सामाजिक न्याय की लड़ाई को तेज करने का समय
जब देश पुलवामा आतंकी हमले के बाद मोदी सरकार से सख्त कार्रवाई और स्पष्ट जवाब की उम्मीद कर रहा था, तभी केंद्र सरकार ने अचानक यह घोषणा कर सबको चौंका दिया कि वह जाति आधारित जनगणना के लिए तैयार है – वह भी उस आम जनगणना के अंतर्गत, जो वर्षों से लंबित है। हालांकि अब तक इस जनगणना की कोई स्पष्ट तिथि घोषित नहीं की गई है, और 2025-26 के बजट में भी इसके लिए कोई वित्तीय प्रावधान नहीं किया गया है। ऐसे में यह ऐलान एक ठोस सामाजिक पहल की बजाय बिहार विधानसभा चुनावों से पूर्व की एक रणनीतिक राजनीतिक चाल अधिक प्रतीत होती है। बावजूद इसके, यह एक ऐतिहासिक कदम है, क्योंकि पिछली जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी।
मोदी का यह ताज़ा ‘मास्टरस्ट्रोक’ शायद संघ-भाजपा विचारधारा में अब तक की सबसे बड़ी वैचारिक पलटी है। 2024 के आम चुनावों से पहले जब ‘इंडिया’ गठबंधन और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जाति जनगणना की मांग तेज़ की थी, तब भाजपा और संघ ने इसे समाज को विभाजित करने वाला और ‘शहरी नक्सल एजेंडा’ करार दिया था। यह वही भाजपा है जिसने 1990 में मंडल आयोग की आंशिक रूप से लागू सिफारिशों के खिलाफ वी.पी. सिंह सरकार को गिराया था और 1970 के दशक में बिहार में पिछड़ों को आरक्षण देने के कारण कर्पूरी ठाकुर को सत्ता से बाहर करने में भूमिका निभाई थी।
संघ परिवार ने ऐतिहासिक रूप से पिछड़ों और दलितों के सशक्तिकरण का विरोध किया है। लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा खुद को पिछड़ों की हितैषी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने में जुटी है। आज जब जातिगत जनगणना का ऐलान हुआ है, तो यह साफ झलकता है कि संघ-भाजपा सामाजिक न्याय की लोकप्रिय मांग को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश में है। यही वे ताकतें हैं जो एक ओर फुले-दंपति जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों की जीवनी पर बनी फिल्म को सेंसर करवाने का प्रयास कर रही हैं और दूसरी ओर जातिगत अत्याचारों पर मौन हैं।
मोदी सरकार का यह यू-टर्न ऐसे समय आया है जब पहलगाम आतंकी हमला देश का मुख्य मुद्दा बना हुआ था। अब सरकार ने अचानक नागरिकों से उनकी जाति पूछने का ऐलान कर, जनता का ध्यान मूल सवालों से हटाने की रणनीति अपनाई है। यह सत्ता के संकट में दिशा भटकाने की एक स्पष्ट कोशिश है।
2015 में जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी, तब बिहार की जनता ने इसका कड़ा विरोध किया था। अब वही भागवत दो हज़ार वर्षों से चले आ रहे जातिगत उत्पीड़न को स्वीकार करते नज़र आते हैं और कहते हैं कि आरक्षण दो सौ वर्षों तक जारी रहना चाहिए। यह बयान संघ की पुरानी सोच से बिल्कुल विपरीत है, जो जाति व्यवस्था को मुस्लिम आक्रमण या उपनिवेशवाद की देन बताकर टालती रही है।
बिहार ने 2023 में पहले ही जातिगत सर्वेक्षण पूरा कर लिया था और उसके आधार पर आरक्षण को 65% तक बढ़ाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया था। इसे संविधान की 9वीं अनुसूची में डालना और लागू कराना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी थी। लेकिन अब मोदी सरकार का जाति जनगणना का एलान, पहले से किए गए प्रयासों को निष्प्रभावी बनाने और सामाजिक न्याय की दिशा को अनिश्चितकाल तक रोकने की एक चाल के रूप में देखा जा रहा है।
जो भाजपा आईटी सेल और गोदी मीडिया पहले जातिगत जनगणना की खिल्ली उड़ाते थे, वही अब उसके पक्षधर बन गए हैं। वही सरकार जो सुप्रीम कोर्ट में यह कह चुकी थी कि जातिगत जनगणना लगभग असंभव है, अब कांग्रेस पर इल्ज़ाम लगा रही है कि उसने इसे क्यों नहीं करवाया।
बिहार में भाजपा की स्थिति पहले ही कमजोर रही है, और इस नई पहल के पीछे चुनावी समीकरण साधने की मंशा साफ झलकती है। मोदी और योगी द्वारा “बटेंगे तो कटेंगे” और “एक है तो सेफ है” जैसे नारे जो जातिगत जनगणना की आलोचना में दिए गए थे — अब वे अचानक गायब हो चुके हैं।
आज भी हमारे पास जातियों के अद्यतन आंकड़े नहीं हैं, और ओबीसी को सिर्फ़ 27% आरक्षण मिलता है — जबकि उनकी जनसंख्या इससे कहीं अधिक है। यह भी धीरे-धीरे लागू हुआ — पहले 1990 में नौकरियों में और फिर 2006 में उच्च शिक्षा में। लेकिन अब नौकरियों की संख्या घट रही है, लेटरल एंट्री के माध्यम से आरक्षण को निष्प्रभावी किया जा रहा है, और आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देकर सामाजिक न्याय की भावना को कमजोर किया जा रहा है।
इसलिए यह लड़ाई सिर्फ़ आरक्षण की सीमा को हटाने या निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसमें ज़मीन सुधार, शिक्षा और रोज़गार में सरकारी भूमिका को फिर से मज़बूत करना भी जरूरी है।
जातिगत जनगणना अगर पारदर्शी और प्रभावी तरीके से हो, तो यह भारत की सामाजिक असमानता की असल तस्वीर दुनिया के सामने लाएगी। अब जब सामाजिक न्याय आंदोलन ने सरकार को पहला कदम उठाने पर मजबूर कर दिया है, तो इस संघर्ष को और तेज़ करने की आवश्यकता है – ताकि न केवल जातिगत गणना समय पर पूरी हो, बल्कि उसके आधार पर ठोस नीतियाँ भी लागू की जा सकें, जो हाशिए पर मौजूद तबकों को न्याय और समुचित प्रतिनिधित्व दिला सकें।
(Courtesy: ML Update)