक पक्ष भी रहा है। मंदिर के पुजारियों के पास भूमि संपदा रहती थी। यह तो आज भी है। बिहार में तो एक संस्था ही है, जिसका गठन राज्य सरकार करती है। इसका नाम है– बिहार धर्म न्यास परिषद। यह संस्था मंदिरों की परिसंपत्तियों का हिसाब-किताब रखती है। हालांकि यह संस्थान अपनी रपटें जाहिर नहीं करता। यह मुमकिन है कि वह अपनी रपटें सूबे की सरकार को गुप्त तरीके से देता हो।
मैं मंदिरों को धार्मिक केंद्र बनाने की प्रक्रिया के बारे में सोच रहा हूं। दरअसल, जीव और आत्मा के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए ऐसा करना जरूरी था कि प्रतिमाएं गढ़ी जाएं। वजह यह कि हिंदू धर्म के सामने सबसे बड़ी चुनौती रही एकेश्वरवाद की। चाहे वह ईसाई धर्म हो या फिर इस्लाम, सब एक ईश्वर को मानते हैं। लेकिन भारत में इसके उलट बहुदेववादी परंपरा चलाई गई। ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि भारत में शासक वर्ग को केवल ईश्वर को ही स्थापित करने की चुनौती नहीं थी, बल्कि उन्हें मनु की चार वर्णों वाली सामाजिक व्यवस्था को भी पुख्ता करना था। ऐसे में एक ईश्वर की परिकल्पना, जिसकी बुनियाद में ही समता है, कैसे कारगर होती।
मेरे हिसाब से यही वजह रही होगी कि ब्राह्मणों ने मंदिरों को तरह-तरह के देवी-देवताओं से पाट दिया। लोग पहले इसे मनोरंजन के लिहाज से सोचते होंगे। वे सोचते होंगे कि एक औरत शेर की सवारी करती है और उसके पास कितने हथियार हैं। वे आश्चर्यचकित होंगे शिव का लिंग देखकर। उनके अंदर भयपूर्ण रोमांच होता होगा जब उनके सामने शंकर की प्रतिमा होती होगी, जिसमें उसके गले में सांप, माथे पर चंद्रमा और कपड़े के नाम पर मृगछाला दिखता होगा।
लेकिन ब्राह्मणवाद को स्थापित करने के लिए पर्व और त्यौहारों की अवधारणा प्रारंभ हुई होगी और मंदिरों को सांस्कृतिक केंद्र बनाने का ख्याल ब्राह्मणों को आया होगा। आज भी तमाम सारे मंदिर यही करते हैं। उनके पुजारी व प्रशासक मंदिर के गर्भगृह में स्थापित देवता के हिसाब से ऐसे आयोजन करते हैं। पहले भी ऐसा ही होता होगा और मकसद होता होगा कि लोग मंदिरों की तरफ आकर्षित रहें।
और बात रही आकर्षण की तो स्त्री देह के प्रति पुरुषों में आकर्षण को ब्राह्मणों ने बखूबी समझा होगा। इसी के साथ उन्होंने स्त्रियों को देवदासी बनाना शुरू किया होगा।
इतिहास के आधार पर बात करें तो नवीं शताब्दी आते-आते पूजा-अनुष्ठान की पद्धतियां ज्यादा जटिल और विशुद्ध हो गयीं। देवताओं की प्रतिमा को इत्र एवं सुगंधित जल से नहलाना, कीमती वस्त्र, महंगा वस्त्राभूषण एवं नैवेध समर्पित करना जरूरी समझा जाने लगा। रसरंजन और अंगरंजन का आयोजन देव प्रतिमाओं के लिए किया जाता था। इसका तो बाकायदा उल्लेख राष्ट्रकूट एवं चोल वंश के अभिलेखों में मिलता है। अंगरंजन और रसरंजन के आयोजन में नृत्यांगनाएं शामिल होती थीं। मससलन, सन् 1071 ई. में पिदारियार मंदिर में 24 नृत्यांगनाओं को देवता के सम्मान में नृत्य करने के लिए नियुक्त किया गया। इनके लिए एक नृत्य शिक्षक की नियुक्ति भी की गई थी। दरअसल, यह सब देवदासी प्रथा का प्रारंभ था।
देवदासियों का उल्लेख ह्वेनसांग ने अपने संस्मरण में किया है कि उसने मुलतान (वर्तमान में पाकिस्तान में) के एक सूर्य मंदिर में देवदासियाें का नृत्य देखा था। (पी. थॉमस, इंडियन वुमेन थ्रू दी एजेज, बांबे, 1964, पृष्ठ 237)
दक्षिण के राज्यों में बासवी व्यवस्था ने भी देवदासी प्रथा को मजबूत किया। बासवी व्यवस्था में यदि किसी पुत्रहीन व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी तो उसकी संपत्ति की उत्तराधिकारी उसकी वही पुत्री हो सकती थी, जिसे ‘बासवी’ कन्या के रूप में दान कर दिया गया हो। वह बासवी कन्या मृत पिता की अंत्येष्टि और अन्य सभी कर्मकांडों का पालन कर सकती थी, साथ ही उसे पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकारी की हैसियत से हक भी मिलता था। उसे इस बात की भी छूट थी कि मंदिर-सेवा के साथ-साथ अपनी जाति या ऊंची जाति के किसी व्यक्ति से विवाह कर सकती थी। उसका पुत्र संपत्ति का उत्तराधिकारी बनता था और पुत्र का जन्म होने पर उसका बासवी बनना अनिवार्य था। बासवी व्यवस्था में यदि कोई लड़की अविवाहित रह जाती थी तो उसका विवाह किसी वृक्ष से कर दिया जाता था और उसे मंदिर की सेवा में समर्पित कर दिया जाता था। उसे पुरुषवत् अधिकार प्राप्त होते थे। इस तरह ऐसे वे सभी परिवार जिनमें वंश चलाने के लिए पुत्र का अभाव होता था, उनमें वंश परंपरा का लोप नहीं होता था, क्योंकि पुत्रियों के मंदिर सेवा में समर्पित होने से वे पुत्रवत् सारे कर्म संपादित करने के साथ-साथ संपत्ति की अधिकारिणी होती थी।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि नवीं-दसवीं शताब्दी तक भारत के अलग-अलग भागों में देवदासी प्रथा गहरी जड़ें जमा चुकी थी।
(बी एन शर्मा, सोशल एंड कल्चरल हिस्ट्री ऑफ नार्दन इंडिया, पृष्ठ 75 में पाद टिप्पणी)
कुल मिलाकर यह कि देवदासी प्रथा के प्रचार-प्रसार के पीछे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक कारण रहे और यह भी कि स्त्री देह का धर्म के नाम पर सहज उपभोग करना ही इसके मूल में था। हालांकि कुछेक इतिहासकार इसका विश्लेषण दूसरे रूप में भी कहते हैं। मसलन, कश्मीर का राजकुमार एक बार पुंडरवर्धन नामक नगर में गया – जो गौड़ राजा के अधीन था (वर्तमान में पश्चिम बंगाल में) – वहां उसे कार्तिकेय मंदिर में नृत्य समारोह दिखाने ले जाया गया। नृत्योपरांत मंदिर की सुंदर-चतुर देवदासी नृत्यांगना जिसका नाम कमला था वह राजकुमार को संभोग के लिए उसका हाथ पकड़कर अपने शयनकक्ष में लेकर गयी। और राजकुमार ने प्रसन्न होकर मंदिर को खूब सारी भूमि संपदा दी।
यह कहा जा सकता है कि देवदासियों को प्रेम करने की आजादी रही होगी और अपनी मर्जी से पुरुष का चुनाव करती होंगीं। लेकिन वास्तविकता यही थी कि उनकी स्थिति वेश्याओं के जैसी थी।
अबूजैद ने अपने भारत-प्रवास के संस्मरणों में लिखा है-
‘‘वह (देवदासी) सार्वजनिक स्थलों पर घर किराए पर लेती है और दरवाजे पर एक परदा लटका देती है और अजनबियों के आने की प्रतीक्षा करती है. शरीर बेचने से जो धन प्राप्त होता है उसे मंदिर का पुजारी ले लेता है, जिससे मंदिर का खर्च चलता है।’’ (सोशियो इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ नार्दर्न इंडिया, कलकत्ता, 1960, पृष्ठ 371)
बहरहाल, देवदासी प्रथा अब भारत में व्यापक स्तर पर इस रूप में नहीं है। वजह यह कि भारत में प्रगतिशील संविधान है, जिसने धर्म के हस्तक्षेप को न्यूनतम कर दिया है। हालांकि इसका प्रभाव सियासत पर पड़ता है। लेकिन इसके खात्मे के लिए तो समाज को ही पहल करनी होगी। ठीक वैसे ही जैसे 1934 में कानून बनाए जाने के बाद समय के साथ देवदासी प्रथा सीमित होती रही है।
सचमुच अंग्रेजों ने भारत को भारत बनाया है। वे नहीं होते तो भारत आज किसी खास धर्म के शिकंजे में फंसकर कराह रहा होता। हमारा देश ऐसा नहीं है। इसके लिए हमें अंग्रेजों के प्रति कृतज्ञ तो होना ही चाहिए।
– नवल किशोर कुमार