गुरूवार, नवम्बर 21, 2024

अयोध्या में राजनीति का रामलीला: राम के बहाने एक धर्मांध आयोजन

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सारे अनुमानों, सम्भावनाओं और कुछ धर्मप्राण जनों की उम्मीदों पर लोटा भर ठण्डा पानी डालते हुए अंततः 22 जनवरी के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह की जजमानी का भार खुद मोदी जी ने ही धारण करते हुए इस आयोजन को सचमुच में उस गत; चुनावी राजनीति की दुर्गत- में पहुंचा ही दिया जिसके लिए देश की जनता की खून पसीने की कमाई का हजारों करोड़ रुपया फूंककर इसे एक महा-उत्सव सा बनाने की हर संभव असंभव कोशिशें की गयी थीं।
सोमवार को अयोध्या में जो हुआ उसमे बाकी सब जो भी था वह था धर्म कहीं नहीं था। अधूरे मंदिर के अन्दर और उसके बाहर जो भी हुआ वह धार्मिक आयोजन नहीं था; देश के लिए खतरनाक अंदेशों से भरा और उतने ही अशुभ इरादों से किया गया शुद्ध राजनीतिक कार्यक्रम था। यह बात, जिस धर्म के नाम पर इसे किया गया उसके धर्माचार्य शुरू से ही कह रहे थे।
सनातन धर्म के आधिकारिक प्रतीक और प्रवक्ता माने जाने वाले चारों शंकराचार्यों ने इस अधबने, अपूर्ण और दिव्यांग मंदिर में स्थापित की जाने वाली मूर्ति में की जा रही कथित प्राण प्रतिष्ठा को लेकर धर्मशास्त्रों के हवाले से अनेक सवाल उठाये थे। उन्होंने इसके धर्म सम्मत नहीं बल्कि धर्म विरुद्ध भी होने तक की बात कही थी।

इन सहित जिन्हें भी इस धर्म–हिन्दू धर्मं- में प्रामाणिक माना जाता है ज्यादातर उन सभी ने इसके समय, प्रक्रिया, तरीके आदि इत्यादि को भी अनुचित बताया था। खुद इस आयोजन का मुहूर्त निकलने वाले ज्योतिषी तक ने भी कह दिया था कि मुहूर्त देख तारीख निकाली नहीं गयी है बल्कि महीना बताकर निकलवाई गयी है।
इनमें से किसी ने भी इस समारोह में हिस्सा नहीं लिया और इस तरह अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से भी दर्ज कर दी। बाकी बची खुची इसकी असलियत प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश की राज्यपाल के साथ आरएसएस प्रमुख की उपस्थिति और उनके पहुंचने से भी पहले जा पहुंचे टीवी कैमरों की तैनाती ने उजागर कर दी थी।
कुलमिलाकर यह कि इसका उस धर्म से किसी भी तरह का संबंध नहीं जिसके नाम पर किया जाना इसे बताया गया है। यह हिंदुत्व को प्राण प्रतिष्ठित करने की कोशिश थी– उस हिंदुत्व को जिसके बारे में इस शब्द के जन्मदाता और इस कुनबे का जो भी, जैसा भी विचार है उसके प्रदाता विनायक दामोदर सावरकर कह गए हैं कि “इसका हिन्दू धर्म की धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं के साथ कोई संबंध नहीं है, यह एक राजनीतिक शब्द है जो एक ख़ास तरह की शासन प्रणाली को अभिव्यक्त करता है।“

यह अलग बात है कि इसे साफ़ साफ़ स्वीकार करने की सावरकर जैसी स्पष्टवादिता दिखाने का साहस इस आयोजन के आयोजकों और यजमान किसी में नहीं दिखा।
22 जनवरी को अयोध्या में नई जगह पर नए मंदिर की नहीं नए धर्मं की शुरुआत की गयी है; यह एक ख़ास तरह की राजनीति को आगे ले जाने का धर्म जिसका न अध्यात्म के साथ कोई रिश्ता है, न भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परम्परा के साथ कोई तादात्म्य है, जिसकी न कोई आत्मा है न जिन्हें परमात्मा कहा जाता है उनके साथ ही कोई संबंध है।
धर्म ही नहीं उनके राम भी नए हैं। हमारे राम कहकर जिन्हें असमय ही निर्माणाधीन भवन में विराजमान करने के नाम पर यह तमाशा किया गया है, ये वे राम नहीं हैं जिन्हें धर्म को मानने और न मानने वाला भारतीय समाज अब तक जानता आया है, एक बड़ा हिस्सा उन्हें मानता भी आया है। ये वाल्मीकि, तुलसी, जैन और बौद्ध रामायणों सहित अनेक भाषाओं में लिखे गए साहित्य में रचे और चित्रित किये गए राम नहीं हैं।
ये वे राम हैं जिन्हें अभी कुछ महीनों बाद होने वाला चुनाव जीतने के लिए और उसके बाद, उनके नाम पर एक ऐसा सामाजिक ढांचा खड़ा करने के लिए गढ़ा गया है जो कैसा होगा इसे इन राम को गढ़ने वाले अपने कामों से लगातार बताते रहते हैं।
इस आयोजन के ठीक दो दिन पहले हत्या और बलात्कार के अपराधी गुरमीत राम रहीम की एक बार फिर पैरोल पर रिहाई और उसी जैसे आसाराम के साथ इस कुनबे के बड़े बड़े नेताओं के करीबी रिश्तों की वीडियो दर्ज गवाही और सुप्रीम कोर्ट द्वारा रिहाई रद्द किये जाने के बाद 11 बलात्कारी हत्यारों की गुजरात की जेल में वापसी की ताजी घटनाएं उस कथित राम-राज का जायजा देने के लिए काफी हैं, जिसका दंभ भरा जा रहा है। ये भाजपा और संघ के राम हैं।

इस आयोजन के बाद दिए भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बार बार दोहराए गए “देव से देश,  राम से राष्ट्र” के शब्दयुग्म के साथ कहे गए राम राज से राष्ट्र काज का नमूना है। यह मौजूदा निजाम के उस “समर्थ, सक्षम, भव्य, दिव्य भारत” की बानगी है जिसे उन्होंने इस अधबने मन्दिर के परिसर को चुनावी मंच बनाकर “परम्परा की पवित्रता, आधुनिकता की अनंतता” के खोखले वाक्यों से ढांकने की कोशिश की।
फिल्म अभिनेता, अभिनेत्रियों, गायकों के जमावड़े को जुटाने पर विशेष “जोर” देते हुए अनेक सेलेब्रिटीज को इकट्ठा किया जाना और उन्हें मीडिया कवरेज में दिखाया जाना इस इवेंट के आयोजकों के मार्केटिंग कौशल की ही नहीं उनकी घबराहट की भी चुगली खाता है।
उनके मन में अभी भी आशंका है कि अपनी सारी सरकारों को झोंकने, कई हजार करोड़ रुपये फूंकने के बावजूद कहीं भारत की जनता धर्म की आड़ में की जा रही इस राजनीति को पहचान न ले, कहीं सारी कसरत बीस वर्ष पहले की शाइनिंग इंडिया की तरह उलटी न पड़ जाए।

22 जनवरी के इस महाप्रचारित कथित राष्ट्र गौरव के तथाकथित समारोह में संप्रभु, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का एक फ्रेम दिखना सचमुच भारतीय राजनीति में एक नए चरण की शुरुआत है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 2014 में संघ प्रमुख के दशहरा भाषण को सरकारी टीवी पर लाइव प्रसारित किये जाने से शुरू हुआ सिलसिला अब उनके प्रधानमंत्री के साथ विशिष्टतम अतिथि बनने तक आ पहुंचा है।
लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता की गारंटी देने वाले संघीय और समावेशी संविधान वाले देश में यह फोटो फ्रेम असाधारण है; सिर्फ इसलिए नहीं कि यह वह संगठन है जो अपनी कारगुजारियों के चलते एकाधिक बार प्रतिबंधित हो चुका है, सिर्फ इसलिए भी नहीं कि यह भारत दैट इज इंडिया की अवधारणा का विलोम है बल्कि इसलिए भी कि संघ की घोषित नीति इन छहों- लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता, संघवाद, सर्वसमावेशिता और खुद संविधान के नकार की है।
लोकतंत्र उनके हिसाब से मुंड गणना है इसलिए त्याज्य है, धर्मनिरपेक्षता तो सुनना भी उन्हें अस्वीकार है, समानता और संघीय ढांचा उनके हिसाब से अभारतीय है और संविधान एक पाश्चात्य अवधारणा है। इन सबको खत्म करके एक धर्माधारित राष्ट्र बनाना उनका परम उद्देश्य है। जिसके आधार पर वे राष्ट्र बनाना चाहते हैं वह धर्म भी उनके द्वारा स्थापित एक नया ही धर्म होगा– अयोध्या में 22 जनवरी को इसी नए धर्म की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही थी।

इस आयोजन में सरसंघचालक की उपस्थिति न अनायास थी न अकारण थी। यह इस पूरी परियोजना का हिस्सा है- वे एक अनिर्वाचित, अंसवैधानिक व्यक्ति हैं, यदि प्रधानमंत्री इस आयोजन को पूरी तरह सरकारी रूप देना चाहते थे तो यूपी की राज्यपाल और मुख्यमंत्री के युग्म की तर्ज पर उनके साथ भारत की राष्ट्रपति को होना चाहिए था।
मगर वे जब अपनी संसद के उदघाटन में नहीं बुलाई गयीं और उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति उस संसद के शिलान्यास में नहीं न्यौते गए तो इस आयोजन में उनके बुलाये जाने पर तो विचार भी नहीं हुआ होगा।मोहन भागवत धर्माचार्य भी नहीं हैं, सो इस नाते भी वे वहां नहीं थे। फिर वे किस आधार पर वहां थे?
यह संघ का राज व्यवस्था में प्रतिष्ठित किये जाने का प्रयोजन था- राम की सार्वदेशिक स्वीकार्यता के बहाने यह आरएसएस को प्रतिष्ठापित किये जाने की कोशिश थी; यह संघ के उस एजेंडे को आगे बढ़ाना था जिसके अनुसार वह राजा- यहां प्रधानमंत्री- के ऊपर एक राजगुरु की हैसियत हासिल करना चाहते हैं।
इसके साथ मोदी “देव से देश– राम से राष्ट्र” के नारे से राम राज से राष्ट्र काज की दुहाई के साथ इसकी झांकी भी प्रस्तुत कर रहे थे। प्रजा को हनुमान से समर्पण और सेवा, निषाद और शबरी से अधीनता भाव, गिलहरी से कर्म प्रधानता और जटायु से कर्तव्य परायणता की पराकाष्ठा सीखने की सलाह दे रहे थे। भूल कर भी उन्होंने लोभ, लालच, शोषण या संग्रह से बचने की बात नहीं की और इस तरह उन्होंने सामने बैठे अम्बानी सरीखे नव-प्रभुओं और देश दुनिया के उन जैसों को निश्चिन्त तथा आश्वस्त भी कर दिया।
यह अब तक के नारे “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” को “सबका मंदिर सबके राम” से प्रस्थापित करना भर नहीं था। यह पूरी ढीठता के साथ खुलेआम संविधान की अवज्ञा, अवहेलना और उल्लंघन का काम था।

जो संविधान कड़ाई के साथ राज्य और धर्म को अलग अलग रहने का प्रावधान करता है, किसी भी धर्म विशेष को राज्य द्वारा प्रश्रय देने की सख्त मनाही करता है, उस संविधान की शपथ लेकर उसकी रक्षा करने, उसे लागू करने की जिम्मेदारी वाले संवैधानिक पद पर बैठा प्रधानमंत्री ही उस संविधान की धज्जियां उड़ा रहा था और देव से देश के नारे के रूप में एक देश एक देव और राम राज से राष्ट्र काज का एलान कर रहा था।
इस सबको अधूरे सच– जो असत्य से ज्यादा खतरनाक होता है– से ढांपने की चतुराई दिखाई जा रही थी और इसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत किया जा रहा निर्माण बताया जा रहा था; यह बात छुपाई जा रही थी कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने अपने उसी अन्यथा अवांछनीय और अजीबीगारीब फैसले में कहा था कि 22-23 दिसंबर की आधी रात में वहां कोई मूर्ति प्रकट नहीं हुयी थी, उसे षडयंत्रपूर्वक रखा गया था। कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना एक आपराधिक काम था। और यह भी कि जहां मस्जिद थी वहां उससे पहले किसी मंदिर के होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं।
खैरियत की बात रही कि सारी ताकत झोकने के बाद वे– कम से कम अभी तक तो– वे देश भर में उस तरह का उन्माद नहीं उभार पाए हैं। शायद यही वजह थी कि अमिताभ बच्चन से लेकर आलिया भट्ट, रजनीकांत से लेकर माधुरी दीक्षित, सचिन तेंदुलकर से लेकर अनिल कुंबले तक सेलेब्रिटीज की मार भीड़ लगाई गयी थी।

कोरियाई रानी सहित 55 देशों के राष्ट्राध्यक्ष न्यौते गए थे– आया एक भी नहीं। इसके पीछे व्यापक स्वीकार्यता की चाह और प्रचार की आकांक्षा दोनी थीं; मगर देश भर में ताने गए ज्यादातर पंडाल खाली ही रहे, भीड़ की कमी डीजे के कानफाडू शोर से पूरा करने की कोशिशें भी काम आती नहीं दिखीं।
बहरहाल इससे खतरे कम नहीं हो जाते– 1995 में अफवाह फैलाकर 21 सितम्बर को पूरे भारत और 22 सितम्बर को बाकी देशों में बसे भारतीयों से गणेश प्रतिमाओं को दूध पिलवाकर उन्हें दुनिया भर में हास्यास्पद बना देने वाला गिरोह अब प्रधानमंत्री के साथ एक फ्रेम में है। उनकी क्षमताओं को कम करके आंकना खतरे की अनदेखी करना होगा।
इस पूरे तामझाम में जिसने अपनी पहले से ही अप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठा में उछाल मारकर बढ़त बनाई है वह भारतीय मीडिया है। बिना कोई भी सवाल उठाये पूरे भक्तिभाव के साथ कथित संस्कृति की गटर गंगा में उसने इस बार जितनी गहरी डुबकी लगाई हैं उनका हिसाब लगाना मुश्किल है।
जो मीडिया 1992 की 6 दिसंबर के बाद मस्जिद ढहाने के कृत्य को अपराध और कलंक और वह सब कुछ बता रहा था जो वह था- वही मीडिया धर्म और राज्यसत्ता के इस असंवैधानिक मेल पर, भारत को हिन्दू पाकिस्तान बनाने की दिशा में धकेले जाने पर हुक्मरानों की ताल से ताल मिला रहा था ।

द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अंग्रेजी के अखबार भी मुख्य बिंदु से कतराते हुए और राजा का बाजा बजाते हुए ही नजर आये। जिन्हें खुद को साम्प्रदायिकता के साथ नत्थी दिखने में शर्म आती थी मीडिया के वे हिस्से भी धर्म और राम और उसके प्रति कथित जन समर्थन की पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने के इच्छुकों की लाइन में सर नवाकर खड़े दिखे।
प्रधानमंत्री की तरह चश्मा और रेनकोट पहन कर नहाने और लाइफ जैकेट पहन कर लक्षदीप के अरब सागर में डुबकी लगाने जैसा आवरण धारण करने की भी जरूरत नहीं समझी।

यह मौजूदा शासक वर्ग का सुनियोजित हमला है। इसका मुकाबला करने का एक ही तरीका है जनता के बीच सच को ले जाना और जिन ज्वलंत सवालों को दबाने, उनसे ध्यान भटकाने के लिए यह सब किया जा रहा है, उनको और अधिक जोरदारी के साथ उठाना।
देश के किसान मजदूर संगठनों ने यह बीड़ा पहले से ही उठाया हुआ है; 26 जनवरी को एक बार फिर देश ने ट्रेक्टर मार्च देखा, जिसमें इस मर्तबा मजदूरों की गाड़ियां भी शामिल दिखीं। बात यहीं तक रुकेगी नहीं, वह फरवरी की 16 तारीख के विराट प्रतिरोध, ग्रामीण और औद्योगिक हड़ताल तक जायेगी।
जिन भारतीयों के पुरखों ने संविधान और उसमे वर्णित भारत की अवधारणा गढ़ी है। आजादी आन्दोलन में की गयी कुर्बानियों की कलम से लिखी है, यह तय है कि वे उसे इस तरह भेडियों द्वारा चीथा जाना स्वीकार नहीं करने वाले हैं। (आलेख : बादल सरोज)

(लेखक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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