गुरूवार, अक्टूबर 30, 2025

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: कार्यस्थल तक की यात्रा भी अब मानी जाएगी रोजगार का हिस्सा

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न्याय की नई परिभाषा

भारतीय न्यायपालिका ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि कानून का अर्थ केवल शब्दों की सीमाओं में नहीं, बल्कि न्याय के उद्देश्य में निहित होता है। सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय – जिसमें यह कहा गया कि किसी कर्मचारी की कार्यस्थल तक आने-जाने के दौरान हुई घातक दुर्घटना भी “रोजगार के दौरान” मानी जा सकती है – भारतीय श्रम कानूनों के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम है। यह फैसला न केवल विधिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक न्याय के विस्तार का भी सशक्त उदाहरण है।

मृत चौकीदार और न्याय की खोज

मामला उस रात्रिकालीन चौकीदार से जुड़ा है, जो आधी रात अपने कार्यस्थल की ओर जा रहा था। रास्ते में, कार्यस्थल से लगभग पाँच किलोमीटर दूर, एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई। मृतक के परिवार ने कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम, 1923 (Employee Compensation Act) के तहत मुआवज़े का दावा किया।

कर्मचारी मुआवज़ा आयुक्त ने परिवार के पक्ष में निर्णय दिया, यह मानते हुए कि दुर्घटना उसके रोजगार से जुड़ी थी। लेकिन हाईकोर्ट ने इस आदेश को पलट दिया, यह कहते हुए कि दुर्घटना “रोजगार के कारण या दौरान” नहीं हुई। मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट पहुँचा – और वहीं से न्याय की नई परिभाषा सामने आई।

विवाद का केंद्र : “रोजगार के कारण और उसके दौरान”

कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम की धारा 3 में यह वाक्यांश प्रयुक्त है – “यदि कोई कर्मचारी ऐसी दुर्घटना से घायल होता है, जो उसके नियोजन के दौरान और उसके कारण उत्पन्न हुई हो, तो नियोक्ता उसे मुआवज़ा देने का पात्र होगा।”

यही वाक्यांश कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 (ESI Act) की धारा 51E में भी है। प्रश्न यह उठा कि क्या दोनों अधिनियमों में इस वाक्यांश की व्याख्या समान रूप से की जा सकती है?

सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या : शब्दों से परे उद्देश्य

जस्टिस के.वी. विश्वनाथन और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने कहा कि दोनों अधिनियमों का उद्देश्य समान है – कर्मचारियों और उनके परिवारों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना। अतः, इनकी व्याख्या “उद्देश्यपरक (purposive interpretation)” से की जानी चाहिए।

अदालत ने कहा – “यदि कर्मचारी की यात्रा और उसके कार्य के बीच स्पष्ट संबंध स्थापित होता है, तो ऐसी दुर्घटनाएं रोजगार से संबंधित मानी जाएँगी। नौकरी से जुड़ी यात्रा, रोजगार के कर्तव्यों का ही विस्तार है।”

अर्थात, यदि कोई व्यक्ति कार्यस्थल की ओर जा रहा है या कार्य पूर्ण करके लौट रहा है, और उस यात्रा का उसके काम से प्रत्यक्ष संबंध है, तो वह दुर्घटना “employment arising out of and in the course of employment” की परिधि में आएगी।

ESI Act और EC Act का सामंजस्य

न्यायालय ने दोनों अधिनियमों की समानता पर विशेष बल दिया। ESI Act की धारा 51E स्पष्ट करती है कि कार्य से संबंधित यात्रा के दौरान दुर्घटनाएं भी मुआवज़े की पात्र होंगी।

अदालत ने कहा – “जब दो समान विषयों के अधिनियम समान उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, तो उनकी भाषा की तुलना और सामंजस्य स्थापित करना न्यायसंगत है।”

इसके साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि ESI Act की धारा 51E स्पष्टीकरणात्मक प्रकृति की है, इसलिए इसे *पूर्वव्यापी रूप से लागू* माना जा सकता है। यानी कि ऐसे मामले, जो पहले घटित हो चुके हैं, वे भी इसके लाभ के दायरे में आएंगे।

न्यायिक दृष्टिकोण : संवेदनशीलता और सामाजिक उत्तरदायित्व

इस निर्णय में न्यायालय ने सामाजिक न्याय की भावना को प्राथमिकता दी। रात्रिकालीन चौकीदार का कार्य, उसकी ड्यूटी का समय, और दुर्घटना की परिस्थितियाँ – तीनों ने यह स्पष्ट किया कि वह “ड्यूटी के लिए मार्ग में था”।

अतः न्यायालय ने पाया कि – “उसकी मृत्यु न केवल यात्रा के दौरान हुई, बल्कि वह यात्रा उसके रोजगार का ही अंग थी।”

इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारी मुआवज़ा आयुक्त और सिविल जज (वरिष्ठ खंड), उस्मानाबाद द्वारा 26 जून 2009 को दिए गए आदेश को पुनः मान्यता दी और मृतक के परिजनों को मुआवज़े का हक़दार ठहराया।

विधिक प्रभाव : रोजगार की अवधारणा का विस्तार

यह निर्णय भारतीय श्रम कानून में ‘employment relationship’ की अवधारणा को व्यापक बनाता है। अब “कार्यस्थल” की सीमा केवल दफ्तर या फैक्ट्री तक सीमित नहीं रही; बल्कि कर्मचारी के आने-जाने की यात्रा भी उस कार्यक्षेत्र का हिस्सा मानी जाएगी – बशर्ते वह यात्रा नौकरी से जुड़ी हो।

इस व्याख्या का प्रभाव

1. मुआवज़ा दावों के दायरे का विस्तार होगा।
2. बीमा कंपनियों की जिम्मेदारी बढ़ेगी।
3. नियोक्ताओं को अपने कर्मचारियों की सुरक्षा नीति पुनः निर्धारित करनी होगी।
4. और सबसे बढ़कर – कर्मचारियों की गरिमा को नया संरक्षण मिलेगा।

सामाजिक सन्दर्भ : न्याय की मानवीय व्याख्या

यह निर्णय केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि कानून की आत्मा का पुनरुद्धार है। आम श्रमिक वर्ग, जो अक्सर अपनी ड्यूटी के लिए दूरदराज़ क्षेत्रों से आता-जाता है, उसके जीवन की कठिनाइयों को यह निर्णय न्यायिक मान्यता देता है।

यह सुप्रीम कोर्ट की “मानवीय न्यायशास्त्र (humanitarian jurisprudence)” की उत्कृष्ट मिसाल है, जहाँ शब्दों के पीछे छिपे जीवन के वास्तविक अर्थ को समझा गया है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बताता है कि कानून स्थिर नहीं, जीवंत है – और उसका उद्देश्य केवल तकनीकी न्याय नहीं, बल्कि मानवीय न्याय है।

“रोजगार के कारण और उसके दौरान” की नई व्याख्या अब यह संदेश देती है कि – “नौकरी केवल कार्यस्थल पर बिताए गए समय का नाम नहीं, बल्कि उस संपूर्ण यात्रा का नाम है जिसमें कर्मचारी अपने दायित्व को निभाने के लिए घर से निकलता है।”

यह फैसला भारतीय श्रम न्यायशास्त्र को नया आयाम देता है – जहाँ मानव जीवन और श्रम दोनों को समान सम्मान प्राप्त है। यह न केवल एक न्यायिक निर्णय है, बल्कि ‘कार्य और कर्म’ दोनों के बीच सेतु का निर्माण है।
(आलेख: प्रदीप शुक्ल)

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