रविवार, सितम्बर 8, 2024

तो अब क्या स्वामी विवेकानंद भी नापे जाने वाले हैं?

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धर्म और राजनीति का गोरखधंधा

लगता है, अब विवेकानंद की बारी आ गयी है! उनकी 121वीं पुण्यतिथि वाले पखवाड़े में उन्हें एक भगवाधारी मॉडर्न संत ने जिस भाषा में, जिस तरह से याद किया, वह कुछ ज्यादा ही चौंकाने वाला था। सॉफ्टवेयर इंजीनियर से आधुनिक संत बने अमोघ लीला दास उर्फ़ अमोघ लीला प्रभु ने अपने एक प्रवचन में विवेकानंद की “चिंतन-प्रक्रिया में निहित दोषों”को उजागर करते हुए सबसे पहले आहार और खान-पान को लेकर उनके दृष्टिकोण की लगभग निंदा करते हुए उनके स्वामी होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया। कहा कि “क्या कोई सिद्ध पुरुष किसी जानवर को मारकर खा सकता है? नहीं खा सकता है, क्योंकि सिद्ध पुरुष के हृदय में करुणा होती है।” वे मांसाहार को कुछ इस तरह का काम बता रहे थे जैसे खाने वाला खुद शिकार करके लाता हो!! विवेकानंद की जिस दूसरी बात के लिए अमोघ लीला प्रभु ने आलोचना की, वह उनका वह कथन है, जिसमे वे “बैंगन को तुलसी से श्रेष्ठ बताते हैं, क्योंकि तुलसी से पेट नहीं भरता, बैंगन से भरता है।” तीसरी बात जो उन्हें और भी ज्यादा बुरी लगी, वह विवेकानंद का वह प्रसिद्ध कथन है कि “फ़ुटबॉल खेलना गीता पढ़ने से बेहतर है।”

विवेकानंद पर चौथी आपत्ति पर आते-आते तो भाई जी अपने असली वाले एजेंडे पर आ ही गए और उनके “वेदान्त मस्तिष्क है और इस्लाम शरीर है, वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर की मदद से ही अराजकता और आपसी संघर्ष से हम बाहर निकल सकेंगे।” वाले कथन पर हाथ-पाँव धोकर पीछे पड़ गए और इसे एक सरासर “बेतुकी बात” बताने तक पहुँच गए। सवाल उठा दिया कि ये “इस्लामी शरीर क्या होता है? और अगर मस्तिष्क वेदान्ती होगा, तो क्या शरीर इस्लामी बन सकता है?” वगैरा-वगैरा!! अमोघ की अमोघ दृष्टि – अचूक नजर – सिर्फ विवेकानंद तक ही नहीं रुकी, प्रभु जी उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस पर भी बमके और उनके प्रसिद्ध कथन ”जतो मत, ततो पथ’ (जितने विचार, उतने रास्ते) पर भी आपत्ति जताते हुए उसे भी सिरे से ठुकरा दिया और फरमाया कि “हर रास्ता एक ही मंजिल तक नहीं जाता है।” इस तरह के सार्वजनिक बयानों के वायरल होने के बाद तीखी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, सो हुई और उससे बचने के लिए फिलहाल इस कथित अमोघ प्रभु को एक महीने की छुट्टी पर भेज दिया गया है, उसने भी इन टिप्पणियों के लिए औपचारिक रूप से खेद जता दिया है।

ध्यान रहे, ये वही अमोघ लीला दास हैं, जिनके शुद्ध वेदसम्मत आप्तवचन “तेल किसका, कपड़ा किसका, जली किसकी?” का उपयोग फ़िल्म ‘आदिपुरुष’ में मनोज मुंतशिर ने किया था और सौ जूते भी खाने, सौ प्याज भी खाने के बाद वापस ले लिया था। खास बात यह है कि ज़रा-ज़रा सी बात पर, यहाँ तक कि पहने जाने वाले कपड़ों के रंग तक पर भावनाओं के आहत हो जाने का स्यापा करने वाले गिरोह में इतना सब कुछ कहे जाने के बावजूद पत्ता तक नहीं खड़का। किसी विहिप ने युद्ध घोष का शंख नहीं फूँका, किसी बजरंग दल ने पुतला नहीं फूँका, किसी नरोत्तम मिश्रा ने एफ आई आर नहीं ठोकी। यह अनायास हुई चूक या अनदेखी नहीं हैं ; यह पानी में कंकड़ फेंक कर उठने वाली तरंगों – उसकी रिएक्शन – की तीव्रता को आंकने और फिर धीरे से पूरी शिला सरका देने की इस गिरोह की उस विधा की आजमाईश है, जिसे अपनाते हुए वह अपने एजेंडे को धीमे से तेज और तेज से तेजतर की ओर ले जाता है। “भारत सभी धर्मों का देश है, धर्मनिरपेक्षता हमारी बनावट का हिस्सा है” जैसे अटल बिहारी वाजपेई के बयानों से अब सीधे हिन्दू राष्ट्र बनाने के वक्तव्यों तक पहुंचना, गांधीवादी समाजवाद से शुरू करके गोडसे के पूजन तक आ जाना — इसी विधा के उदाहरण हैं। होने को तो ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं।

अमोघ लीला प्रभु उर्फ़ अमोघ लीला दास उर्फ़ दिल्ली वाले आशीष अरोड़ा के विवेकानंद धिक्कार की इस खेप को अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (इस्कॉन) के किसी प्रवचनकर्ता की भड़ांस मानकर नहीं चला जा सकता। इस कथित संन्यासी की राजनीतिक पसंद से ज्यादा सही समझा जा सकता है। इनके सिर्फ दो पसंदीदा राजनेता हैं, एक सुषमा स्वराज, दूसरे नरेन्द्र मोदी। यही हाल उनके संगठन का है ; रूप भले अलग हों, मगर सार इस्कॉन का भी वही है। इस्कॉन भी सिर्फ सनातन वैदिक धर्म में विश्वास करती है। इतना ही नहीं, इसके अनुसार सनातन धर्म ही सकल विश्व का धर्म है। ईसाई और इस्लाम भी सनातन धर्म का हिस्सा है और गीता एकमात्र सनातन किताब है — इसमें भी वह गीता ज्यादा प्रामाणिक है, जिसे इस्कॉन के संस्थापक अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने दोबारा से लिखा है।

गौरतलब है कि गांधी हत्याकाण्ड में प्रतिबंधित होने के बाद स्वामी विवेकानंद ही थे, जिनके काँधे पर सवार होकर आर एस एस ने अपने देशव्यापी विस्तार की महापरियोजना शुरू की थी। साठ के दशक में तमिलनाडु के कन्याकुमारी में समंदर किनारे विवेकानंद का शिला स्मारक बनवाने के नाम पर तबके संघ सरकार्यवाह एकनाथ रानाडे और तमिलनाडु – तब मद्रास – के संघ के प्रांत प्रचारक दत्ताजी दिदोलकर की अगुआई में देश भर के स्कूल-कालेज और दफ्तरों में उसके नाम पर चन्दा इकट्ठा किया गया। इस चन्दा एकत्रीकरण के बहाने विवेकानंद की भगवा छवि की आड़ में छद्म राष्ट्रवाद और धर्मान्धता को उभारा गया। गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग को लेकर कथित साधुओं का संसद पर धावा इसके बाद की बात है – जनता के बीच अपनी छवि बदलने और पहुंच बनाने का पहला जरिया स्वामी विवेकानंद ही थे।

हालांकि उनके साथ संघ ने कभी अपने आपको सुविधाजनक नहीं माना। यही वजह है कि इस विचार समूह ने सिर्फ स्वामी विवेकानंद के भगवाधारी सौष्ठव शरीर की आकर्षक छवि पर ही जोर दिया, उनके विचारों को हमेशा अनछुआ ही रखा। हाल के दिनों में, खासकर इन्टरनेट के आने बाद हुयी सूचना क्रान्ति के बाद से, विवेकानंद के लेख, उनके भाषण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने लगे। यह साफ़ होने लगा कि भारतीय धार्मिक विमर्श में विवेकानंद वे असाधारण और प्रामाणिक आध्यात्मिक व्यक्ति हैं, जो दो टूक भाषा में हिन्दुत्वी गिरोह को आईना दिखाकर उसकी वीभत्सता उजागर करते हैं, उस समझदारी की बखिया उधेड़ कर रख देते हैं, जिस पर चलकर संघ भारत नाम के देश के ताने-बाने को तार-तार कर देना चाहता है ; उन्हें भव्य और सुकुमार विवेकानंद की तस्वीर तो चाहिये, इनकी असली तस्वीर दिखाने वाले उनके उदार और सामाजिक सुधार वाले विचार नहीं चाहिये। नरेन्द्र नाथ दत्त से स्वामी विवेकानन्द बने इस असाधारण व्यक्तित्व को जीवन बहुत कम मिला। 4 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की उम्र में ही उनका निधन हो गया था — लेकिन इतने कम जीवन में ही उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रचार करते हुए भी हिन्दू धर्म सहित सभी धार्मिक कट्टरताओं, उनके पाखण्ड, छल और शोषण को जितनी बेबाकी से उजागर किया, वह बेमिसाल है। उनके कहे अनेक कथनों के विस्तार में जाने की बजाय सिर्फ एक-दो उदाहरण ही देख लेते हैं, जो उनके नजरिये की बानगी प्रस्तुत कर देते हैं ।

स्वामी विवेकानंद के जिस भाषण ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की, उस 11 सितम्बर 1893 के शिकागो की धर्म-संसद के डेढ़ पेज के उनके संबोधन का कालजयी हिस्सा है : “साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है। पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है। उसको बार-बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है। सभ्यताओं को ध्वस्त करती रही है। पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है। ये नहीं होते, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं उन्नत हो गया होता। आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा बजाया गया है, वह हर तरह की धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी यातनाओ का, मनुष्यों की पारस्परिक कटुताओं की मौत का घंटा साबित होगा।”

मात्र 5 मिनट में दिए 462 शब्दों के इस भाषण में उन्होंने कहा था कि : ‘‘जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिलती है, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी एक भगवान तक ही जाते है।’’

शिकागो की इसी धर्म-संसद के समापन सत्र में बोलते हुए विवेकानंद ने इसी विमर्श को और आगे बढ़ाते हुए कहा था कि “अजीब मुश्किल है, मैं हिन्दू हूँ और अपने बनाये कुंए में बैठा मान रहा हूँ कि पूरी दुनिया इस कुंए जितनी छोटी-सी है। ईसाई अपने कुंए में बैठे उसे पूरी दुनिया माने बैठे हैं। मुसलमान अपने कुंए में बैठे उसे पूरी दुनिया माने बैठे हैं।” इसे आगे बढ़ाते हुए वे बोले थे कि “यहाँ यदि किसी को यह आशा है कि यह एकता किसी के लिये या किसी एक धर्म के लिये सफलता बनकर आयेगी और दूसरे के लिए विनाश बनकर आयेगी, तो मै उनसे कहना चाहता हूँ कि “भाइयो, आपकी आशा बिल्कुल असंभव है।” और यह भी कि : ‘‘हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रुप में स्वीकार करते है।’’

भारत में धर्मांतरण को लेकर विवेकानंद की व्याख्या आर एस एस के झूठ से गढ़े और दुष्प्रचार से खड़े किये गए कुहासे को चीरकर रख देती है। उन्होंने लिखा है कि “यह सब तलवार के जोर से नहीं हुआ। तलवार और विध्वंस के जरिये हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ, यह सोचना पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वे (गरीब लोग) जमींदारों, पुरोहितों के शिकंजे से आजाद होना चाहते थे। इसलिए बंगाल के किसानों में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान हैं, क्योंकि बंगाल में बहुत ज्यादा जमींदार थे। त्रावणकोर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष में सबसे अधिक हैं, जहाँ एक-एक अंगुल जमीन के मालिक ब्राह्मण हैं, वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है! सवर्ण हिंदुओं की सहानुभूति न पाकर मद्रास प्रांत में हजारों पेरियार ईसाई बने जा रहे हैं, पर ऐसा न समझना कि वे केवल पेट के लिए ईसाई बनते हैं। असल में हमारी सहानुभूति न पाने के कारण वे ईसाई बनते हैं। पहले रोटी और तब धर्म चाहिए। गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं।

विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म का प्रचार भी किया और उसकी विकृतियों को भी पहचाना। हिन्दू धर्म जिसके वेदांती अद्वैतवाद के वे पक्षधर थे — उसे लेकर भी उन्होंने बार-बार सवाल उठाये। उसकी कुरीतियों और कमजोरियों पर धारदार और निर्मम हमला किया। धार्मिक संकीर्णता और जातिवाद पर जितना निर्मम हमला स्वामी विवेकानंद ने किया है, उतना करने का साहस आज के दौर में अनेक प्रतिबद्ध नास्तिक भी नहीं जुटा पाते हैं। संकीर्ण हिंदूवाद, संघियों का हिन्दुत्व जिसका ताजा संस्करण है, को वे भारतीय सभ्यता का सबसे प्रमुख अवरोध मानते थे। उन्होंने कहा कि : ”पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जाति वालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो।”

वे यहीं तक नहीं रुके, इससे आगे गए और कहा कि : “वह देश जहां करोड़ों व्यक्ति महुआ के पौधे के फूल पर जीवित रहते हैं, और जहां दस लाख से ज्यादा साधू और कोई दस करोड़ ब्राह्मण हैं, जो गरीबों का खून चूसते हैं, वह देश है या नर्क? वह धर्म है या शैतान का नृत्य?” युवाओं के नाम आव्हान पर लिखे अपने एक खत में उन्होंने इसका इलाज भी बताया था कि “पुरोहित-प्रपंच की बुराइयों का निराकरण करना होगा – इसलिए आगे आओ, इंसान बनो। लात मारो इन पुरोहितों को। ये हमेशा प्रगति के खिलाफ रहे हैं, ये कभी नहीं सुधरने वाले। इनके दिल कभी बड़े नहीं होने वाले। ये सदियों के अंधविश्वास और निरंकुश निर्दयता की औलादें हैं। सबसे पहले इस पुरोहिताई को जड़ से मिटाओ।”

विवेकानंद उस दौर में ऐसी खरी-खरी बात कह रहे हैं, जिसे आज के समय में बोलना खतरों से खेलना होता है। खुद विवेकानंद भी यह सब आज बोलते तो उनका कुलबुर्गी, दाभोलकर और पानसरे बनना तय था। इन्ही विवेकानंद से इस गिरोह को डर लगता है।

जैसा कि कई बार, बार-बार कहा जा चुका है, मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान का भारत की समृद्ध विचार परम्परा के साथ कोई नाता नहीं है। जहां दुनिया का सबसे प्राचीन नास्तिक “धर्म” जन्मा हो, जहां की षड्दर्शन परम्परा में 6 में 3 दर्शन पूरी तरह अनीश्वरवादी हो, वहां इन्हें नास्तिकता और धर्मनिरपेक्षता तो दूर की बात रही, उदारता और सहिष्णुता की बात करने वाले धार्मिक स्वामी और साधु भी स्वीकार नहीं है। बाकी पंथों और पद्धतियों को हड़प कर, डपट कर, मिलाकर, मिटाकर अपना वर्चस्व कायम करने की मुहिम चलाना उनके लिए संभव है, मगर विवेकानंद के साथ यह बर्ताव मुश्किल है। इसलिए अब उन्हें नापे जाने की परियोजना शुरू की जाने वाली है। बहाना मांसाहार है, मगर निशाना विवेकानंद का आगे बढ़ा हुआ, काफी हद तक क्रांतिकारी विचार है। यह आशंका निर्मूल नहीं है कि अमोघ प्रभु उर्फ़ आशीष अरोड़ा की लीला इसी परियोजना का निमित्त और आगाज़ है।
-बादल सरोज

(लेखक साप्ताहिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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