मंगलवार, दिसम्बर 3, 2024

फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध आजादी और लोकतंत्र की संस्कृति के लिए

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कुछ बुद्धिजीवियों के मन में अभी भी संशय है कि भारत की मौजूदा सामाजिक राजनीतिक संकट को फासीवाद कहा जा सकता है या नहीं। इधर सर्वोच्च न्यायालय ने एक के बाद एक कई फैसलों में नागरिक आजादियों के खिलाफ राजकीय दमन के अधिकार को मान्यता देकर ऐसे भोले संदेशों को निर्मूल करने की कोशिश की है। ये आजादियां कठिन संघर्ष और अनगिनत बलिदानों से हासिल की गई थी।

हमने अयोध्या मामले में देखा कि सुप्रीम कोर्ट ने कथित आस्था के आधार पर बाबरी मस्जिद शहीद करने वाले हिंदूवादी फासीवादी नेताओं को दोषी ठहराने से इंकार कर दिया। यह मानते हुए भी कि मस्जिद का विध्वंस घोर आपराधिक कृत्य था और वहां किसी राम मंदिर के होने के कोई सबूत नहीं है, कोर्ट ने उन्हीं अपराधियों को उनकी कब्जाई जमीन मंदिर बनाने के लिए दे दी। दूसरी तरफ इसी कोर्ट ने धारा 370 और नागरिकता कानूनों के मुद्दों पर जनता की व्यापक अपीलों के बावजूद सरकार की असंवैधानिक कार्रवाइयों पर रोक नहीं लगाई।

जकिया जाफरी मामले में जनसंहार पीड़िता की जांच कराने की मांग को ठुकराते हुए कोर्ट ने उल्टे उनकी सहयोगी याचिका कार तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ सरकार को पुलिस कार्रवाई करने का अधिकार बिन मांगे दे दिया। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जनसंहार की जांच की याचिका देने वाले हिमांशु कुमार पर भी सुप्रीम कोर्ट ने भारी जुर्माना लगाया है। जुर्माना न देने पर गिरफ्तारी का आदेश है। गांधीवादी हिमांशु कुमार ने इस अन्यायपूर्ण जुर्माने को अदा करने से इनकार कर दिया है।

यह सच है कि फेक न्यूज़ के खिलाफ अभियान चलाने वाले पत्रकार मोहम्मद जुबेर की अवैध गिरफ्तारी जैसे एक आध मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुरूप फैसला दिया है लेकिन ऐसे मामले अपवाद होते जा रहे हैं और ज्यादातर फैसले सरकार परस्ती के तहत लिए जा रहे हैं।भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में भिड़े और एकबोटे जैसे असली दंगाई खुलेआम घूम रहे हैं। जबकि दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले आनंद तेल तुम्बड़े और गौतम नवलखा जैसे लब्धप्रतिष्ठ लेखक कर्मकर्ता बनावट सबूतों के आधार पर यूएपीए के तहत सालों से जेल में बंद हैं।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी लठैत की तरह काम कर रहे प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को बिना आरोप बताए किसी के भी घर छापा मारने और उसे गिरफ्तार करने के अधिकार की पुष्टि कर दी है। विपक्ष का आरोप है कि ईडी धन शोधन के मामलों की जांच करने की जगह अपने असीमित दमनकारी अधिकारों का उपयोग विपक्षी सरकारों को ध्वस्त करने और असहमत आवाजों को चुप करने के लिए कर रही है।

पिछले कुछ सालों में पनामा पेपर से लेकर पंडोरा पेपर तक भ्रष्टाचार से हासिल की गई अकल्पनीय धनराशि को विदेशों में खपाने बैंकों से भारी मात्रा में अवैध कर्ज लेकर विदेश भाग जाने के मामले एक के बाद एक सामने आते गए हैं। इन घोटालों में सत्ता संपन्न वर्गों से जुड़े हजारों बड़े बड़े नाम सामने आए हैं। स्विस बैंकों में हिंदुस्तानियों के द्वारा जमा किया गया काला धन 14 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है- 30 हजार 500 करोड़। इन सभी मामलों में अपराधियों के खिलाफ कोई गंभीर कदम नहीं उठाए गए हैं। स्पष्ट है कि सरकार भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की जगह उसे प्रोत्साहित करने में लगी हुई है।

इसका सबसे बड़ा सबूत गोपनीय इलेक्टरल बॉन्ड्स के जरिए बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा दिए जा रहे गुप्त चंदे की व्यवस्था को बनाए रखना है। इसी चंदे से भारतीय जनता पार्टी मानवता के इतिहास की दुनिया के सबसे अमीर पार्टी बन चुकी है। देश भले कंगाल होता गया हो। भाजपा की मोहल्ला समितियां और उनके पन्ना प्रमुख तक मालामाल होते गए हैं लेकिन ईडी ने इन मामलों में हस्तक्षेप करने की कोई कोशिश नहीं की।

फासीवाद का सबसे बड़ा लक्षण कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका का एक गठबंधन के रूप में काम करने लगना है। लोकतंत्र में इन तीनों के अलगाव और इनकी स्वायत्तता पर इसलिए जोर दिया जाता है कि कोई एक समूह राजसत्ता का दुरुपयोग न कर सके। तीनों निकाय एक दूसरे पर नजर रखने और एक दूसरे को नियंत्रित करने का कार्य करें। इस व्यवस्था के बिना एक व्यक्ति और एक गुट की निरंकुश तानाशाही से बचना नामुमकिन है।

भारत में फासीवाद के सभी जाने पहचाने लक्षण प्रबल रूप से दिखाई दे रहे हैं। एक व्यक्ति की तानाशाही और व्यक्ति पूजा का व्यापक प्रचार मुख्य धार्मिक अल्पसंख्यक समूह के विरुद्ध नफरत हिंसा और अपमान का अटूट सिलसिला अल्पसंख्यकों के खिलाफ अधिकतम हिंसा के पक्ष में जनता के व्यापक हिस्सों का जुनून। विपक्ष की बढ़ती हुई असहायता। स्वतंत्र आवाजों का क्रूर दमन। दमन के कानूनी और गैरकानूनी रूपों का विस्तार। मजदूरों और किसानों के अधिकारों में जबरदस्त कटौती। आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के सम्मान के संघर्षों का पीछे धकेला जाना। शिक्षा पर भगवा नियंत्रण। छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का विलोपन। फासीवादी प्रचार के लिए साहित्य चित्रकला मूर्तिकला सिनेमा और दीगर कला-विधाओं के नियंत्रण और विरूपण को राज्य की ओर से दिया जा रहा संरक्षण और प्रोत्साहन।

अभी भी कुछ लोग भारत में फासीवादी निजाम से सिर्फ इसलिए इंकार करते हैं कि इस देश में गैस चैंबर स्थापित नहीं किए गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि फासीवाद ने भी अपने अतीत से बहुत कुछ सीखा है। उसने समझ लिया है कि भौतिक गैस चेंबर से कहीं अधिक असरदार और स्थाई व्यवस्था है देश के भीतर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक गैस चेंबरों का विस्तार। लगभग समूचे देश को एक ऐसे सांस्कृतिक गैस चेंबर में बदल दिया गया है जिसमें एक व्यक्ति और एक विचारधारा की गुलामी से इनकार करने वाले स्वतंत्रचेता जन अपने जीवित होने का कोई मतलब ही निकाल ना सकें।

फासीवाद की मुख्य जीवनी और शक्ति नफरत की भावना है। हमारे देश में वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा के कारण अपने ही जैसे दूसरे मनुष्यों से तीव्र नफरत का संस्कार हजारों वर्षों से फलता फूलता रहा है। वोट तंत्र ने इस नफरत को उसी की चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। भारतीय फासीवाद नफरत के इस चारों ओर फैले खौलते हुए समंदर से उपजे धन घमंड के रूप में अपने को स्थापित कर चुका है।

लेकिन यह समय उदास होने या निराशा में डूब जाने का नहीं है। जैसे फासीवाद ने अपने इतिहास से सीखा है। वैसे ही प्रतिरोध की शक्तियों को भी अतीत के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए।फासीवाद केवल अल्पसंख्यकों को ही नहीं कमोवेश सभी नागरिकों को पीड़ित और तबाह करता है। भले ही भक्तजन खुद अपनी बर्बादी को ना देख सकें।

आज एक ऐसे प्रबल सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन की जरूरत है जो जनसाधारण को उनकी अपनी ही यातना और हमारे देश के ऊपर टूट रही महा विपत्ति के बारे में जागरूक कर सके।जो एक तरफ तो लोगों को उनके वास्तविक दुखों के प्रति सचेत कर सके और दूसरी तरफ उन्हें राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के महान प्रयत्न के साथ एकजुट कर सके। एक ऐसे महान राष्ट्र के सपने को जीवित करने की जरूरत है जो बुद्ध, कबीर, अंदाल, मीरा, मोइनुद्दीन चिश्ती, अंबेडकर, पेरियार, गांधी, भगत सिंह, प्रेमचंद और फैज़ अहमद फैज के सत्य, न्याय, क्रांति और प्रीति के आदर्शों से स्पंदित हो। निरंकुश निजीकरण पर रोक तथा शिक्षा और स्वास्थ्य की क्षेत्रों के संपूर्ण राष्ट्रीयकरण के बिना यह सपना पूरा नहीं हो सकता। अब जन संस्कृति मंच का 16 वां राष्ट्रीय सम्मेलन इसी उद्देश्य से देश भर की सांस्कृतिक शक्तियों को एकजुट करने का संकल्प लेता है। हम सभी से इस मुहिम में शरीक होने और इसकी सदारत करने के लिए आगे आने की अपील करते हैं।

-जन संस्कृति मंच

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