रायपुर (आदिनिवासी)। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के ऐतिहासिक बूढ़ातालाब का नाम बदलकर ‘स्वामी विवेकानंद सरोवर’ किए जाने का विवाद एक बार फिर गरमा गया है. प्रदेश के आदिवासी समुदाय ने इस मामले पर अपनी गहरी आपत्ति जताते हुए तालाब का पुराना नाम ‘बूढ़ातालाब’ फिर से बहाल करने की मांग उठाई है. यह मांग सिर्फ एक नाम की बहाली नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की आदिवासी अस्मिता, ऐतिहासिक विरासत और सांस्कृतिक गौरव से जुड़ी एक भावनात्मक पुकार है.
क्या है पूरा मामला?
आदिनिवासी गण परिषद, छत्तीसगढ़ के संयोजक बी.एल. नेताम की ओर से मुख्यमंत्री को भेजे गए एक ज्ञापन में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया गया है. ज्ञापन में कहा गया है कि बूढ़ातालाब सिर्फ एक जलाशय नहीं, बल्कि सदियों से आदिवासियों के आराध्य ‘बूढ़ादेव’ की जीवंत उपस्थिति का प्रतीक रहा है. यह तालाब उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का केंद्र बिंदु रहा है, जिससे उनकी गहरी आस्था जुड़ी हुई है.
पूर्व सरकार का फैसला और आदिवासी समाज का विरोध

पिछली सरकार ने इस ऐतिहासिक तालाब का नाम बदलकर ‘स्वामी विवेकानंद सरोवर’ कर दिया था. आदिवासी संगठनों का आरोप है कि यह फैसला लेते समय उनकी भावनाओं और आपत्तियों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया. उनका कहना है कि वे स्वामी विवेकानंद जी का पूरा सम्मान करते हैं, लेकिन एक महापुरुष के नाम पर किसी समुदाय की पूरी पहचान और विरासत को मिटा देना किसी भी लिहाज से उचित नहीं है. इस फैसले से आदिवासी समाज खुद को आहत और अपमानित महसूस कर रहा है.
नाम में क्या रखा है? पहचान का सवाल
आदिवासी समुदाय के लिए ‘बूढ़ातालाब’ सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि उनकी पहचान और अस्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा है. उनका मानना है कि किसी भी स्थान का नाम उसके इतिहास, समुदाय की आत्मा और विरासत का प्रतिबिंब होता है. इस नाम को बदलने का प्रयास उनकी जड़ों पर प्रहार करने जैसा है. छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बहुल प्रदेश है और यहां की अनूठी जनजातीय संस्कृति ही इसकी असली पहचान है. ऐसे में राज्य की इस पहचान का संरक्षण करना सरकार का संवैधानिक और नैतिक दायित्व है.
विश्व आदिवासी दिवस पर नाम वापसी की उम्मीद
आदिवासी समुदाय ने मुख्यमंत्री से आग्रह किया है कि वे 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के मौके पर इस ऐतिहासिक भूल को सुधारें. उन्होंने मांग की है कि इसी दिन ‘स्वामी विवेकानंद सरोवर’ का नाम बदलकर फिर से ‘बूढ़ातालाब’ करने की आधिकारिक घोषणा की जाए, ताकि आदिवासी समाज को उसका खोया हुआ गौरव वापस मिल सके. उनका मानना है कि यह कदम करोड़ों आदिवासियों के आत्म-सम्मान को लौटाएगा और यह साबित करेगा कि सरकार वास्तव में ‘जल-जंगल-जमीन’ के सच्चे संरक्षकों के साथ खड़ी है.
यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार इस संवेदनशील मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है. यह मामला सिर्फ एक तालाब के नामकरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत के सम्मान और आदिवासी समुदाय की भावनाओं से जुड़ा एक बड़ा सवाल है. सरकार का फैसला न केवल इस विवाद का भविष्य तय करेगा, बल्कि प्रदेश में सामाजिक समरसता और विश्वास की भावना को भी प्रभावित करेगा.