शुक्रवार, अप्रैल 18, 2025

लोकतंत्र पर हमला: सेंसरशिप, दमन और विरोध की आवाज़ें दबाने की भाजपा सरकार की रणनीति

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लोकतंत्र का गला घोंटने पर आमादा भाजपा सरकारें

भारत को दुनिया के लोकतंत्र की माँ बताते हुए, असहमतियों का सम्मान करने का दावा करते हुए गाल कितने भी बजाये जाएँ, मगर असलियत में तानाशाही के पैने नाखून संविधान के साथ-साथ उसमें दिए बुनियादी जनतांत्रिक अधिकारों को तार-तार कर देने की जिद ठाने बैठे है। फिल्म हो या यूट्यूब के चैनल, सभा, जलूस हो या कन्वेंशन, हर उस जगह पर बंदिशें थोपी जा रही हैं, जहां से भाजपा और संघ परिवार के एजेंडे के रास्ते में कोई असुविधा, भले वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, उपस्थित होने की संभावना नजर आती हो। 
     
यहाँ पिछले सप्ताह की सिर्फ तीन घटनाओं पर नजर डाल लेते हैं :

11 अप्रैल को जोतिबा फुले के जीवन पर आधारित एक फिल्म रिलीज़ होनी थी ; इस दिन जोतिबा का जन्मदिन भी पड़ता है। सेंसर बोर्ड ने इसे रिलीज़ होने से रोक दिया। उसने इस करीब दो घंटे की फिल्म में कम-से-कम 12 सीन और संवादों को हटाये जाने के निर्देश दिए। इन कटौती में कई ऐसे सीन हटाए गए हैं, जो जाति-आधारित भेदभाव को दिखाते थे, उस अन्याय और अत्याचार को दिखाते थे, जिनके खिलाफ लड़ना और उसे भोगना फुले दंपत्ति की पहचान है।

सेंसर बोर्ड – सीबीएफसी – ने एक डायलॉग भी हटाने को कहा, जिसमें कहा गया था कि “ब्राह्मण शूद्रों को इंसान नहीं मानते” और एक सीन काटने के लिए भी कहा, जिसमें ब्राह्मण बच्चे सावित्रीबाई फुले पर कचरा फेंकते हैं। यह इतिहासकारों द्वारा स्वीकार किया गया एक सच्चा वाकया है। मगर मौजूदा निजाम की कठपुतली बना सेंसर बोर्ड नहीं चाहता कि लोग इस सच को देखें। इसके अलावा, “महार” और “मांग” जैसे जाति-विशिष्ट शब्दों और शिक्षा में ब्राह्मण प्रभाव वाले संवादों को भी हटा दिया गया। इतना ही नहीं, सीबीएफसी ने एक डिस्क्लेमर जोड़ने को भी कहा कि फिल्म किसी समुदाय को ठेस पहुंचाने का इरादा नहीं रखती। सेंसर बोर्ड ने माना है कि उसने यह निर्देश ब्राह्मण संगठनों की लिखित शिकायतों के आधार पर ‘समीक्षा’ करने के बाद दिए है।

लोकप्रिय मलयालम फिल्म एम्पूरन के खिलाफ संघ परिवार की मुहिम इसका एक और रूप है, जो 2002 के गुजरात के नरसंहार की सचाई को ही मिटाने की कोशिश को दिखाता है। इस तरह फिल्मों पर दोतरफा हमला जारी है ; सच को  दिखाने और उससे समाज को शिक्षित होने नहीं दिया जायेगा, वहीँ कश्मीर फाइल्स, केरला फाइल्स और छावा जैसी फिल्मों से झूठ फैलाकर नफरती जहर की खेप-दर-खेप बरसाई जाती रहेगी।

कुणाल कामरा को उनकी व्यंगात्मक टिप्पणियों के लिए रगड़े और खदेड़े जाने की बात अभी पुरानी नहीं पड़ी है – इसमें नया यह हुआ है कि उनके उस शो को देखने वालों को भी पुलिसिया पूछताछ के लिए बुलाया जा रहा है। मतलब यह कि व्यंग सुनाकर हंसाना ही अपराध नहीं है, उस पर हंसने की हिम्मत करना भी अपराध माना जाएगा।

इसी कड़ी में नया कारनामा जुड़ा है यूट्यूबर गिरिजेश वशिष्ठ के चैनल ‘नोकिंग न्यूज़’ को हमेशा के लिए बंद किया जाना। कहने को तो यह यूट्यूब ने किया बताया जाता है, मगर मोडस ऑपरेंडी – करने के तरीके – से साफ हो जाता है कि यह किसका किया-धरा है। पहले उनकी साईट को हैक किया गया, उसके बाद उस पर कुछ कथित रूप से आपत्तिजनक सामग्री अपलोड की गयी। उनके लाख शिकायत करने के बाद भी एक नहीं सुनी गयी और चैनल ही ब्लॉक कर दिया गया।

सारे मीडिया – लगभग सारे ही मीडिया – के खरीदे, बांधे, तोड़े-मरोड़े जाने के बाद इसी तरह के कुछ यूट्यूब चैनल, साइट्स, वेब पोर्टल्स बचे हैं, जो सच दिखाने का जोखिम उठाते हैं। जनता जिन्हें ढूंढ कर देखती है। अब उनकी आवाज को भी घोंटा जा रहा है। गिरिजेश वशिष्ठ एक बानगी है – असम में तो कई पत्रकार जेलों में ही डाले जा चुके हैं। बाकी खबरिया चैनलों की भी खबर लेने की साजिश रची जा चुकी है। इनमें से कुछ अगर आने वाले दिनों में बंद कर दिए जाएँ, तो ताज्जुब नहीं होगा।

जिन्हें फिल्म और मीडिया से डर लगता है, वे मैदानी कार्यवाहियों से कितना घबराते होंगे, यह सहज ही समझा जा सकता है। देश के भाजपा शासित प्रदेशों में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां बिना किसी विघ्न या व्यवधान के इनसे असहमत किसी भी संगठन या समूह की तरफ से किसी भी तरह की गतिविधियां की जा सकें। आंदोलन, धरना, प्रदर्शन और जलूस तो दूर की बात है, सेमीनार, संवाद, यहाँ तक कि गोष्ठियां तक करना मुश्किल बना दिया गया है।

आजादी की लड़ाई के जमाने से हर शहर और इलाके में जनता के इकट्ठा होने और सभाएं करने के जितने भी स्थान थे, वे पहले ही इस या उस बहाने प्रतिबंधित किये जा चुके थे। सार्वजनिक और सामुदायिक कामों के लिए हर शहर, कस्बे में जितने भी सभागार या परिसर थे, वे या तो नष्ट किये जा चुके हैं या फिर कमर्शियल बनाकर इतने महंगे किये जा चुके हैं कि असली जनता के असली संगठनों की पहुँच से ही बाहर हो गए हैं। इसके बाद भी यदि पीड़ित मजदूर-किसान किसी बाग़-बगीचे, किसी के घर के बड़े आँगन या छत पर इकट्ठा होना चाहें, तो वहां भी धारा 144 लगाने के करतब दिखाने से सरकारें बाज नहीं आ रही। 

अभी हाल में मध्यप्रदेश की ट्रेड यूनियनो और कर्मचारी फेडरेशनों के संयुक्त कन्वेंशन के साथ यही हुआ। गांधी भवन के परम्परागत परिसर के एक छोटे से हॉल में रविवार को दो-ढाई घंटे का यह कन्वेंशन होना था – पुलिस प्रशासन ने इसकी अनुमति भी दे रखी थी। मगर शनिवार की रात 12 बजे के करीब अचानक इस अनुमति को निरस्त कर दिया गया। इतना ही नहीं, कन्वेंशन में शामिल होने वाले सभी श्रमिक-कर्मचारी संगठनों के नेताओं को रात में जगा-जगाकर इसकी सूचना दी गयी और एक तरह से चेतावनी भी दी गयी। बहाना यह था कि देश के गृहमंत्री अमित शाह उस दिन कुछ घंटों के लिए पधारने वाले थे।

श्रमिक-कर्मचारी संगठनों द्वारा अमित शाह के काफिले के गुजर जाने तक खुद को कन्वेंशन हॉल में ही स्वेच्छा से कैद रखने की पेशकश भी नहीं मानी गयी कि – इजाजत ही रद्द कर दी गयी । ध्यान रहे यह कन्वेंशन 20 मई को होने वाली देशव्यापी आम हड़ताल  को मध्यप्रदेश में कामयाब बनाने की तैय्यारियों पर चर्चा करने के लिए होने वाला था।

(लेखक: बादल सरोज)

ये तीनों ताज़ी घटनायें तानाशाही की कदमचाल के नव फासीवादी ड्रिल में बदलने के उदाहरण हैं। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर छुपाकर या बिल्ली की तरह आँखें मूंदकर इन खतरों से बचा नहीं जा सकता। सिर्फ सद्भावनाओं से आशंकाओं को टाला नहीं जा सकता।  ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस खतरे से बाखबर करके, पहले की तुलना में कार्यवाहियों की गतिशीलता और बारंबारता को बढाकर और उनमे जनभागीदारी को तेजी के साथ अनेक गुना करते हुए ही इन नव-फासीवादी अंधेरों को पीछे धकेला जा सकता है, क्योंकि सांड को सींग से ही पकड़ा जा सकता है, पूंछ से नहीं।
(लेखक बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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