खुश होना सहज इंसानी गुण है, प्रसन्नता मानवीय स्वभाव है ; बल्कि सही कहा जाए, तो उसकी जरूरत भी है, पहचान भी है। वर्ग विभाजित समाज में ज्यादातर लोगों के हिस्से में खुशियां नहीं आती। मगर हजार मुश्किलें भी व्यक्ति को प्रफुल्लित होने के बहाने ढूँढने से नहीं रोक पाती।
तीज-त्यौहार और पर्व सदियों से चले आ रहे बने-बनाये बहाने हैं या ठीक से कहें, तो स्वतः उपलब्ध रेडीमेड अवसर हैं। ज्यादातर पर्व मौसम से, कृषि से, श्रम से संबंधित हैं। इनमें से बहुतों के साथ पूजा, अर्चना बाद में जुड़ गयी। मगर यह पूजा – जो करते हैं, उनके लिए भी – चन्द पलों की होती है। बिना किसी धर्म की पर्दादारी के, बाकी पूरे समाज के लिए भी त्यौहार, पर्व, उत्सवो का असली लुत्फ़ उस दिन कुछ विशेष तरह से तैयार होना, नए कपडे पहनना और सामान्य से अलग हटकर स्वादिष्ट व्यंजन खाना होता है।
त्यौहारों के आने से पहले ही माहौल उत्साह की गमक और खुशियों की रौनक से चमक उठता है। मगर हाल के दिनों में, खासतौर से जब से एक ख़ास तरह की न्यू इंडिया बनाने की विध्वंसकारी मुहिम शुरू हुयी है, तब से त्यौहारों की आमद आशंका और उसका दिन तनाव और डर के साथ गड्डमड्ड हो गया है। 2014 के बाद से तो लगभग हर तीज त्यौहार पर ये आशंकायें असली हादसों और घटनाओं में बदलती दिख रही हैं। इस बार की रामनवमी भी देश भर में उन्माद भड़काने, हिंसा फैलाने और दंगा भडकाने का एक दिन बन कर सामने आयी। पिछले साल की तुलना में अंतर बस इतना भर था कि इस बार इनका भौगोलिक विस्तार, तीव्रता का आयाम पहले से कहीं ज्यादा और सांघातिक था ।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस बार की रामनवमी पर बिहार में नालन्दा जिले में बिहारशरीफ, रोहतास में सासाराम से लेकर मुंगेर, पश्चिम बंगाल में हावड़ा के इस्लामपुर – शिबपुर, उत्तर दिनाजपुर के डालखोला से लेकर हुगली, महाराष्ट्र में संभाजीनगर औरंगाबाद, पुणे, मुम्बई में मलाड के मालवानी, जलगांव के पालधी, झारखण्ड के ईस्ट सिंहभूम के हल्दीपोखर, कर्नाटक के हासन, बंगलौर, गुजरात में अहमदाबाद के ऊना, वड़ोदरा के फतेहपुरा और कुम्भारवाड़ा, हरियाणा के गुरुग्राम बने गुड़गांव से लेकर उत्तरप्रदेश के लखनऊ के विश्वविद्यालय तक से एक जैसी खबरें आईं हैं। बिहार के ही गया और मुजफ्फरपुर में भी इसी तरह के तनाव तथा प्रायोजित टकरावों के समाचार भी हैं। हरियाणा के सोनीपत में तो उत्पाती उन्मादी नारे लगाते हुए खरखौदा मस्जिद में घुस गए और मस्जिद पर भगवा झंडा तक फहरा दिया।
ध्यान रखें, यह उन घटनाओं के बारे में है, जहां पुलिस की भाषा में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी, हिंसा हुयी, टकराव हुए। अनेक जगहों में यही काम धीमी तीव्रता के साथ हुए, इसलिए वे खबर नहीं बने। दोनों ही मामलों में मक़सद एक ही था – त्यौहार को हथियार बनाकर उन्माद और विभाजन के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना।
बंगाल से कर्नाटक, बिहार से गुड़गांव तक बिना किसी अपवाद के पैटर्न एक ही है। रामनवमी के बहाने – धर्मालुओं द्वारा नहीं – जाने-पहचाने साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा जलूस निकालना, इन जलूसों की जिला प्रशासन से या तो अनुमति ही नहीं लेना या ली गयी अनुमति में निर्धारित किये गए समय और मार्ग को नहीं मानना, इन जलूसों को जानबूझकर मुस्लिम आबादी के इलाकों से गुजारना, भड़काऊ भाषण देना, तलवारें, त्रिशूल और बंदूकें लहराते हुए उकसाने वाले गाली-गलौज भरे नारे लगाना, इसके बाद भी कभी कहीं यदि कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी, तो नमाज़ के वक़्त मस्जिदों के सामने यह सब करते हुए इनके साथ कानफाडू ढोल बजाना। अफवाह फैलाकर अपने ही जलूस में भगदड़ मचाना और उसके बाद वही स्थिति पैदा करना, जो इस रामनवमी के दिन ऊपर गिनाई गयी सारी जगहों पर बनी। यह काम इतनी निर्लज्ज दीदादिलेरी के साथ किये गए कि हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में इन की खुद की सरकारों को भी ऐसे मामलों में एफआईआर दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इनके नाम देखकर ही पहचाना जा सकता है कि ये कौन हैं।
शहर जो भी हो, प्रदेश कोई भी हो, सब दूर एक समान पैटर्न से साफ़ हो जाता है कि इनमें से कहीं भी यह अचानक हुयी वारदात नहीं है। इसकी एक सुविचारित तरीके से तैयार कर भेजी गई टूलकिट है, उसे अमल में लाने के लिए तयशुदा संगठन हैं। प्रायः हर मामले में यह संगठन बजरंग दल है, सभी मामलों में यह हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता की धुरी – आरएसएस – से जुड़ा संगठन या उससे संबंधित नेता की अगुआई वाली भीड़ है।
यह टूलकिट आज की नहीं है!
यह टूलकिट आज की नहीं है, यह आरएसएस की स्थापना के साथ नाभिनालबद्ध है, उसके जन्म के साथ अविभाज्य रूप से जुड़ी है। यह संघ के गठन के शुरुआती दौर से आजमाई जा रही इसकी मुख्य कार्यशैली है। पिछली सदी की शुरुआत में मस्जिदों के सामने से तेज संगीत बजाते हुए जुलूस निकालने का काम, राजनीतिक कार्यवाही के एक प्रकार के रूप में, बाद में संघ के संस्थापक बने डॉ. हेडगेवार ने शुरू किया था। उस दौर में उपजे तनाव के बाद 1914 में नागपुर में एक बड़ी साम्प्रदायिक झड़प भी हुयी थी, जिसके बाद अंग्रेजों के समक्ष एक समझौता हुआ, जिसमें ऐसा न करने की सहमति बनी।
कुछ समय के बाद इस समझौते को न मानने की घोषणा करते हुए डॉ हेडगेवार ने कहा कि : “(मस्जिदों के आगे) संगीत बजाने का अधिकार कोई मामूली विषय नहीं है, बल्कि यह हिन्दू पराक्रम की अभिव्यक्ति है। इसलिए कुछ भी हो इसे जारी रखा जाएगा।” इसके बाद उन्हीं के नेतृत्व में डिंडी सत्याग्रह शुरू हुआ। (दांडी का नमक सत्याग्रह नहीं, इससे अलग रहने का तो आरएसएस ने खुला ऐलान किया था)
इस डिंडी सत्याग्रह में एक के बाद दूसरी मस्जिदों के सामने से अत्यधिक शोर के साथ जुलूस निकाले जाते थे। संघ का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार लिखते हैं कि वी एस मुंजे इस के कोरियोग्राफर थे और खुद हेडगेवार इसके कमांडर और सैनिक हुआ करते थे। इतिहासकारों के अनुसार कई बार जब स्वयंसेवक सहम जाया करते थे, तो ऐसा भी हुआ, जब खुद हेडगेवार ने उनके हाथों से ढोल लेकर उसको जोर-जोर से बजाया ।
इस कथित डिंडी यात्रा में दिखाए गए तथाकथित हिन्दू पराक्रम का ही नतीजा वे साम्प्रदायिक दंगे थे, जिन्हे इतिहास की किताबों में “म्यूजिक बिफोर मॉस्क रायट्स” (मस्जिदों के सामने संगीत के कारण हुए दंगों) के नाम से दर्ज किया गया है।
इस रामनवमी को भी, जहाँ भी हुआ, यही हुआ। रमज़ान के महीने में मस्जिदों के सामने सिर्फ संगीत और ढोल-नगाड़ों का ही शोर नहीं किया गया, बल्कि उससे आगे बढ़कर उन्मादी भाषण और भड़काऊ नारे भी गुंजाये गए। इस बार बात सिर्फ यहीं तक नहीं रुकी। तनाव की आग में पेट्रोल छिड़कने के लिए खुद गृहमंत्री अमित शाह भी पहुँचे और सभी नागरिकों से संयम बरतने की अपील करने की बजाय “हम अगर सरकार में आ गए, तो दंगाईयों को उल्टा लटका देंगे” जैसे जख्म पर नमक छिड़कने वाले भाषण देकर इन आपराधिक घटनाओं की ताईद की। ऐसा कहते हुए बिलकिस बानो के सजायाफ्ता मुजरिमों की जेल से ससम्मान रिहाई, गुजरात के ज्या8ओ⁰दातर दंगाईयों के समुचित पैरवी न होने के चलते बरी हो जाने के मामलों के लिए जानी जाने वाली भाजपा के नेता अमित शाह का निशाना कहाँ था, यह अगले ही दिन उनकी पार्टी ने विधानसभा में, उनके नेताओं ने अपने बयानों में बोलकर और उन्ही के एक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका ठोककर साफ़ कर दिया। एकदम साफ़ उजागर हो गया कि इन योजनाबद्ध फसादों का असली मकसद इनके कारण हुए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक सुदृढ़ीकरण में बदलने का है।
ये बच्चे किसके बच्चे हैं?
सभ्य समाज में सिर्फ हिंसक और समाज विरोधी ही त्यौहारों को बम फोड़ने, कत्लेआम करने, दंगा करने या हंगामा और क्लेश खड़ा करने का दिन बना सकते हैं, मनुष्य नहीं। इस बार भी वही किया गया – लेकिन ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस रामनवमी के इन फसादों में अवयस्क बच्चों का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। बिहार शरीफ और सासाराम के दंगों में हुयी कुल 105 गिरफ्तारियों में 54 नाबालिग हैं। इन दंगों में तलवार और गोली चलाने के मामले में जो 12 दंगाई गिरफ्तार हुए हैं, उनकी उम्र मात्र 16 वर्ष है।
कहने की जरूरत नहीं कि इन नाबालिगों में से एक भी बिहार के किसी बड़े भाजपा नेता, किसी बड़े आरएसएस नेता, किसी कथित धर्मगुरु, किसी हिंदुत्ववादी धन्नासेठ, पूंजीपति या जमींदार का बेटा नहीं है। इन सबकी संतानें तो किसी आईआईटी, किसी मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेज में या अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन में पढ़ने गयीं हैं। जो इधर रह गयी हैं, वे कमाई करने में लगी हैं।
“म्यूजिक और गाली बिफोर मस्जिद” की धधकाई जा रही भट्टी में लकड़ियों की तरह झोंके जा रहे ये सब के सब बच्चे गरीबों और निम्नमध्यवर्गीयों के बच्चे हैं, जिन्हे न ढंग की पढ़ाई नसीब होने दी गयी, न कोई रोजगार ही मिलने दिया गया।
सबसे *पहली* जरूरत इन बच्चों सहित सभी बच्चो को उनके इस तरह के दुरुपयोग से बचाने की है। उनके कोमल दिमाग की हार्डडिस्क में बिठाई गयी नफरती वायरसों से भरी टूलकिट निकालने की है। *दूसरी* जरूरत तगड़ी यथासंभव व्यापकतम साझी नागरिक पहल से इस पारस्परिक प्रतियोगी कट्टरता और उन्माद को थामने की है और इस वायरस की संहारकता को समझ कर उसके भुलावे में न आकर इसे निष्प्रभावी करने की है।
यह काम, यदि ढंग से जिद के साथ किया जाए, तो न तो मुश्किल है, ना ही असंभव है, बशर्ते देर न की जाए। -बादल सरोज