हरेली के एक महीने बाद भाद्रपद अमावस्या को मनाया जाता है पोरा पर्व, बच्चों को दी जाती है पारंपरिक शिक्षा
छत्तीसगढ़, जिसे ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है, यहां की लोकसंस्कृति में पोरा तिहार का विशेष स्थान है। इस पर्व को ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है, जो नई पीढ़ी को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाने का एक अनूठा अवसर है।
पोरा तिहार पर मिट्टी के खिलौनों का महत्व है। इस दिन बच्चों को मिट्टी के बने खिलौने, जैसे लड़कों के लिए बैल, हल और लड़कियों के लिए चूल्हा-चौका, बर्तन, दिया जाता है। इसका उद्देश्य बच्चों को बचपन से ही कृषि और गृहस्थी की जिम्मेदारियों का ज्ञान देना है। लड़कों को खेती और पशुपालन की भूमिका समझाने और लड़कियों को घर-परिवार संभालने का बोध कराने के लिए ये एक अद्भुत परंपरा है।
पोरा की धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता
पोरा का अर्थ है ‘पोर फूटना’ अर्थात् धान की फसल में गर्भाधान की अवस्था। यह पर्व धान के पौधों में दानों के आने की खुशी का प्रतीक है। इस दिन गांव के बइगा (पुजारी) मंदिरों की सफाई करके मिट्टी के बैल, घोड़े या हाथी अर्पित करते हैं। पोरा की पहली रात को गर्भही पूजा की जाती है और यही से धान की गर्भाधान अवस्था का उत्सव आरंभ होता है।
एकता, भाईचारे और मेलजोल का पर्व
पोरा के अवसर पर ग्रामीणों द्वारा विविध पकवान बनाए जाते हैं और सभी एक-दूसरे को आमंत्रित कर आपसी प्रेम और सौहार्द्र का परिचय देते हैं। यह पर्व सामूहिकता और भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है, जो आज भी गांवों में पर्वों के समय देखने को मिलता है।
ग्रामीण खेल और गीत-संगीत का आयोजन
पोरा के दिन दोपहर बाद गाँव के सभी बच्चे और किशोर अपनी टोली बनाकर उत्साह से खेल खेलते हैं। महिलाएं सुवा, ददरिया, करमा जैसे पारंपरिक गीत गाती हैं और पुरुष वर्ग डंडा नाच की शुरुआत करता है। गाँव में चारों ओर गीतों की मधुर ध्वनि, नृत्य और डंडों की टकराहट की आवाजें गूंजती हैं, जो मानो समस्त खुशियों को गाँव में समेट देती हैं।
पोरा के बाद नारबोद का आयोजन
पोरा के दूसरे दिन ‘नारबोद’ मनाया जाता है, जिसमें गेंड़ी खेलने की परंपरा निभाई जाती है। यह खेल गाँव के बाहर जाकर विशेष पूजा के साथ समाप्त किया जाता है, जिसे ‘गेंड़ी सरोना’ कहा जाता है। यह रस्म गांव की सीमा के पार बुरी नजर से रक्षा की कामना के साथ की जाती है। साथ ही बच्चों के नाम की गाँठ बाँधकर उसे गाँव की सीमा के बाहर छोड़ देते हैं ताकि किसी भी बुरी शक्ति का प्रभाव गांव पर ना हो।
घर और खेतों की रक्षा के लिए विशिष्ट परंपरा
नारबोद के दिन गांव वाले जंगल से भेलवा और दशमूल के कांटेदार पौधे लाकर घर के मुख्य द्वार पर खोंच देते हैं। यह परंपरा इस मान्यता के साथ निभाई जाती है कि इससे किसी भी प्रकार की बुरी नजर और टोना-टोटका का प्रभाव घर और खेतों पर नहीं पड़ता।
छत्तीसगढ़ का अनमोल सांस्कृतिक धरोहर
छत्तीसगढ़ का यह पारंपरिक पोरा तिहार सिर्फ एक पर्व नहीं बल्कि यहां की कृषि आधारित जीवनशैली और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। यह हमें गांवों में अभी भी व्याप्त परंपराओं, एकता और भाईचारे की भावना से रूबरू कराता है।
– ठाकुर विष्णुदेव सिंह पडोटी