प्रधानमंत्री मोदी जब देशव्यापी विरोध के सामने इस योजना के बचाव में यह दलील पेश करते हैं कि कुछ सुधार ऐसे होते हैं, जिनसे शुरू में कुछ तकलीफ होती है, पर आखिरकार फायदा होता है, तो वह वास्तव में इसी का एलान कर रहे होते हैं कि अब ‘‘सुधार’’ का मतलब ही है–आखिरी आदमी पर चोट। यह चोट जितनी भारी होगी, सुधार उतना ही ‘‘साहसपूर्ण’’ होगा!
नब्बे की दहाई की शुरूआत में जब नयी यानी नवउदारवादी आर्थिक नीतियां आयी थीं, उसके पहले कुछ वर्षों से इन नीतियों के पक्ष में वातावरण बनाया जा रहा था। इस वातावरण निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण था, ‘‘सुधार’’ या रिफार्म शब्द का अर्थ ही बदल दिया जाना। इससे पहले तक आम तौर पर सुधार की, भारत के स्वतंत्रता के आंदोलन से निकली परिभाषा ही सर्वमान्य थी। यह परिभाषा सरल थी, जिसे मोटे तौर पर तीन सूत्र परिभाषित करते थे। ‘‘कतार के अंतिम आदमी’’ की जिंदगी में सुधार का महात्मा गांधी वाला मूल मंत्र। साम्राज्यवाद से ज्यादा से ज्यादा स्वतंत्रता की राष्ट्रीय आंदोलन की मूल प्रेरणा। और एक आधुनिक यानी फ्रांसीसी क्रांति के स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारे के आवेगों से संचालित, समाज बनने का प्रयास। इन्हें ही स्वतंत्र भारत के संविधान में स्थापित किया गया था। लेकिन, नवउदारवाद के लिए रास्ता खोलने के लिए, ‘‘सुधार’’ की इस परिभाषा को ही बदल दिया गया। स्वतंत्रता तथा कतार के आखिरी आदमी की भलाई को बाहर धकियाते हुए, खुले बाजार के तकाजों को ‘‘सुधार’’ की इस परिभाषा के केंद्र में बैठा दिया गया।
हां! शुरूआत के दौर में ‘‘आखिरी आदमी’’ की चिंता को व्यावहारिक मानों में ‘‘सुधार’’ की परिभाषा से बाहर करते हुए भी, कम से कम औपचारिक रूप से यह मुद्रा बनाए रखी जा रही थी कि बाजार पर केंद्रित ये सुधार अंतत: ‘‘आखिरी आदमी’’ के हित में हैं। इसे चर्चित ट्रिकल डॉउन थ्योरी का नाम दिया गया था यानी कहा जा रहा था कि इन सुधारों से प्रकटत: कतार के सबसे आगे के लोगों की तिजोरियां भरती जरूर हैं, लेकिन धीरे-धीरे यह खुशहाली रिस-रिसकर कतार के आखिरी आदमी तक भी पहुंच जाएगी। इसलिए, यह भी आखिरी आदमी की चिंता करने का ही एक और रास्ता है, बल्कि यही आखिरी आदमी की चिंता का ज्यादा टिकाऊ तथा इसलिए बेहतरीन रास्ता है क्योंकि सीधे आखिरी आदमी की चिंता करने के लिए तो जरूरी संसाधन ही नहीं हैं और होंगे भी नहीं! ‘‘सुधार’’ की यह नयी परिभाषा चूंकि जनतांत्रिक व्यवस्था के रास्ते से आ रही थी, इसलिए आखिरी आदमी की चिंता का यह दिखावा बनाए रखना जरूरी था।
लेकिन, अब जबकि नवउदारवादी रास्ता एक अंधी गली में पहुंच चुका है और बढ़ते संकट के सामने, उसे मेहनतकश जनता की बढ़ती नाराजगी से बचाने के लिए, हमारे देश के शासकों ने बढ़ते सांप्रदायिक विभाजन तथा ध्रुवीकरण का ज्यादा से ज्यादा सहारा लेने का रास्ता अपना लिया है, आखिरी आदमी की चिंता का उस तरह का दिखावा न तो संभव रहा है और न जरूरी। इसीलिए, अब ‘‘साहसपूर्ण सुधार’’ के नाम पर ऐसे कदमों को आगे बढ़ाया जा रहा है, जो न सिर्फ खुल्लमखुल्ला कतार के सबसे आगे के लोगों के स्वार्थ साधते हैं, बल्कि आखिरी आदमी पर सीधे तीखा हमला भी करते हैं। नोटबंदी, जीएसटी और नये कृषि कानूनों व श्रम कानूनों के बाद, अब सेना में भर्ती की ‘‘अग्निपथ’’ योजना भी, मोदी सरकार के ऐसे ही ‘‘साहसपूर्ण सुधारों’’ की कतार में शामिल हो गयी है। प्रधानमंत्री मोदी जब देशव्यापी विरोध के सामने इस योजना के बचाव में यह दलील पेश करते हैं कि कुछ सुधार ऐसे होते हैं, जिनसे शुरू में कुछ तकलीफ होती है, पर आखिरकार फायदा होता है, तो वह वास्तव में इसी का एलान कर रहे होते हैं कि अब ‘‘सुधार’’ का मतलब ही है–आखिरी आदमी पर चोट। यह चोट जितनी भारी होगी, सुधार उतना ही ‘‘साहसपूर्ण’’ होगा! आखिरी आदमी पर वैसी चोट करने का साहस, आजादी के बाद पहली बार जो किया जा रहा होगा! जाहिर है कि कतार के आखिरी आदमी पर यह सीधी चोट, कतार में सबसे आगे के लोगों की तिजोरियां या गांधी जी के ही शब्द का सहारा लें तो ‘‘पेटियां’’ और ज्यादा भरने के लिए ही की जा रही है।
अचरज की बात नहीं है कि भारतीय सेना में और उसमें भी खासतौर पर सिपाहियों की भर्ती में ‘‘साहसिक सुधार’’ की ‘‘अग्निपथ’’ योजना, देश के लिए सचमुच अग्निपथ पर चलने का मामला बन गयी है और जैसाकि हम जरा आगे चलकर देखेंगे, खासतौर पर सेना के लिए तथा आम तौर पर पूरे समाज के लिए ही, अग्निपथ पर चलने का मामला साबित होने जा रही है। इस योजना से खासतौर पर उत्तरी भारत के ग्रामीण इलाकों में युवाओं पर कैसी चोट हुई है, उसके सबूत 14 जून को इस योजना की घोषणा आने के बाद से, विशाल संख्या में युवाओं के सडक़ों पर उतर पडऩे में देखे जा सकते हैं। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री, इसे शुरूआत में तकलीफ का मामला कहकर, युवाओं की इस तकलीफ की सचाई को कम से कम स्वीकार तो करते हैं, जबकि उन्हीं की पार्टी के छुटभैया नेतागण तो ऐतिहासिक किसान आंदोलन की ही तरह, युवाओं के इस सारे विरोध को भी ‘‘विपक्षी टूलकिट’’ से लेकर ‘‘जेहादी मानसिकता’’ तक बताने में ही लगे रहे हैं। बहरहाल, प्रधानमंत्री के अंत में फायदे पर जोर देने से साफ है कि कृषि कानूनों की ही तरह, इस कथित ‘‘साहसिक सुधार’’ को भी थोपने के लिए, उनकी सरकार पूरी ताकत लगाने जा रही है।
आखिरी आदमी को भयानक तकलीफ पहुंचाने वाले ऐसे ‘‘साहसिक सुधारों’’ की प्रधानमंत्री मोदी की शैली भी समान रूप से साहसिक है। सब से बढक़र यह साहसिकता है, बिना सोचे-विचारे फैसला लेने की। चार घंटे के नोटिस पर नोटबंदी की गयी और चार घंटे के नोटिस पर ही देश भर में लॉकडाउन लगाया गया। इन फैसलों के पीछे सोच-विचार के अभाव का कैसा जबर्दस्त ‘साहस’ था, इसका पता इन फैसलों के लागू होने के अगले ही दिन से आने शुरू हो गए निर्देशों में एक के बाद एक, अंतहीन बदलावों से चल जाता है। कृषि कानून तो आखिरकार, सरकार को वापस ही लेने पड़ गए। कथित रूप से विभिन्न स्तरों पर ‘वर्षों के सोच-विचार के बाद’ लायी गयी ‘‘अग्निपथ’’ योजना की घोषणा के अगले ही दिन, विरोध को कम करने की कोशिश में पहले बदलाव का एलान आ गया –केवल पहले वर्ष की भर्ती के लिए अधिकतम आयु 21 से बढ़ाकर 23 वर्ष की जाएगी, ताकि दो साल से भर्तियां रुकी रहने से वंचित होने वाले अभ्यार्थियों को मौका मिल सके!
और इसके भी अगले दिन से इसकी घोषणाओं का सिलसिला शुरू हो गया कि चार साल के टूर ऑफ ड्यूटी के बाद पेंशन, ग्रेच्युटी आदि के किसी भी अधिकार के बिना, दस लाख रुपए से कुछ ज्यादा की एकमुश्त रकम देकर, जिसमें से आधी उनकी तनख्वाह में से ही काटी गयी होगी, घर भेज दिए गए कथित अग्निवीरों को, भरी जवानी में बेरोजगार हो जाने की चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उन्हें केंद्रीय अर्धसैनिक बलों, रक्षा उत्पादन उद्योग आदि-आदि में दस फीसद आरक्षण दिया जाएगा। ऊपर से इशारा पाते ही भाजपा-शासित राज्यों की सरकारों ने भी अग्निवीरों को नौकरी देने के लंबे-चौड़े वादे करने शुरू कर दिए।
पर जब यह सच सामने आया कि आरक्षण के प्रावधान के बावजूद, पूर्व-सैनिकों को काम देने के मामले में खुद सरकार नियंत्रित संस्थाओं का अब तक का रिकार्ड वास्तव में दयनीय ही रहा है, तो सेना से घर वापसी के बाद अग्निवीरों को काम देने के आश्वासन देने की कमान, सरकार के इशारे पर कारपोरेट क्षेत्र ने संभाल ली। यह दूसरी बात है कि केंद्रीय मंत्री किरण रेड्डी से लेकर, भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय तक के बयानों से साफ हो गया कि ये आश्वासन सीक्यूरिटी गार्ड से लेकर, ड्राइवर आदि जैसे कामों का ही है। इतना ही महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि मान लीजिए कि सारे के सारे अग्निवीर, चार साल बाद भी काम हासिल कर लेते हैं और उपयुक्त काम हासिल कर भी लेते हैं, तब भी उनके लिए कोई अतिरिक्त काम तो पैदा नहीं ही होने जा रहा है। उन्हें तो वही रोजगार मिलेगा, जो किसी और को मिल रहा होता। यानी सेना की स्थायी नौकरी की जगह, चार साल की ठेके की नौकरी से होने वाला रोजगार तथा आय का नुकसान तो, अपनी जगह ही रहेगा। हां, यह नुकसान अब अग्निवीर की जगह, बाकी नौजवानों की बेरोजगारी बढऩे के रूप में सामने आएगा। लेकिन, यह तो तब है, जब सेवानिवृत्त ‘अग्निवीरों’ को वाकई उपयुक्त नौकरी मिल जाए, जिसके आसार नहीं के बराबर हैं।
फिर भी, इस कथित सुधार की चोट सिर्फ ग्रामीण गरीबों के लिए रोजगार के अवसरों तक ही सीमित नहीं है। यह चोट उतनी ही देश की सेना पर भी है। यह संयोग ही नहीं है कि हर स्तर पर पूर्व सैन्य अधिकारियों समेत सेना के जानकारों तथा रणनीति विशेषज्ञों का बड़ा हिस्सा, इस अल्पावधि ठेका भर्ती योजना के खतरों से चेता रहा है। यह दूसरी बात है कि मोदी सरकार ने, जैसाकि उसका कायदा ही है, अपने इकतरफा फैसलों की आलोचनाओं से किसी तरह का संवाद करना तो दूर रहा, इन फैसलों को थोपने के हिस्से के तौर पर, तमाम आलोचनाओं को दबाने के लिए अपनी वैध-अवैध सारी ताकत झोंक दी है। असहमति की आवाजों को दबाने के ऐसी खेल के एक आंखें खोलने वाले उदाहरण में, सियाचिन के हीरो माने जाने वाले, परमवीर चक्र विजेता कैप्टन बाना सिंह को, मौजूदा शासन के दबाव में सोशल मीडिया पर अपनी उस टिप्पणी को हटाना पड़ा है, जिसमें उन्होंने अग्निपथ योजना की आलोचना करते हुए उसे ‘सेना को बर्बाद करने’ तथा पाकिस्तान व चीन की मदद करने वाली योजना बताया था और उसे जिस तरह से सब पर थोपा गया है, उसे ‘तानाशाही’ कहा था।
अग्निपथ योजना के आलोचकों की आशंकाएं, इन ठेका भर्ती सिपाहियों के मोटीवेशन के स्तर से लेकर, इस तरह की भर्ती से सेना में दो वर्ग बन जाने तथा उसका यूनिटों की अंदरूनी एकता पर बुरा असर पडऩे तक जाती हैं। इस अर्ध-प्रशिक्षित वर्ग की मौजूदगी का सेना के मनोबल पर बुरा असर ही पड़ सकता है। यह इस कथित सुधार के पीछे की विचारहीनता को ही दिखाता है कि एक ओर इसके पीछे उद्देश्य यह बताया जा रहा है कि इससे हमारी सेना युवतर बनेगी, तो दूसरी ओर इसका उद्देश्य यह बताया जा रहा है कि इस तरह वेतनों, पेंशन आदि का खर्चा घटने से, सेना के आधुनिकीकरण के लिए ज्यादा पैसा बचेगा। लेकिन, क्या सेना का आधुनिकीकरण आधुनिक साज-सामान के अलावा, उसके संचालन के लिए बेहतर तरीके से प्रशिक्षित जवानों की भी मांग नहीं करेगा, जो जरूरत सिर्फ चार साल के ठेके पर लाए गए, अर्ध-प्रशिक्षित, रोजगार असुरक्षा के शिकार व सामाजिक रूप से असुरक्षित, किंतु उम्र में कहीं युवा, सिपाहियों से पूरी होनी मुश्किल है।
तब सुधार के नाम पर यह सत्यानाश किसलिए? इसके कारण दो हैं, जो आपस में जुड़े हुए हैं। बड़े कार्पोरेट खिलाड़ी, मोदी सरकार की इस योजना का इतने जोश से समर्थन अकारण नहीं कर रहे हैं। मोदी सरकार ने बढ़ते पैमाने पर रक्षा उद्यमों में निजी खिलाडिय़ों की पैठ करायी है और वे सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर खरीदी और ज्यादा करने के जरिए, इस क्षेत्र में अपने पांव पसारने की तथा अग्निवीरों के कम से कम एक हिस्से में सरकारी खर्चे पर अपने लिए प्रशिक्षित मजदूरों की संभावनाएं देख रहे हैं। जाहिर है कि यह बाजारवादी ‘‘सुधार’’ की उस आम धारणा का सेना व राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में विस्तार है, जो कामगारों की संख्या कम से कम करने और उनके लिए मजदूरी का प्रत्यक्ष तथा पेंशन व सामाजिक सुरक्षा आदि के रूप में अप्रत्यक्ष भुगतान कम से कम करने के जरिए, राजस्व खर्च का हिस्सा कम से कम करने और साज-सामान के पूंजी खर्च का हिस्सा उसी अनुपात में बढ़ाने को कुशल आर्थिक प्रबंधन का दैवीय सत्य मानता है। यह बड़ी पूंजी के लिए मुनाफे बटोरने का मैदान और बढ़ाता जो है।
दूसरी ओर, मोदी जी का संघ परिवार, भरी जवानी में कमाऊ रोजगार गंवाकर घर आ बैठे किंतु हथियारों का प्रशिक्षण-प्राप्त नौजवानों में, अपनी सांप्रदायिक प्रहार शक्ति में गुणात्मक बढ़ोतरी देख रहा है। आखिरकार, कतार के आखिरी आदमी पर सीधी चोट करने का ‘‘साहस’’ करने वालों को सत्ता पर काबिज बने रहने के लिए, दिन पर दिन बढ़ते पैमाने पर ही इस सांप्रदायिक प्रहार शक्ति की जरूरत होती है। बेशक, यहां पहुंचकर यह कथित सुधार, पूरी तरह से सत्यानाश का रूप ले लेता है।
-राजेन्द्र शर्मा