शुक्रवार, नवम्बर 22, 2024

कोरबा: जिले में उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण के दशकों बाद भी भूमिपुत्र नौकरी और मुआवजे के लिए क्यों भटक रहे? कौन है इसका जिम्मेदार?

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एसईसीएल के भू-विस्थापित नौकरी और मुआवजा के लिए दशकों से देख रहे राह

एनटीपीसी प्रबंधन ने ग्राम चारपारा के निवासियों के करीब 1600 एकड़ जमीनों पर किया कब्ज़ा; आंदोलन में उतरे ग्रामीण

कोरबा (आदिनिवासी)। सार्वजनिक क्षेत्र के वृहद उपक्रम कोल् इंडिया की अनुसांगिक कंपनी एसईसीएल बिलासपुर के अधीन कोरबा-पश्चिम क्षेत्र में स्थापित एसईसीएल, गेवरा परियोजना को नौकरी की उम्मीद में अपनी पुरखों की बेशकीमती जमीन देने वाले 310 प्रभावित पात्र, भू-विस्थापित परिवार, भू-अर्जन के दशकों बाद भी रोजगार के लिए भटक रहे हैं। इन भू-विस्थापित माटीपुत्रों ने खुला आरोप लगाते हुए कहा है कि एसईसीएल बिलासपुर प्रबंधन की बेरुखी से 7 गांवों के ग्रामीण संघर्ष कर रहे हैं।
भू-विस्थापित माटीपुत्रो ने आगे कहा है की 852 भू-विस्थापित परिवारों को मुआवजा नहीं मिला है। एसईसीएल के ढुलमुल रवैया एवं घोर लापरवाही की वजह से संघर्षरत प्रभावित परिवारों की नौकरी की आशा अब निराशा में बदल रही है। जबकि दूसरी ओर आगामी दो माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में एक बार फिर भू-विस्थापितों की इस पीड़ा को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाकर राजनीतिक रोटी सेंकने विभिन्न दलों के प्रत्याशी प्रभावित परिवारों के दर पर दस्तक देते दिखेंगे।
सूचना के अधिकार के तहत एसईसीएल, गेवरा परियोजना से लंबित रोजगार एवं मुआवजा को मिले दस्तावेज प्रबंधन की नाकामी साबित करने के लिए काफी है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार एसईसीएल गेवरा परियोजना क्षेत्रान्तर्गत कोयला उत्खनन हेतु ग्राम पोंडी, अमगांव, बाहनपाठ, भठोरा, रलिया, भिलाईबाजार एवं नरईबोध की भूमि का अर्जन के एवज में रोजगार के लिए जिला पुनर्वास समिति की अनुशंसा से लागू कोल इंडिया पुनर्वास नीति के प्रावधानों के तहत ग्रामों की सकल निजी भूमि के प्रति 2 एकड़ के हिसाब से कुल सृजित रोजगार को कलेक्टर कोरबा द्वारा अनुमोदित/संशोधित अर्जित भूमि के खातों की घटते क्रम की सूची के कट ऑफ प्वॉईंट तक रोजगार दिए जाने का प्रावधान रखा गया है। एसईसीएल गेवरा द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार परियोजना से प्रभावित इन 7 गांवों में कुल 1079 भू-विस्थापित रोजगार के लिए पात्र पाए गए थे। प्रबंधन ने इनमें से 769 को नौकरी तो दे दी लेकिन 310 भू-विस्थापित अभी भी नौकरी की आश में संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि इनमें से 103 प्रकरण प्रकियाधीन बताये गए हैं। वहीं बात करें मुआवजा की तो 5478 प्रभावित खातेदार मुआवजा के लिए पात्र पाया जाना बताया गया हैं। इनमें से 4416 खातेदारों को मुआवजा दे देना भी बताया जा रहा हैं। लेकिन जानकारी के अनुसार 852 खातेदार आज भी मुआवजा की राह तक रहे हैं।
प्रभावितों ने लंबित नौकरी, मुआवजा की आश में एसईसीएल प्रबंधन के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी लड़ना बताया हैं। उनके कहे अनुसार उन्होंने दफ्तर, मुख्यालयों की दौड़ भी लगाई। इस बीच तमाम जनआंदोलन के बीच प्रशासन की मध्यस्थता में प्रभावितों को शीघ्र लंबित नौकरी, मुआवजा दिए जाने का आश्वासन मात्र मिला। लेकिन तमाम आश्वासन के बाद भी नतीजे सिफर रहे। भू-विस्थापित आज भी ठगा सा महसूस कर रहे हैं। कई पात्र परिवार आज भी संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

एसईसीएल कुसमुंडा, दीपका परियोजना में भी सैकड़ों प्रकरण लंबित प्रबंधन पर जानकारी छुपाने का आरोप
        भू-विस्थापितों ने प्रबंधन पर आरोप लगाते हुए कहा की लंबित नौकरी, मुआवजा की कहानी सिर्फ एसईसीएल गेवरा परियोजना की नहीं है, एसईसीएल दीपका एवं कुसमुंडा परियोजना में भी सैकड़ों प्रकरण दशकों से लंबित हैं, जिनकी जानकारी दोनों परियोजना में छुपाई जा रही हैं। इन दोनों परियोजनाओं में फर्जी नौकरी की भी शिकायतें समय-समय पर आती रहती हैं। जिसकी भी जानकारी प्रबंधन छुपा रही है। जिससे दोनों परियोजनाओं की कार्यशैली पर भी सवाल उठ रहे हैं। निश्चित तौर पर अगर बारीकी से तीनों परियोजनाओं से लंबित प्रकरणों की जांच हो तो हजारों भू-विस्थापित सामने आएंगे जो अपने हक से वंचित हैं।

वोट बैंक की राजनीति का बनते बिगड़ते समीकरणों का बनते जा रहे हिस्सा
भू-विस्थापितो ने बताया की एसईसीएल के प्रभावित भू-विस्थापित राजनीति के बनते बिगड़ते समीकरणों का हिस्सा बनते जा रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने प्रत्याशियों को जिताने भू-विस्थापितों की इस प्रमुख समस्या (मुद्दे) को चुनावी ट्रंप कार्ड के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। इनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। नौकरी, मुआवजा मिलने की आश में हर आम चुनावों में हजारों भू-विस्थापित परिवारों ने इन पर विश्वास जताया हैं, लेकिन जीत मिलते ही जनप्रतिनिधियों की भू-विस्थापितों के इस दर्द को भूलने की फितरत बरकरार रही। नतीजन आज भी पात्र भूविस्थापितों अपने हक से वंचित हैं।

और, हद तो तब हो जाती है जब, एक पार्टी का प्रत्याशी उसी ग्राम-चारपारा का मूल निवासी होता है, जहां से करीब 1600 एकड़ जमीन एनटीपीसी प्रबंधन ने अधिग्रहण किया है और उसके एवज में विगत 40-45 सालों से नौकरी और मुआवजा के लिए वहां के बाशिंदे दर-दर भटक रहे होते हैं। लगातार संघर्ष कर रहे होते हैं। अभी भी उन्हें कोरबा के तानसेन चौक पर कई महीनो से अनिश्चितकालीन आंदोलन चलाकर शासन-प्रशासन और प्रदेश के जागरूक जनता से न्याय के लिए समर्थन की गुहार लगाते हुए देखा जा सकता है। निराशा और हताशा में डूबकर आत्महत्या के प्रयास करने पर प्रशासन उन पर अपराध दर्ज कर के तत्काल कार्यवाही करता है। लेकिन, उनकी ज्वलंत और जायज समस्याओं के समाधान के लिए जिला प्रशासन कोई कार्यवाही नहीं करना चाहता। या कार्रवाई नहीं कर सकता। शायद। (जैसा कि भूविस्थापित बताते हैं। अब प्रशासन की महिमा तो प्रशासन ही जाने।)

उनकी समस्याओं पर तो भूविस्थापित ग्राम चारपारा के घोषित छत्तीसगढ़िया पार्टी प्रत्याशी (तथा गरीबों के मसीहा के रूप में प्रचारित भी) से ले कर जिले के मंत्री, सांसद व बड़े-बड़े दबंग जनप्रतिनिधि भी चुप्पी साध लेते हैं। आखिरकार इस औद्योगिक जिले के एनटीपीसी, एसईसीएल, कोल वाशरी, वेदांता-बालको जैसे नामी-गिरामी सरकारी और निजी उद्योगों से जिले के इन संचालक ताकतों को आखिरकार इतनी मोहब्बत या इतना दहशत क्यों है? क्या मालूम?

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