शुक्रवार, जुलाई 4, 2025

इलाहाबाद HC में यूपी के स्कूलों में रामायण-वेद कार्यशाला अनिवार्य करने के खिलाफ PIL: संविधान, धर्मनिरपेक्षता और समानता का गहरा सवाल

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लखनऊ (आदिनिवासी)। उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान रामायण और वेद पर आधारित कार्यशालाओं को अनिवार्य रूप से आयोजित करने के राज्य सरकार के दो आदेशों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से चुनौती दी गई है। यह याचिका शिक्षा के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है, जिसने शिक्षा जगत और सामाजिक हल्कों में नई बहस छेड़ दी है।

देवरिया निवासी डॉ. चतुरानन ओझा द्वारा दायर की गई इस याचिका में आरोप लगाया गया है कि ये सरकारी आदेश भारतीय संविधान की मूल भावना के विपरीत हैं और सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में धार्मिक भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। याचिकाकर्ता का दावा है कि इन कार्यशालाओं को अनिवार्य करना न केवल संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि समाज में जातिगत और लैंगिक असमानताओं को भी पोषित कर सकता है।

क्या हैं वे सरकारी आदेश?
याचिका के अनुसार, इस पूरे विवाद की जड़ दो सरकारी आदेश हैं:
– 05 मई 2025 का आदेश: अयोध्या स्थित अंतरराष्ट्रीय रामायण एवं वैदिक शोध संस्थान (जो संस्कृति विभाग, उत्तर प्रदेश के अधीन है) ने सभी 75 जिलों के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियों को एक निर्देश जारी किया। इसमें कहा गया था कि स्कूलों में 5 से 10 दिनों की ग्रीष्मकालीन कार्यशालाएं आयोजित की जाएं, जिनमें रामलीला मंचन, रामचरितमानस का गायन-वाचन, चित्रकला, मिट्टी मॉडलिंग, मुखौटा निर्माण और वैदिक गान जैसी गतिविधियां शामिल हों।
– 08 मई 2025 का आदेश: महराजगंज के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उपरोक्त आदेश का अनुसरण करते हुए सभी खंड शिक्षा अधिकारियों को इन कार्यशालाओं के लिए आवश्यक प्रबंधकीय सहयोग सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि ये आदेश प्रशासनिक रूप से भी त्रुटिपूर्ण हैं, क्योंकि संस्कृति विभाग का संस्थान सीधे शिक्षा विभाग के अधिकारियों को अनिवार्य निर्देश जारी कर रहा है, जो प्रशासनिक नियमों के विरुद्ध है।

संविधान और धर्मनिरपेक्षता पर सवाल
जनहित याचिका में इन आदेशों को कई संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन बताया गया है।
– धर्मनिरपेक्षता का हनन (अनुच्छेद 28(1)): भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को अपनी एक मूल विशेषता मानता है (एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994)। याचिकाकर्ता का कहना है कि सरकारी स्कूलों में रामायण और वेद जैसे विशिष्ट धार्मिक ग्रंथों को अनिवार्य करना एक विशेष धर्म को बढ़ावा देना है, जो अनुच्छेद 28(1) का सीधा उल्लंघन है। यह अनुच्छेद राज्य द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में किसी भी धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाता है। अरुणा रॉय बनाम भारत संघ (2002) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन को धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में स्वीकार्य माना था, लेकिन किसी एक धर्म को थोपने या बढ़ावा देने को नहीं।

– समानता और गैर-भेदभाव का उल्लंघन (अनुच्छेद 14, 15, 17): याचिका में रामायण के कुछ विवादास्पद छंदों का उल्लेख किया गया है, जैसे “ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी”। याचिकाकर्ता का तर्क है कि ऐसे छंद शूद्रों और महिलाओं के प्रति अपमानजनक हैं और इन्हें स्कूलों में बढ़ावा देना संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध), और अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) का गंभीर उल्लंघन है। यह सामाजिक समानता और न्याय के संवैधानिक लक्ष्य को कमजोर करता है।

– वैज्ञानिक दृष्टिकोण की उपेक्षा (अनुच्छेद 51A(h)): संविधान प्रत्येक नागरिक से वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और सुधार की भावना को बढ़ावा देने की अपेक्षा करता है। याचिका में कहा गया है कि धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों को अनिवार्य प्राथमिकता देना बच्चों में तर्कसंगत सोच और वैज्ञानिक जांच की प्रवृत्ति को हतोत्साहित कर सकता है। संतोष कुमार बनाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय (1994) में सुप्रीम कोर्ट ने भी शिक्षा को वैज्ञानिक और तर्कसंगत दृष्टिकोण को बढ़ावा देने पर जोर दिया था।

– अल्पसंख्यक अधिकारों का हनन (अनुच्छेद 29, 30): संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति और शैक्षिक स्वायत्तता की रक्षा का अधिकार देते हैं। याचिकाकर्ता का तर्क है कि रामायण और वेद पर आधारित कार्यशालाओं को अनिवार्य करना मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों पर हिंदू-केंद्रित संस्कृति थोपना है, जो उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है (सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य, 1974)।

– सार्वजनिक धन का दुरुपयोग (अनुच्छेद 27): याचिका में यह भी कहा गया है कि इन कार्यशालाओं के आयोजन में करदाताओं के धन का उपयोग किया जाएगा, जो किसी विशेष धर्म को बढ़ावा देने के लिए सरकारी धन के उपयोग पर रोक लगाने वाले अनुच्छेद 27 का उल्लंघन है (प्रफुल्ल गोराडिया बनाम भारत संघ, 2011)।
लाखों छात्रों के भविष्य का सवाल
यह जनहित याचिका केवल कानूनी दांवपेंच तक सीमित नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश के लाखों बच्चों के भविष्य और राज्य के सामाजिक ताने-बाने से जुड़ा एक संवेदनशील मामला है। इन सरकारी स्कूलों में विभिन्न धर्मों, जातियों और पृष्ठभूमियों के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं। याचिकाकर्ता की चिंता है कि ऐसे आदेश सामाजिक विभाजन को बढ़ा सकते हैं और शिक्षा के उस मूल उद्देश्य को कमजोर कर सकते हैं जो बच्चों में सहिष्णुता, विविधता के प्रति सम्मान और समावेशिता की भावना पैदा करता है।

क्या हैं याचिका की मांगें?
याचिका में इलाहाबाद उच्च न्यायालय से निम्नलिखित राहतें मांगी गई हैं:
– 05 मई 2025 और 08 मई 2025 को जारी किए गए संबंधित सरकारी आदेशों को तत्काल रद्द किया जाए।
– राज्य सरकार और शिक्षा विभाग को यह निर्देश दिया जाए कि वे स्कूलों में किसी विशिष्ट धार्मिक ग्रंथ या परंपरा को अनिवार्य रूप से बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों का आयोजन न करें।
– सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक बनाने के लिए उचित निर्देश जारी किए जाएं।

यह मामला इस बात पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय बहस छेड़ता है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में सार्वजनिक शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए। क्या इसे सभी के लिए एक समान और समावेशी मंच प्रदान करना चाहिए, या किसी एक सांस्कृतिक या धार्मिक पहचान को वरीयता देनी चाहिए? इस याचिका पर उच्च न्यायालय का फैसला उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में सार्वजनिक शिक्षा के भविष्य की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह मामला संविधान द्वारा प्रदत्त समानता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल अधिकारों की रक्षा के लिए एक सामूहिक जिम्मेदारी का भी आह्वान करता है।
(याचिकाकर्ता: डॉ. चतुरानन ओझा, देवरिया, अधिवक्ता: राकेश कुमार गुप्ता, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद)

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