गुरूवार, नवम्बर 21, 2024

मोदी की डफ़ली और उनका फेवीकोल जोड़ राग: पाखंड की पराकाष्ठा और हताशा का चरम चिल्ल-पों!

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यूं तो मोदी हर रोज अपनी चुनावी सभाओं में कुछ न कुछ ऐसी लम्बी फेंकते ही रहते हैं, जिसे लपेटने में उनकी ही आई टी सैल के पसीने छूट जाते हैं। मगर 8 मई को तो जैसे वे सभी को चौंकाने और अचरज में डालने के मूड में थे। एक आमसभा में बोलते हुए नरेन्द्र मोदी ने अचानक वे दो नाम ले दिए, जिन्हें इस तरह से लेना स्वयं उनके कुनबे में ईशनिंदा माना जाता है। अंबानी और अडानी के नाम, सो भी इस प्रसंग में, उनके मुंह से सुनने की उम्मीद शायद ही किसी को रही होगी। तेलंगाना, जिसे मोदी तेलंगाना की जगह “तेलांगना” उच्चारित करते हैं (यह अफ़सोस की बात है कि एक प्रधानमंत्री ऐसा भी है, जो अपने ही देश के प्रदेशों के नाम ठीक-ठीक बोलना तक नहीं जानता) के करीमगंज की सभा में बोलते हुए उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था के इन दो राहू-केतु के बारे में जो कहा, उसका सार यह था कि ये “दोनों काला धन रखते हैं, अपने खिलाफ हो रहे प्रचार को रुकवाने के लिए उस काले धन को टेम्पो में भर-भर कर पहुंचाते हैं, इसी काले धन को लेने के बाद अब “शहजादे ने अडानी-अंबानी को गाली देना बंद कर दिया है।“ आख़िरी वाली बात हालांकि मोदी प्रजाति का झूठ है – लेकिन इससे पहली वाली बातें, जिनमें अंबानी-अडानी पर आरोप लगाए गए हैं, दिलचस्प हैं।

मोदी 10 साल से जिनके लिए, जिनके द्वारा, जिनकी सरकार चला रहे हैं और ऐसा कर रहे हैं, इस बात को छुपा भी नहीं रहे हैं, उनके बारे में इस तरह के आरोप, वह भी मोदी के मुंह से कुछ ज्यादा ही नया और मजेदार है। मोदी के बोलते ही अनेक लोगों ने ठीक ही यह मांग उठाई है कि यदि प्रधानमंत्री तक को इस घोटाले की जानकारी है, तो उन्हें तुरंत ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स महकमे को काम पर लगाना चाहिए। यह कालाधन जब्त होना चाहिए। इस काले धन के लिए अंबानी-अडानी को, उसमें साझेदारी के लिए, जिसे वे शहजादा कह रहे हैं, उसे घेरे में लेना चाहिए और शुरुआत उन टेम्पो को जब्त करके की जानी चाहिए, जिनमे भरकर काला धन भेजने की एकदम पुख्ता सूचना स्वयं देश के प्रधानमंत्री के पास है।

बहरहाल मोदी का यह भाषण पंक्तियों के बीच में अनलिखे को पढ़कर ज्यादा सटीक तरह से समझा जा सकता है। इस कहे के पीछे जो अनकहा है, वह असल में तीसरे चरण के मतदान के बाद मिला फीडबैक है। इस फीडबैक ने मोदी और उनकी भाजपा को बता दिया है कि बदल-बदल कर उठाये गए उनके मछली, मटन, मंगलसूत्र, भैंस, मंदिर, हिन्दू-मुसलमान आदि उन्मादी मुद्दे ज्यादा असर नहीं दिखा पा रहे हैं। हिन्दू ह्रदय सम्राट और ईश्वर तक में प्राण प्रतिष्ठित करने वाले की छवि के बजाय जनता के बीच उनकी यह छवि बनी हुयी है कि वे अंबानी और अडानी सहित देश के उन 22 सुपर रिच धन्नासेठों की मुनाफे की पालकी के कहार हैं, उनकी लूट के खजाने का ‘खुल जा सिमसिमसी पासवर्ड हैं, धनपतियों के वफादार चाकर हैं और जो भी करते हैं उन्हीं के फायदे के लिए करते हैं।
मोदी-भाजपा-आरएसएस जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों में सामाजिक आचरण में चोर को शाह, लुटेरे को चतुर और ठगों को राष्ट्र निर्माता बताने वाला नया समाज शास्त्र गढ़ने और अब तक के सभी सार्वजनिक मूल्य बदलने की उनकी और उनके तंत्र की कोशिशों, मीडिया के इस दिशा में किये गए प्रयत्नों के बावजूद अभी भी इस देश में थैलीशाहों के साथ खड़ा होना अच्छा नहीं माना जाता। वे यह भी जानते हैं कि अंतत: यह छवि जनता के साथ उनका अलगाव ही नहीं करती है, बल्कि उन्हें खलनायक भी बनाती है।

तीन चरणों में इसका खामियाजा भुगतने के बाद अब बाकी के चरणों में कुछ संभालने के मुगालते में वे, भले दिखाने के लिए, उन दोनों के खिलाफ बोलने तक आ पहुंचे हैं – जिन दोनों की दम पर वे सत्ता में पहुंचे थे और उनका अहसान चुकाने के लिए पिछले 10 वर्षों में ऐसा कुछ बचा नहीं, जो इनने उन्हें कौड़ियों के मोल बेचा नहीं।  किस तरह लाखों करोड़ की सौगातें, हजारों करोड़ की रियायतें और नीतियाँ बेचकर अनगिनत करोड़ की सहूलियतें मोदी राज में अंबानी-अडानी को मिली हैं, इनके दस्तावेजी प्रमाण हैं। यह सब इतना साफ़-साफ है कि देश की ज्यादातर जनता को यह याद हो गया है।

सूचनाओं की प्रचुरता के इस युग में लोग मणिपुर की नृशंसता के पीछे वहां के महंगे खनिज पर अडानी की दावेदारी देख लेते हैं, कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने के पीछे कश्मीर और लद्दाख की खनिज और प्राकृतिक संपदा की लूटखसोट के अडानी के एजेंडे को भांप लेते हैं,  छत्तीसगढ़ के हसदेव के घने जंगलों में छुपे दौलतचोर अडानी को पहचान लेते हैं और उसके खिलाफ लड़ते भी हैं। यही डर है, जिसके चलते, भले दिखावे के लिए ही सही, मोदी इनसे पल्ला झाड़ते हुए दिखना चाहते हैं और टेम्पो भर काला धन लेने का आरोप लगाकर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस  – इस तरह इंडिया गठबंधन — की सेठाश्रित कार्पोरेटमुखी छवि बनाना चाहते हैं। यह हताशा का चरम भी है, वहीं इसी के साथ पाखंड की पराकाष्ठा भी है ।

ऐसा करते में मोदी अपने जिस वैचारिक आदि गुरु की भौंडी नकल कर रहे हैं, उसे देखते हुए ताज्जुब नहीं होगा कि अगली कुछ सभाओं में वे समाजवाद और मजदूर किसान का राज लाने का एलान करने तक पहुँच जाएँ। जिसकी स्तुति और प्रशंसा करते में सावरकर से लेकर गोलवलकर तक कभी नहीं शर्माए, जिसके रास्ते से सीखने और उसके अनुकरण की बात उन्होंने खुलेआम लिखा-पढ़ी में कही, वह हिटलर यही करता था। उसने तो अपनी पार्टी के नाम ‘राष्ट्रीय समाजवादी कामगार पार्टी’ (संक्षेप में नाजी) में ही समाजवाद और कामगार जोड़ा हुआ था। वह अपने जोरदार उन्मादी भाषणों में गरज-गरज कर तब के जर्मन पूंजीपतियों के नाम ले-लेकर उन्हें ठिकाने लगाने की घोषणाएं करता था और रात में उनके साथ गोपनीय बैठकें कर उन्हें आश्वस्त करता था कि घबराने की कोई जरूरत नहीं, ये सब चुनाव जीतने के जुमले हैं, सरकार आप ही की बनेगी। बाद में हुआ भी वही। मोदी उसी रणनीति को कुछ ज्यादा ही देर से और कुछ ज्यादा ही भौंडे तरीके से तेलंगाना से शुरू कर रहे हैं।

मगर मोदी के साथ अंबानी-अडानी जिस तरह चिपके हैं, वे इतनी आसानी से छूटने वाले नहीं है। एक तो इसलिए कि उनके राज में इनकी कमाई पूँजीवाद के नियमों को भी ध्वस्त करने वाली रफ़्तार से हुयी कमाई है। दूसरे यह कि मोदी अंबानी-अडानी के अविभाज्य संग साथ की छवि सिर्फ राहुल गांधी के भाषणों या मुकेश अंबानी द्वारा उनकी पीठ पर हाथ रखकर खिंचाये फोटो से नहीं बनी है ; इसे चिपकाने वाला असली फेवीकोल 378 दिन तक दिल्ली की बॉर्डर पर चले एतिहासिक किसान आन्दोलन, उसके पहले मंदसौर से शुरू हुए और दिल्ली घेराव के बाद की तीन वर्षों में लगातार चले किसान आंदोलनों ने अपनी शहादतों से तैयार किया है। चार लेबर कोड के खिलाफ और निजीकरण, न्यूनतम वेतन के सवालों पर हुए मजदूरों के साझे संघर्षों की विशाल लहर ने उसे गाढ़ा किया है। बेरोजगारी के खिलाफ उठे युवाओं के और महंगाई तथा उत्पीड़न में बढ़त के खिलाफ महिलाओं के बड़े-बड़े आंदोलनों ने इस फेवीकोल को असली फेवीकोल से भी ज्यादा मजबूत तासीर दी है। मनु की बहाली को आतुर गिरोह के राज में बढ़े सामाजिक उत्पीड़न की भभक में यह पक्का हुआ है।

यह इन बेमिसाल जनसंघर्षों की कामयाबी है कि उनके मुद्दों को  देश की ज्यादातर पार्टियों को अपनी अन्यथा वर्गीय पक्षधरता के बावजूद अपने एजेंडे पर लेना पड़ा है ; वामपंथ तो पहले ही इन पर मुखर था, अब इंडिया गठबंधन ने भी इसे अपना प्रमुख आधार बनाया है। ये जो दरिया झूमकर उट्ठे हैं, वे करीमगंज में दिखावे के लिए उठाये गए अंबानी-अडाणी नाम के तिनकों से न टाले जायेंगे।

मोदी जानते हैं कि तीन चरणों में गंवाते जाने की हताशा में बोली गयी उनकी यह बात और कुछ नहीं, फ्रायड द्वारा रेखांकित किया गया वह सिंड्रोम है, जिसमें अवचेतन में छुपाया सच मुंह से निकल ही जाता है। मगर सुनने वाले उसे बहाने के रूप में नहीं, कबूलनामे के रूप में देख रहे है। करीमगंज में बोले गए बोल वचनों को भी देश की जनता ने इसी रूप में लिया है। सभा के बाद मोदी ने भले ही अंबानी और अडानी से फोन करके “सू छे सारो छे” बोल दिया होगा, इंडिया के मतदाता इस झांसे में नहीं आयेंगे। वे भारत को अंबानी-अडाणी और उनकी जोड़ीदार हिंदुत्वी साम्प्रदायिकता को उड़न-छू करने का बटन ही दबायेंगे।
(आलेख : बादल सरोज)
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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