बालको की राख से उठती आवाज़: जब ‘विकास’ शोषण की फैक्ट्री बन जाता है
छत्तीसगढ़ की धरती पर एक बार फिर वही सवाल गूंज रहा है — “क्या यह देश कुछ गिने-चुने उद्योगपतियों की जागीर बन चुका है?” वेदांता समूह के अधीन भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बालको) के श्रमिकों का 25 वर्षों से दबा हुआ आक्रोश अब विस्फोट बनकर सामने आया है। उनकी आवाज़ में सिर्फ़ ग़ुस्सा नहीं, बल्कि वह सच्चाई है जिसे सरकारें और कॉर्पोरेट दोनों दशकों से दबाते रहे हैं।
“आप कंपनी के मालिक हैं, देश के नहीं” — एक वाक्य, जो सत्ता के चेहरे पर तमाचा है
जब किसी श्रमिक की ज़ुबान से यह वाक्य निकलता है — “आप कंपनी के मालिक हैं, देश के नहीं” — तो यह केवल असंतोष नहीं, बल्कि सामाजिक अनुबंध के टूट जाने की उद्घोषणा होती है। यह कहने वाला मज़दूर जानता है कि वह मशीन का पुर्जा नहीं, इस राष्ट्र का नागरिक है — और नागरिकता का मतलब केवल वोट डालना नहीं, बल्कि सम्मान से जीना है।
बालको के कर्मचारियों ने यह बात पूरे साहस से कही, और इस वाक्य ने भारतीय लोकतंत्र की खोखली रीढ़ को उजागर कर दिया।
निजीकरण: जब जनता की पूँजी पर चंद हाथों का कब्ज़ा हुआ
वर्ष 2001 में जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने बालको को निजी हाथों में सौंपा, तो इसे “आर्थिक उदारीकरण की उपलब्धि” कहा गया। पर इस सौदे ने छत्तीसगढ़ की असल आत्मा को गिरवी रख दिया।
यह वही बालको था — जो सार्वजनिक क्षेत्र की शान था, जिसने स्थानीय रोज़गार, शिक्षा और सामाजिक विकास की नींव रखी थी। पर निजीकरण के बाद यह “विकास” का केंद्र नहीं, शोषण का प्रयोगशाला बन गया।
अब वही श्रमिक, जिनके पसीने से यह उद्योग खड़ा हुआ था, उन्हें “कीड़े-मकोड़े” कहकर अपमानित किया जा रहा है।
वेदांता का साम्राज्य और “लोकतंत्र की सीमाएं”
वेदांता समूह सिर्फ़ एक कंपनी नहीं, बल्कि भारतीय पूँजीवाद का प्रतीक है — जहाँ लाभ सर्वोपरि है और मानवता एक फुटनोट। बालको से लेकर नॉर्वे, जाम्बिया, नयामगिरी और ओडिशा तक, वेदांता की कहानी हर जगह एक ही है — खनिजों की लूट, समुदायों का विस्थापन और पर्यावरण का विनाश।
अनिल अग्रवाल की दोहरी नागरिकता की बात केवल एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद के उस झूठ का पर्दाफाश है, जो हर चुनाव में मजदूरों और किसानों से “देशभक्ति” की उम्मीद करता है, पर जब उनकी ज़मीन और हक की बात आती है, तो चुप्पी ओढ़ लेता है।
क्या यह विडंबना नहीं कि जिस देश की धरती से अरबों की कमाई हो रही है, वहीं के श्रमिकों को अपने ही संविधान की याद दिलानी पड़ रही है?
श्रम कानून — क़ानून की किताब में, ज़मीन पर नहीं
भारत का संविधान अपने अनुच्छेद 19 और 21 में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। श्रमिक कानून न्यूनतम वेतन, सुरक्षा, और संगठन का अधिकार सुनिश्चित करते हैं। परंतु निजी कंपनियों के गेट के बाहर पहुँचते ही ये सारे अधिकार कागज़ी नैतिकता बन जाते हैं।
पिछले एक दशक में श्रम कानूनों का “संहिताकरण” नाम के तहत जो हुआ, वह असल में श्रमिक अधिकारों का विधिक उन्मूलन था। अब कंपनियों के लिए मज़दूर “मानव संसाधन” हैं, इंसान नहीं। बालको इसका जीवंत उदाहरण है — जहाँ संविधान की जगह कॉर्पोरेट मैनुअल चलता है।
सरकार की चुप्पी — साझेदारी या संलिप्तता?
सरकार का मौन हमेशा अर्थपूर्ण होता है। जब वह बोलती नहीं, तो समझिए कि वह साझेदार है। बालको विवाद पर न केंद्र ने कुछ कहा, न राज्य सरकार ने कोई ठोस कदम उठाया। क्योंकि पूँजी के सामने लोकतंत्र की रीढ़ झुक जाती है।
जब प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक उद्योगपतियों के विमान में उड़ान भरते हों, तो यह उम्मीद करना कि वे मज़दूर की आवाज़ सुनेंगे — एक नैतिक मूर्खता से ज़्यादा कुछ नहीं।
यह संघर्ष केवल वेतन का नहीं, अस्मिता का है
बालको के श्रमिक सिर्फ़ “पगार” नहीं मांग रहे —
वे अपनी इज़्ज़त, अपने अधिकार और अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी बातों में वही आत्मा है जो 67 दिन चले आंदोलन में थी — जो आज भी कोरबा की हवा में गूंजती है।
“हमें मार सकते हैं, पर हमारी आवाज़ नहीं मार सकते” —
यह कथन किसी भाषण का हिस्सा नहीं, बल्कि क्रांति की घोषणा है। यह हर उस इंसान की आवाज़ है जो अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है।
जब राष्ट्र श्रमिक से मुँह मोड़ लेता है
छत्तीसगढ़ में यह आंदोलन केवल बालको के गेट तक सीमित नहीं रहेगा — यह देश के हर उस शहर, हर उस कारखाने की दहलीज़ पर गूंजेगा, जहाँ मज़दूर आज भी कॉन्ट्रैक्ट और कमीशन के बीच जिंदा रहने की जद्दोजहद कर रहा है।
आज बालको का प्रश्न दरअसल भारत का प्रश्न है —
“क्या हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, या पूँजीपतियों की लिमिटेड कंपनी?”
“जब संविधान श्रमिक के हाथ में झंडा बन जाए और पूंजीपति के हाथ में क़ानून — तब लोकतंत्र नहीं, ठेका राज चलता है।”





