वैसे तो भाजपा राज में साम्प्रदायिकता की नफरती मुहिम की रफ़्तार कभी धीमी नही हुई, मगर इस बीच इसमें अचानक कुछ ज्यादा ही तेजी आई है। उत्तरप्रदेश सहित पांच प्रदेशो के विधानसभा चुनावो में जीतने के बाद तो जैसे आरएसएस और भाजपा ने अपने सारे भेड़िये खोल दिए हैं — दिखावटी लाज-शर्म ताक पर रखकर पूरे देश में एक साथ उग्र तेवरों के साथ हमलावराना रुख दिखाना शुरू कर दिया है।
इसकी शुरुआत राम नवमी के मौके पर निकाले गए प्रदर्शनों के दौरान मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, झारखंड आदि सहित भारत के अनेक राज्यों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आईं। सभी जगह अपनाया गया तरीका – मोडस ऑपरेंडी – एक ही तरह का था : रामनवमी के नाम पर हथियारबंद आक्रामक जुलूस निकालना, अल्पसंख्यकों की बसावट के इलाकों से इसे गुजारते हुए पुलिस की मौजूदगी में अत्यंत घिनौने नारे लगाना, मस्जिद पर भगवा झंडा फहराने सहित उकसावे और प्रतिक्रिया के लिए हर संभव-असंभव तरीका अपनाना। इसके लिए अपने एक्सपर्ट उकसावेबाजों को देश भर के संवेदनशील इलाकों में भेजकर खुले आम हमलों का आव्हान करना। मप्र के खरगौन में कपिल मिश्रा ने ऐसा ही उन्मादी भाषण दिया, जैसा उसने दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा से पहले दिया था।
देश भर में एक ही दिन, एक साथ, अनेक जगहों पर एक जैसी हरकतों से साफ़ है कि यह सब स्थानीय या स्वतःस्फूर्त नहीं था ; शीर्ष पर बनाई गयी योजना के साथ किया जा रहा था। इस पूरे अपराध में तकरीबन हर जगह प्रशासन इन उन्मादियों के साथ रहा। ऐसे जुलूसों को, बिना समुचित बंदोबस्त के अल्पसंख्यकों के इलाकों से निकलने की इजाजत दी गयी। बिना किसी जांच या किसी वैध कानूनी प्रक्रिया के बिना ही, “बलवाई’ होने” के कथित आरोपियों की संपत्तियों को ढहा दिया गया है। यह सिर्फ मकानों या दुकानों को ढहाया जाना नहीं है — यह संविधान और क़ानून के राज पर चलाया गया बुलडोजर है।
बाद में इन्हें कथित अतिक्रमण बताये जाने का बहाना कितना झूठा था, यह मध्यप्रदेश के खरगौन में ध्वस्त किये गए 60 वर्षीय श्रीमती हसीना फाखरू के प्रधानमंत्री आवास योजना में बनाये गए मकान के मलबे ने बता दिया। इस घर के बनने पर स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें बधाई की चिट्ठी लिखी थी। इसी दिन दिल्ली की जेएनयू के कावेरी हॉस्टल में भी ठीक इसी तरह का प्रायोजित हमला पहले मैस के कर्मचारियों और फिर वहां खाना खा रहे विद्यार्थियों पर भी किया गया। देश के सात राज्यों में एक ही दिन, एक साथ हुयी इस एक तरह की हिंसा पर प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी से साफ़ है कि इसे करवाने वाले कौन लोग हैं।
अपनी हिंसक साम्प्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए आरएसएस और उसका गिरोह — जिसे वह परिवार कहता है — धार्मिक तीज-त्यौहारों का इस्तेमाल हमेशा करता रहा है। मगर इस बार की घटनाओं की तीव्रता, आयाम और व्यापकता का भौगोलिक विस्तार उसके अब तक के किये के हिसाब से भी कुछ ज्यादा ही है।
आखिर अचानक इतनी हड़बड़ी क्यों हैं?
इस भड़भड़ाहट की पहली वजह तो जनता की मुश्किलों और तकलीफों का लगातार ज्वार की तरह बढ़ना और उनका लोगों की बर्दाश्त से बाहर होते जाना है। महँगाई, बेरोजगारी हर रोज हर नागरिक के भोजन की थाली को छोटा कर रही है। बाजार के सिकुड़ने से छोटे-मंझोले दुकानदारों की तबाही आम हो गयी है। सब कुछ मिटाकर कारपोरेट के हिसाब से नए तरह से ढालने वाली नीतियों ने गैर-कार्पोरेटी उद्योग धंधों के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा कर दिया है। इससे उपजे आक्रोश को भोंथरा कर सीसीना की चीखों को अनसुना करना है। इसलिए नफरती रेडियो की आवाज को तेज से तेजतर किया जा रहा है।
मगर इरादा सिर्फ इतना भर नहीं है!
इतना सब करने के बाद भी चुनाव तो जीतने ही हैं और वो तभी जीते जा सकते हैं, जब लोगों में एक नकली दुश्मन का डर पैदा किया जाए, उससे “बचने” के लिए बहुसंख्यक आबादी में समग्र हिन्दू एकता का भाव पैदा किया जाए और खुद को उन “दुश्मनों” से बचाने वाला एकमात्र यौद्धा बताया जाए। उत्तरप्रदेश में 80 बनाम 20 के नाम पर इसे आजमाया जा चुका है। अब असफलताओं के हिमालयीन रिकॉर्ड से ध्यान बंटाने के लिए अगली साल 2023 में होने वाले कुछ प्रदेशों और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए अभी से इसी तरह का झूठा और आपराधिक नैरेटिव गढ़ने की शुरुआत कर दी गयी है।
यह बात अलग है कि इसमें जिन दलितों और अति पिछड़ों के कंधे पर त्रिशूल और फरसे लादे जा रहे हैं, वे बाद में उन्ही के सरों को कलम करने के काम आने वाले हैं। संघ ने जिस बात को कभी नहीं छुपाया वह यह है कि मुसलमान और ईसाई तो उसके लिए सिर्फ फौरी लामबंदी का मोहरा हैं, उसका अंतिम मकसद इस देश में स्वतन्त्रता आंदोलन के लम्बे विमर्श के नतीजे में आये संविधान को हटाकर उसकी जगह मनुस्मृति को प्राण प्रतिष्ठित करना है।
रामनवमी के दिन से देश भर में जो हो रहा है, उसे समझने के लिए आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक, और उनके एकमात्र “विचारक” माधव सदाशिव गोलवलकर की लिखी “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” नाम की किताब में झांकना जरूरी है। 1936 में प्रकाशित इस किताब में उन्होंने लिखा है कि “नस्ल और संस्कृति को शुद्ध बनाए रखने के लिए (हिटलर की) जर्मनी ने यहूदियों का सफाया कर दुनिया को चौंका दिया।” और यह भी कि “नस्लीय गौरव सर्वोत्तम रूप में वहां प्रकट हुआ। (हिटलर की ) जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि भिन्न-भिन्न जड़ों वाली नस्लों और संस्कृतियों का एक हो जाना असंभव है। यह हिंदुस्तान के लिए एक अच्छा सबक है।”
इसके बाद वे इससे और आगे जाते हैं और कहते हैं कि : “हिंदुस्तान में रहने वालों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना, हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदरपूर्ण स्थान देना सीखना होगा, हिंदू जाति और संस्कृति यानी हिंदू राष्ट्र का और हिंदू जाति की महिमा के अलावा और किसी विचार को नहीं मानना होगा और अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू जाति में विलय हो जाना होगा या उन्हें हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर, किसी भी अधिकार का दावा किए बिना, बिना विशेषाधिकार के, यहां तक कि नागरिक के रूप में अधिकारों से वंचित होकर देश में रहना होगा।”
पिछली कुछ वर्षों में भले ही आरएसएस आधे-अधूरे मन से कई अगर, मगर, किन्तु, परन्तु करके इस किताब से पल्ला झाड़ने का एलान कर चुका है, मगर इसे अमल में लाना उसने कभी नहीं छोड़ा। इसीलिए रामनवमी के दिन से यह जो हो रहा है, वह सिर्फ अल्पसंख्यकों पर हमला नहीं है। यह उससे कहीं आगे की, ज्यादा जघन्य और सांघातिक बात है। यह भारत के संविधान, लोकतंत्र, समावेशी धर्मनिरपेक्षता का ही विलोम नहीं है, यह भारतीय सभ्यता के 5 हजार वर्षों के सभी सकारात्मक हासिलों का निषेध भी है। यह “इंडिया दैट इज भारत” की अवधारणा का नकार है। ठीक इसीलिए यह सभी भारतीय देशभक्तों की चिंता का मसला है।
यह उनके लिए जीवन मरण की चुनौती है, जिससे निबटने के लिए उन्हें हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों के भीषण हमले के शिकार हो रहे भारतीय गणतंत्र के धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक चरित्र की हिफाजत करने के लिए, भारतीय संविधान की रक्षा करने के लिए, संविधान में दिए गए अनुल्लंघनीय हक़-अधिकारों का बचाव करने के लिए और जनविरोधी नीतियों के हमले के खिलाफ एकजुट होना होगा और मुकाबला करना होगा।
संतोष की बात है कि देश की 13 राजनीतिक पार्टियों ने इस संकट की संक्रामक सांघातिकता को समझा है और साझी अपील जारी की है — इसमें बाकी दलों और संगठनो को भी जुड़ना चाहिए। यह साझापन अपील से आगे मैदानी सक्रियता तक जाना चाहिए।
बिना कोई देर या हीलाहवाला किये उन्हें भारत उसके संविधान और लोकतंत्र पर झपट रही भेड़ियों की इस फ़ौज से लड़ना होगा। सबके लिए समान भारत तथा समानता की धारणा की संविधान सम्मत समझ की तरफ लपक रही लपटों को बुझाने के लिए राजनीतिक मोर्चे पर लड़ना होगा। ठीक वैसे ही, जैसे गाँव की आग बुझाते हैं। पीने का पानी, कुएं, हैंडपंप का पानी, पोखर, तालाब का पानी और जहां जैसा हो, वैसा उजला पानी-कम उजला पानी — जुटाना होगा। यह भी समझना होगा कि इस मानवता और भारत दोनों के विरोधी हिंदुत्व के पालनहार कारपोरेट हैं। उनके साथ लड़ते हुए साथ-साथ मनु को देश निकाला देने के लिए भी विशेष जिद के साथ लड़ना होगा। यह लड़ाई बाद में फुर्सत से, अलग से नहीं लड़ी जाएगी। एक साथ लड़ी जायेगी।
रास्ता यही है, क्योंकि यह सब की बात है, दो-चार-दस की बात नही। आलेख : बादल सरोज
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)