आज से लगभग 568 वर्ष पूर्व सद्गुरु कबीर साहब का जन्म/प्राकट्य बताया जाता है। उनकी जीवन काल के दौर के भारतीय समाज मे धर्म और आडम्बर आधारित मतभेद के कारण कबीर एक क्रांतिकारी विचारधारा प्रवर्तक बनकर सामने आये। भारतीय साहित्य के भक्तिकालीन कवियों में कबीर को निर्गुण ज्ञानमार्गी कवि के रूप में पहचाना जाता है। अलग अलग भाषा -बोली के समिश्रण होने के कारण उनकी दोहे और रचना इस बात की ओर इशारा करती है कि उन्होंने अपने जीवन मे भ्रमण और यात्राओं के जरिये समाज का अध्ययन किया और इसी कारण सधुक्कड़ी पुट मिलता है।
अपनी वैज्ञानिक समझ के कारण उन्होंने धर्म सम्प्रदाय, जाति, छुआछूत, रूढ़िवाद, आडम्बर के खिलाफ मुखर होकर अपनी रचनाओं के माध्यम से आमजन तक सन्देश पहुंचाया है। मूर्ति पूजा के विरुद्ध लिखा। राज सत्ता के उस दौर में राजाओ और शासकों से निर्भय होकर उन्होंने सबको कटघरे में खड़ा कर दिया। कबीर के वाणियों से आज परिवेश में धर्म, सत्ता, व्यवसाय के गठजोड़ को समझने की जरूरत है और प्रासंगिक भी है।
कबीर साहब की समस्त रचनाएं कविता शैली में है इससे यह बात भी स्पष्ट है कि वह अपनी विचारों को गेय के रूप में प्रस्तुत करते रहे होंगे और घुमघुमकर लोंगो को जागरूक कर तत्कालीन हिन्दू-मुस्लिम द्वंद को ख़त्म करने का आव्हान करते होंगे।
जाहिर सी बात है शासक वर्ग अपने वर्चस्व के लिए धर्म का सहारा लेते हैं और भारतीय द्वीप में इस्लाम समर्थक शासको के आगमन के बाद यहाँ के शासक वर्ग के बीच अपनी अपनी साम्राज्य विस्तार अथवा अपनी वर्चस्व को बनाएं रखने की जरूरत को धर्म का सहारा मिला हो। धर्म के विस्तार के लिए धर्मांतरण का मुद्दा और इसके खिलाफ मौजूदा धर्मावलंबियों के मध्य होने वाली वर्तमान की घटनायें इस बात को स्पष्ट करती है। हमारे देश मे सत्ता प्राप्ति के लिए धर्म का किस तरह से उपयोग किया गया है इसे हम सभी वाकिफ हैं। चूंकि धर्म से व्यवसाय (व्यापार ) भी पोषित होता है और व्यवसायी से धर्म को लाभ मिलता है इसलिए ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं किंतु आध्यत्म जिसमे केवल धर्म नही है बल्कि जीवन शैली ,शारिरिक मानसिक स्वास्थ्यगत विषय समाहित है इसे अलग करके देखने की जरूरत है।
कबीर साहब मानवता के समर्थक है, आध्यत्मिक स्वरूप में अपनी विचार की प्रस्तुति करते हैं और जाति ,धर्म ,पाखण्ड , छुआछूत मूर्ति पूजा आदि के विरुद्ध रहकर समाज को दिशा देते हैं उनकी इस विचारधारा को ब्राम्हणवादी रस मिलाकर उनके ही अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में खड़ा कर देते हैं । जो यतार्थ जो कि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है दूर कर दिया जाता है । यह भी सही है संगीत लय सुर के साथ कही जाने वाली ज्ञान की बातें मनुष्य को प्रभावित करती है और आसानी से उसे अपने विचार के साथ जोड़ा जा सकता है।
इसकी जरूरत है। किंतु यथार्थ कबीर के स्थान पर पाखंड के कबीर के साथ रहते हुए देखा देखी कबीर को मानने वाले पूजने लगते हैं और पुनः मूर्तिपूजा , धर्म , पाखण्ड ,आडम्बर के दलदल में जा समाते हैं । यह और ज्यादा गंभीर तब हो जाता है कि एक कबीर पंथी के घर के पढ़े लिखे लोग भी उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं जिस रास्ते को छोड़कर उनके पुरखे कबीर के पथ पर आए थे।
(ये मेरे निजी विचार हैं, यदि किसी को बुरा लगे अथवा कोई आहत हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ )
-सपूरन कुलदीप