संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्वर और रागों का एक ख़ास विधान है। स्वर की नियमित आवाज को उसकी निर्धारित तीव्रता से नीचा उतारने पर वह कोमल हो जाता है, थोड़ा ऊंचा उठाने पर वह तीव्र हो जाता है। एक साथ एक ही समय इन दोनों तरह के स्वरों की जुगलबंदी संगीत में बहुत कठिन मानी जाती है। यह श्रोता को रसास्वादन कराने की बजाय उसे भ्रम और मुगालते में डाल देती है। संघ परिवार इन दिनों इसी तरह की बेमेल जुगलबंदी में लगा हुआ है।
अभी हाल में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में प्रधानमंत्री मोदी कोमल स्वर में राग गाते नजर आये। उन्होंने फिल्मो पर बयानबाजी करने वाले अपनी ही पार्टी के नेताओं और खासतौर से मध्यप्रदेश के उस गृहमंत्री को फटकारा, जो चौबीस घंटा सातों दिन मुम्बईया फिल्मों के प्रोमो और अभिनेत्रियों के परिधानों को ही निहारता बैठा रहता है। मोदी जी ने कहा, “एक नेता हैं, जो फिल्मों पर बयान देते रहते हैं, उनके बयान टीवी पर चलते रहते हैं। उन्हें लगता है, ऐसा करके वे नेता बन रहे हैं, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी उन्हें फोन किया, लेकिन वे मानते नहीं हैं। क्या जरूरत है हर फिल्म पर बयान देने की।” मोदी यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने मुसलमानो के खिलाफ बयानबाजी पर भी अप्रसन्नता जताई। दिल्ली में हुयी इस कार्यकारिणी बैठक में उन्होंने कहा कि “पार्टी नेताओं को मुसलमान समुदाय के लोगों के प्रति अभद्र टिप्पणी करने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि देश में कई समुदाय भाजपा को वोट नहीं देते हैं, लेकिन इसके बाद भी भाजपा कार्यकर्ताओं को उनके प्रति अपमान नहीं दिखाना चाहिए, बल्कि बेहतर तालमेल स्थापित कर बेहतर व्यवहार बनाना चाहिए।” हालांकि डिवाइडर – इन – चीफ यहां भी विभाजन की रेखा खींचने से बाज नहीं आये। उन्होंने मुसलमानों में भी पसमांदा और बोहरा समुदाय के लोगों के ज्यादा करीब जाने की बात कही। हैदराबाद में हुयी कार्यकारिणी में भी वे ऐसी ही कुछ बातें बोले थे।
जाहिर है कि प्रधानमंत्री के इस बयान को तवज्जोह मिली, मिलनी भी थी। इसलिए भी कि यह बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी में 2002 के गुजरात नरसंहार के लिए उन्हें दोषी ठहराए जाने की पृष्ठभूमि में आया था। उन मोदी की तरफ से आया था, जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को शमशान और कब्रिस्तान की गहराई तक ले जा चुके हैं। इनके साथ, इनके अलावा और इनके बावजूद मोदी के इस भाषण के संज्ञान लिए जाने की एक वजह कुछ दिन पहले आरएसएस प्रमुख का भाषण भी था। आरएसएस से जुड़े पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों की एक बैठक में बोलते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक तरह से युद्धघोष ही कर दिया था। उन्होंने कहा कि “हिंदू समाज हजारों साल से गुलाम रहा है, अब उसमें जागृति आ रही है, जिसके कारण कभी-कभी हिंदू समुदाय की ओर से कुछ आक्रामक व्यवहार दिखाई पड़ जाता है।” उन्होंने इसे ठीक तो नहीं बताया, लेकिन परोक्ष रूप से इस बात का समर्थन कर दिया कि “हिंदू समुदाय का यह आक्रोश इतिहास को देखते हुए सही है। स्वाभाविक है कि लड़ना है, तो दृढ़ होना ही पड़ता है।” इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने हिंसक टिप्पणियों और शाब्दिक हिंसा को जायज करार देते हुए यहां तक कहा कि “जब युद्ध है, तो लोगों में कट्टरता आएगी ही। ऐसा नहीं होना चाहिए, मगर फिर भी उग्र वक्तव्य आएंगे ही।” इस युद्ध या लड़ाई के बारे में कहीं कोई गफलत न छूट जाए, इसलिए उन्होंने इसकी सीमा रेखा भी खींची। उन्होंने कहा कि : “यह लड़ाई बाहर से नहीं है, वह लड़ाई अंदर से ही है। यह हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, हिंदू समाज की सुरक्षा का प्रश्न है, उसकी लड़ाई चल रही है।” और आगे बढ़ते हुए उन्होंने मुसलमानों (और कम्युनिस्टों) को भी सलाह दी कि वे रहना चाहते हैं तो रहें, अपने पूर्वजों के पास आना (हिन्दू बनना) चाहते हैं तो रहें। हम अलग हैं, यह सोचना छोड़ना पडेगा। ऐसा सोचने वाला कोई हिन्दू (पढ़ें : दलित, आदिवासी, ओबीसी, एमबीसी) है, तो उसको भी छोड़ना पडेगा। कम्युनिस्ट है, उसको भी छोड़ना पड़ेगा।”
अपनी इसी बात में उन्होंने आगे जोड़ा कि “जनसंख्या नियंत्रण एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। उसका विचार करना चाहिए… धर्मांतरण और घुसपैठियों से ज्यादा असंतुलन होता है। उसको रोकने से असंतुलन नष्ट हो जाता है।” भारत में रहने वाले मुसलमानों के बारे में बात करते हुए भागवत ने जबरन धर्मांतरण, अवैध प्रवासी और ‘घर वापसी’ की बात भी की। हालांकि अपने इस संबोधन में उन्होंने गीता को दूसरा श्लोक दोहराया था, मगर असल में वे :
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥” (सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।) श्लोक में निहित सन्देश दे रहे थे। वास्तव में तो वे और भी आगे बढ़कर एमएस गोलवलकर की “वी एंड आवर नेशनहुड” (हम और हमारी राष्ट्रीयता) की उस किताब में लिखे को दोहरा रहे थे, जिसे खुद आरएसएस – फिलहाल – स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
मोदी और भागवत के इन दोनों भाषणों को अलग-अलग नहीं आपस में जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए, तभी असली मकसद साफ़ होता है। वैसे भी यह पहली बार नहीं है, जब इन दोनों ने एक दूसरे के विपरीत और अंतर्विरोधी लगते, किन्तु वास्तव में एक-दूसरे के पूरक बयान दिए हों। वे समय-समय पर ऐसा करते रहते हैं – और वह एक सुविचारित पटकथा का हिस्सा होता है। इसके पहले मोदी ने गोरक्षा के नाम पर गोरखधंधा करने वालों पर तीखा हमला बोला था। उन्होंने कहा था कि ‘‘ऐसे लोग दिन में गोरक्षा का चोला पहनकर घूमते हैं और रात में असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं।” उन्होंने कहा था कि “पड़ताल की जाए, तो इनमें से 80 प्रतिशत लोग ऐसे निकलेंगे, जो गोरक्षा की दुकान खोलकर बैठ गए हैं।” ऐसे लोगों पर गुस्सा जाहिर करते हुए उन्होंने राज्य सरकारों से ऐसे लोगों का डोजियर तैयार कर उनके खिलाफ कार्रवाई की अपील की थी। ऐसा कोई डोजियर न बनना था, न बना। दूसरों की छोड़िये, खुद उनकी भाजपा सरकारों ने ही तैयार नहीं किया। मोदी के इस बयान के बाद तुरंत ही मोहन भागवत गौरक्षकों के अप्रतिम धार्मिक योगदान की सराहना करते हुए कूद पड़े थे। इनसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी तक इसे आजमाते रहे थे। गुजरात दंगों के बाद राजधर्म के पालन और बीच-बीच में “काम न धाम – जयश्रीराम” के जुमलों से अपनी उदार छवि का मुखौटा संवारते रहते थे। संघ परिवार की यह आजमाई हुयी जुगलबंदी हैं, जिसे संगीत की भाषा में ही कहे, तो आरोहो-अवरोहों से घूम-घामकर अंततः शुद्ध पर पहुँच जाती है। मूलतः यह शुद्ध युद्ध का आव्हान है। “युद्ध और प्रेम (जिसे यह जानते तक नहीं हैं) में सब कुछ जायज है” के बेहूदा मुहावरे का पुनराख्यान है।
गौरतलब है कि मोदी जी कहने से मना कर रहे हैं, करने से नहीं। उनका रिकॉर्ड है कि अपने पूरे कार्यकाल में घटी जघन्य और विचलित कर देने वाली घटनाओं पर उन्होंने कभी कुछ नहीं बोला। मजबूरी में कभी बोलना भी पड़ा, तो “दिल से कभी माफ़ नहीं करूंगा” जैसा ही बोला।
फिल्मों के बारे में मोदी जी की टिप्पणी के पीछे भी सदभाव या कला के प्रति उदारता नहीं, व्यवसाय और इसकी अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता है। फिल्म उद्योग में अम्बानी सहित भारत के धन्नासेठों और अमरीकी घरानो का पैसा लगा है। इस इंडस्ट्री का भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। इसके द्वारा सृजित किये जाने वाले विविध रोजगार अकसर अगर आंतरिक अर्थव्यवस्था के हिसाब से महत्व के हैं, तो अकेले अमरीकी मनोरंजन उद्योग में सबसे ज्यादा निर्यात करने और उसके माध्यम से विदेशी मुद्रा लाने वाला जरिया भी है। उस पर इन दिनों जो संघ परिवार के सीधे निशाने पर है, उन शाहरुख खान की लोकप्रियता कम असाधारण नहीं है। सिर्फ मध्य-पूर्व या खाड़ी के देशों में ही नहीं, वे यूरोप और अमरीका में भी भारत की पहचान माने जाते हैं। कला का यह माध्यम देखने-सुनने के आस्वाद और आल्हाद से कहीं आगे जाता है। आमतौर से हर जगह और खासतौर से भारत में फिल्मों की भूमिका समाज और व्यक्ति की जीवन शैली को प्रभावित और एक हद तक संस्कारित करने की भी होती है। आजाद भारत में सत्तर के दशक तक की फिल्मों ने इसमें जो योगदान दिया है, उसे सब जानते हैं। फिल्में इन सबकी पहचान दुनिया से भी कराती है। एक तरह से फिल्में देश की कल्चरल एम्बेसडर – सांस्कृतिक राजदूत – है। हालांकि ठीक यही वजह फासिस्टों और तानाशाहों को इस कला माध्यम को हमले की जद में भी लाती हैं। जैसा कि इसी जगह पहले लिखा जा चुका है, हिटलर ने यही किया था। जी-20 के अध्यक्ष बनने से अभिभूत मोदी और उनकी सरकार जानती है कि भारतीय फिल्मों को निशाना बनाकर किये जाने वाले हमलों पर दुनिया के देशों की प्रतिक्रिया उनके लिए नकारात्मक साबित हो सकती है। पिछली साल नूपुर शर्मा के बयानों के बाद हुयी तीखी प्रतिक्रिया का सबक उन्हें याद है।
मोदी की कथित कड़ी सलाह और तथाकथित मीठी फटकार के बाद नरोत्तम मिश्रा और हेमंत विश्व सरमा भले लाईन पर आने के भाव दिखा रहे हों, भक्तों की बटालियनें अपने काम में लगी हुयी हैं। पठान फिल्म को लेकर इनके हुड़दंगियों की हुड़दंगई पूरा देश और दुनिया देख चुकी है। जनता द्वारा ठुकराए जाने के बाद अब पतली गली तलाशी जा रही है।
ऐसा होना ही था क्योंकि ये जो कच्चे, कोमल राग की रागिनी है, वह पक्के, कर्कश स्वरों से अलग नहीं है। उन्हें दबाने के लिए नहीं है, उन पर आवरण डालने के लिए, एक भरम खड़ा करने के लिए है। पठान फिल्म पर मिली हार के बाद ये सुधरने वाले नहीं हैं – नया मुद्दा, नया झूठ लेकर आएंगे।
-बादल सरोज