नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के ऐन आखिर में, देश एक ऐसी बहस देख रहा है, जिसकी पहले किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। बहस इस पर है कि क्या पूरे सरकारी तंत्र को सीधे-सीधे, सरकारी योजनाओं तथा उपलब्धियों के प्रचार के नाम पर, सत्ताधारी पार्टी के कामयाबी के दावों के प्रचार में झौंका जा सकता है? यह बहस मोदी प्रशासन के 17 अक्टूबर के सर्कुलर से उठी है, जिसमें सभी सरकारी विभागों को कथित ‘‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’’ के लिए संयुक्त सचिव/ निदेशक/ डिप्टी सेक्रेटरी स्तर के अधिकारियों को ‘‘रथ प्रभारी’’ नियुक्त करने का आदेश दिया गया है। उक्त संकल्प यात्रा 20 नवंबर से 2023 से 25 जनवरी 2024 तक निकाली जानी है और इसके दायरे में देश के सभी 765 जिलों और 2.69 लाख ग्राम पंचायतों को कवर किया जाना है। सरकारी सर्कुलर के ही अनुसार, इस पूरी मुहिम का मकसद मोदी सरकार की ‘पिछले नौ वर्षों की उपलब्धियों को शोकेस, सेलिब्रेट करना है।’
वैसे तो इस सर्कुलर में ‘‘सभी मंत्रालयों’’ को जिस तरह शामिल किया गया है, उसमें रक्षा मंत्रालय भी आ ही जाता है। बहरहाल, इसी दौरान रक्षा मंत्रालय द्वारा और जाहिर है कि इसी कार्यक्रम के हिस्से के तौर पर, देश भर में सैन्य संगठनों से जुड़े साढ़े सात सौ से ज्यादा स्थानों पर ‘‘सैल्फी पाइंट’’ बनाए जाने का फैसला लिया गया है, जहां केंद्र सरकार की योजनाओं को प्रदर्शित किया जाएगा। पुणे में सशस्त्र बलों के अस्पताल के ऐसे ही सैल्फी पाइंट की तस्वीरें मीडिया में आ भी चुकी हैं, जिससे यह भी साफ है कि सेल्फी के पीछे विचार, प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर के साथ सैल्फी लेने का ही है। वास्तव में सशस्त्र बलों को भी औपचारिक रूप से सरकारी योजनाओं के प्रचार किंतु वास्तव में मौजूदा शासन के प्रचार के रथ में जोते जाने के वर्तमान शासन के इरादे तो तभी साफ हो गए थे, जब छुट्टी पर घर जाने वाले सैनिकों के लिए, वहां जाकर सरकारी योजनाओं का प्रचार करने का फरमान जारी किया गया था। हां! उक्त फरमान खुद सैन्य तंत्र के अंदर से आया था, जबकि अब यह आदेश सैन्य बलों को दूसरे सभी सरकारी विभागों वाले ही डंडे से हांकता है।
हैरानी की बात नहीं है कि अनेक पुराने वरिष्ठ नौकरशाहों ने, उच्च पदस्थ नौकरशाहों को ‘‘रथ प्रभारी’’ नियुक्त किए जाने समेत, इस समूचे विचार को ही अकल्पनीय तथा आश्चर्यजनक करार दिया है। उन्होंने स्वाभाविक रूप से यह भी याद दिलाया है कि सरकार के पास अपना अलग प्रचार विभाग है, जिसका काम ही सरकार के कार्यक्रमों, योजनाओं आदि का और जाहिर है कि उपलब्धियों का भी, प्रचार करना है। उन्होंने इस आदेश में नौकरशाही के राजनीतिकरण का खतरा छुपा माना है और यह भी कहा है कि यह आदेश, राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच की विभाजक रेखा को मिटाता है। सैन्य बलों के संदर्भ में इस अतिक्रमण और उसके साथ जुड़े राजनीतिककरण को और भी खतरनाक बताया गया है। इस खास मामले में यह भी याद दिलाया गया है कि यह सब विधानसभा चुुनावों के मौजूदा चरण और चंद महीनों में ही होने जा रहे आम चुनावों की पृष्ठभूमि में हो रहा है, और इसलिए यह और भी आपत्तिजनक है। इतना ही नहीं, वास्तव में उक्त आदेश तो, पांच विधानसभाओं के चुनाव के संदर्भ में, आदर्श चुनाव संहिता लागू हो चुके होने के बाद आया है। इस संदर्भ में कुछ वरिष्ठ पूर्व-नौकरशाहों ने चुनाव आयोग को पत्र भी लिया है और उससे इस अतिक्रमण को रोकने का भी आग्रह किया है। यह दूसरी बात है कि पिछले करीब दस साल के चुनाव आयोग के रिकार्ड को देखते हुए, इस मामले में उसकी कुंभकर्णी नींद टूटने की शायद ही किसी को उम्मीद होगी।
स्वाभाविक रूप से मुख्य विपक्षी पार्टी, कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों ने सरकारी नौकरशाही के इस सरासर दुरुपयोग पर आपत्ति की है। कांग्रेस के अखिल भारतीय अध्यक्ष, खड्गे ने इस सिलसिले में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर विरोध जताया है और नौकरशाही को इस तरह सत्ताधारी पार्टी के प्रचार के लिए इस्तेमाल नहीं किए जाने की मांग की है। लेकिन, प्रधानमंत्री ने खुद तो विपक्ष के नेता के इस पत्र का जवाब नहीं दिया है, जैसाकि मोदी राज के नौ साल मेें कायदा ही बन चुका है। प्रधानमंत्री को भेजे के गए पत्र का जवाब भाजपा अध्यक्ष, जेपी नड्डा और भाजपा के आइटी सैल के प्रमुख, मालवीय से दिलवाया गया है। यह जवाब, चतुराई से कम और दीदा-दिलेरी से ज्यादा, यही दिखाने की कोशिश करता है कि ‘पिछले नौ वर्षों की उपलब्धियों को शोकेस, सेलिब्रेट करना’ वाकई वैध, बल्कि बहुत ही जरूरी सरकारी कार्य है और उच्चपदस्थ नौकरशाहों को इस काम में लगाना बिल्कुल उचित है। अगर पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था, तो इसलिए कि आम जनता के स्तर तक सरकार की योजनाओं को ले जाने की वैसी कोशिश ही कहां की गयी थी, जैसी कोशिश नरेंद्र मोदी के राज में की जा रही है!
वैसे तो सरकार के सामने उठाए गए सवालों का जवाब, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं तथा प्रवक्ताओं का देना, खुद ही सरकार और सत्ताधारी पार्टी में विभाजन की रेखा के धुंधला किए जाने का ही साक्ष्य है। बहरहाल, इस जवाब में सत्ताधारी पार्टी ने सवा-चतुराई से और बार-बार दोहराकर, यह दिखाने की कोशिश की है कि जैसे दो महीने से ज्यादा का उक्त ‘‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’’ कार्यक्रम, सरकारी योजनाओं व कार्यक्रमों का लाभ आम लोगों तक पहुंचाने का कार्यक्रम है और इसलिए जनहित में बहुत जरूरी है। इस संदर्भ में उनके बयानों में बार-बार, इसके जरिए केंद्र की योजनाओं व कार्यक्रमों का लाभ लोगों तक पहुंचाए जाने का दावा किया गया है और इस सिलसिले में बार-बार कुछ बेढंगे तरीके से ‘‘सैचुरेशन’’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जैसे यह पूरी कवायद गांधी की कल्पना के अनुसार, कतार के आखिरी व्यक्ति तक ‘‘लाभ’’ पहुंचाने के लिए की जा रही हो! लेकिन यह अर्ध-सत्य से असत्य तक का सहारा लिए जाने का ही मामला है, वर्ना यह बिल्कुल साफ है कि उक्त कथित संकल्प यात्रा, अपनी पूरी संकल्पना में, जिसमें कथित ‘‘रथों’’ का उपयोग भी शामिल है, न सिर्फ एक शुद्घ प्रचार कसरत है, बल्कि खास संघ-भाजपा मॉडल की प्रचार कसरत है; जो संयोग ही नहीं है कि बहुत हद तक उनका चुनावी प्रचार का मॉडल ही है। यह सरासर इकतरफा लेन-देन मॉडल है, जिसमें आम लोगों के लिए सिर्फ एक ही जगह है — इस प्रचार के श्रोता या दर्शक यानी तमाशबीन की।
फिर भी यह सरकारी योजनाओं व कार्यक्रमों के प्रचार का ही मामला होता, तब भी गनीमत थी, हालांकि तब भी इससे जनता को कोई लाभ हासिल नहीं हो रहा होता। नरेंद्र मोदी के राज में जिस तरह से हरेक योजना तथा उसके प्रचार को, नरेंद्र मोदी के ब्रांड के प्रचार के साधन में तब्दील कर दिया गया है, उसे देखते हुए यह योजनाओं, कार्यक्रमों तथा उनकी उपलब्धियों के दावों के बहाने, प्रधानमंत्री की छवि के प्रचार-प्रसार का ही मामला हो जाता है। सैन्य संस्थाओं में निर्मित हो रहे ‘मोदी संग सैल्फी’ के पाइंट, इसी का भोंडा प्रदर्शन करते हैं। यानी यह सिर्फ नौ साल की उपलब्धियों के मोदी सरकार के, अतिरंजित से लेकर झूठे दावों तक के प्रचार का भी मामला नहीं है। यह तो सीधे-सीधे सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक प्रचार का और उससे भी बढक़र उसके सर्वोच्च नेता की छवि के प्रचार-प्रसार का ही मामला है। लेकिन, जिस एक नेता की छवि का प्रचार-प्रसार किया जाना है, वह चाहे देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था, इस काम में सरकार को और सरकारी नौकरशाही को जोते जाने की इजाजत हर्गिज नहीं देती है। इस सिलसिले में 1975 में इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित किए जाने के चर्चित प्रकरण की याद दिलाना काफी होगा, जिसके चलते देश को उन्नीस महीने का इमर्जेंसी राज देखना पड़ा था। याद रहे कि इंदिरा गांधी पर, अपने चुनाव प्रचार के लिए, एक सरकारी अधिकारी की मदद लेने का ही आरोप था!
लेकिन, नरेंद्र मोदी के राज में तो मोदी की छवि बनाना और इससे संबंधित प्रचार ही, सत्ताधारी दल तथा उसके समर्थकों का ही नहीं, सरकारी तंत्र तथा नौकरशाही का भी, सबसे बड़ा पुरुषार्थ बना दिया गया है। ठीक इसी उद्देश्य के लिए आयोजित किए जा रहे ‘पिछले नौ वर्षों की उपलब्धियों को शोकेस, सेलिब्रेट’ करने के, चुनाव से ऐन पहले दो महीने लंबे ‘सरकारी’ अभियान के लिए, इस अर्धसत्य और असत्य की ओट लेने में, उन्हें तनिक भी झिझक नहीं हुई है कि यह जनता तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए है। बहरहाल, मोदी की भाजपा को अगर नौ साल बाद भी सरकारी तंंत्र के मनमाने इस्तेमाल के लिए इस तरह अर्ध-सत्य और झूठ की आड़ लेनी पड़ रही है, तो यह भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था व संस्थाओं की मौजूदगी के बावजूद, शासन की मनमानी को रोक पाने में उनकी कमजोरी को भी दिखाता है।
किसी से छुपा नहीं है कि मोदी राज ने कैसे झूठ की आड़ लेकर और चोरी-चोरी, लुक-छिपकर, अपनी तानाशाही को आगे बढ़ाते जाने में, इन नौ वर्षों में खास महारत हासिल कर ली है। चुनाव आयोग समेत विभिन्न संस्थाओं को पूरी तरह काबू में किया जाना और उच्च न्यायापालिका की स्वतंत्रता तक का काफी हद तक अपहरण किया जाना, इसी के संकेतक हैं। ऐसे में नौकरशाही का, सत्ताधारी पार्टी के प्रचार और उससे भी बढक़र प्रधानमंत्री मोदी के छवि निर्माण में जोता जाना तो, मामूली बात है। यह दूसरी बात है कि इतनी नंगई से नौकरशाही का सीधे राजनीतिक इस्तेमाल किए जाने की जरूरत, सत्ताधारी पार्टी की हताशा को तो दिखाती ही है। यूं ही कोई ऐसे बदहवासी के काम नहीं करता, उसके पीछे कुछ तो मजबूरियां होंगी। और सारे आसार इसी के हैं कि आगे-आगे ऐसा करने की मजबूरियां और बढ़ेंगी और यह हताशा भी और बढ़ेगी; झूठ और धोखे के सहारे नियम-कायदों के और अतिक्रमण होंगे।
आलेख: राजेंद्र शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)
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