कोरबा (आदिनिवासी)। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में रेलवे की निर्माणाधीन लाइन में मेहनत करने वाले पहाड़ी कोरवा आदिवासी मजदूरों का दर्द दिल दहलाने वाला है। दो हफ्ते तक पसीना बहाकर काम करने के बाद भी इन मजदूरों को उनकी मेहनत की मजदूरी नहीं मिली। ठेकेदार के गायब होने और प्रशासन के टालमटोल रवैये ने इन बेबस मजदूरों को न्याय के लिए दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया है। ये मजदूर अब न तो अपना पेट पाल पा रहे हैं और न ही कोर्ट के चक्कर काटने की स्थिति में हैं।
ठेकेदार गायब, मजदूरों का भरोसा टूटा
कोरबा जिले के ग्राम चुइया के इन आदिवासी मजदूरों ने बताया कि बालकोनगर के सेक्टर 4 में रहने वाले रेलवे ठेकेदार सुनील साहू ने उन्हें उरगा क्षेत्र में रेलवे लाइन के निर्माण कार्य के लिए रखा था। ठेकेदार ने समय पर मजदूरी देने का वादा किया, लेकिन दो हफ्ते की कड़ी मेहनत के बाद वह गायब हो गया। मजदूरों ने जब ठेकेदार के घर जाकर पूछताछ की, तो उनकी पत्नी ने बताया कि वह दुर्घटना में घायल होकर अस्पताल में भर्ती है। लेकिन मजदूरों की अपनी जांच में यह बात झूठी निकली। ठेकेदार जानबूझकर भुगतान से बच रहा है।
रेलवे ने कहा कि ठेकेदार को भुगतान कर दिया गया है, लेकिन मजदूरों के हाथ अब भी खाली हैं। यह सवाल उठता है कि अगर भुगतान हो चुका है, तो मजदूरों की मेहनत की कमाई कहां गई?
पुलिस और प्रशासन का ठंडा रवैया
न्याय की उम्मीद में ये मजदूर बालको थाने पहुंचे, लेकिन वहां से उन्हें कोतवाली और फिर उरगा थाने का रास्ता दिखा दिया गया। उरगा थाने में भी पुलिस ने इसे “हस्तक्षेप अयोग्य” मामला बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया और मजदूरों को अदालत जाने की सलाह दे दी। आर्थिक रूप से कमजोर ये आदिवासी मजदूर अब असमंजस में हैं। एक मजदूर ने रोते हुए कहा, “हम कोर्ट कैसे जाएं? हमारे पास तो खाने के पैसे भी नहीं हैं।”
मजदूरों का दर्द, ऑटो चालक की मुसीबत
इन मजदूरों की मेहनत की कमाई पर सिर्फ उनके परिवार ही नहीं, बल्कि ऑटो चालक संजय दास महंत जैसे लोग भी निर्भर हैं। संजय इन मजदूरों को काम पर लाने-ले जाने का काम करते हैं। मजदूरों को पैसे नहीं मिले, तो संजय की ऑटो की किश्त और परिवार का खर्च भी अटक गया है। संजय कहते हैं, “मजदूरों को पैसा नहीं मिलेगा, तो मैं अपने बच्चों का पेट कैसे भरूं?”
आदिवासी मजदूरों की जिंदगी पर संकट
कोरबा जिले में पहाड़ी कोरवा आदिवासी समुदाय पहले से ही आर्थिक तंगी और सामाजिक उपेक्षा का शिकार है। सरकारी प्रोजेक्ट में काम करके ये लोग अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना चाहते थे, लेकिन ठेकेदार की बेईमानी और प्रशासन की उदासीनता ने उनके सपनों पर पानी फेर दिया। एक मजदूर रामबाई ने बताया, “हमने दिन-रात मेहनत की, लेकिन अब न पैसा है, न सम्मान। हमारी सुनने वाला कोई नहीं।”
क्या है समाधान?
यह मामला सिर्फ मजदूरी का नहीं, बल्कि मानवता और न्याय का भी है। विशेषज्ञों का कहना है कि पुलिस और प्रशासन को इस मामले में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। ठेकेदार को तलब कर मजदूरों को उनका हक दिलाया जा सकता है। साथ ही, रेलवे और जिला प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों। मजदूरों के लिए एक शिकायत निवारण तंत्र बनाया जाना जरूरी है, ताकि उनकी मेहनत का पैसा सुरक्षित रहे।
मानवीय संवेदना और सवाल
यह घटना न केवल कोरबा, बल्कि पूरे देश में आदिवासी और गरीब मजदूरों की स्थिति को उजागर करती है। जब एक सरकारी प्रोजेक्ट में मजदूरों के साथ ऐसा अन्याय हो रहा है, तो निजी क्षेत्र में उनकी स्थिति कितनी बदतर होगी? यह सवाल सरकार, प्रशासन और समाज, सभी के लिए है। क्या हमारा सिस्टम इतना कमजोर है कि “साय सरकार के सुशासन तिहार” अभियान में भी मेहनतकश मजदूरों को उनका हक दिलाने में नाकाम रहता है?

क्या है अब आगे की राह?
पहाड़ी कोरवा मजदूर अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि उनकी मेहनत का फल उन्हें मिलेगा। समाजसेवी संगठनों और स्थानीय नेताओं से भी अपील की जा रही है कि वे इस मामले में हस्तक्षेप करें। गृह जिला कोरबा के श्रम और उद्योग मंत्रालय विभाग के जिम्मेदार हस्तियों को भी इस मामले की गंभीरता को समझकर त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए।
आप क्या सोचते हैं? क्या इन मजदूरों को उनका हक मिलेगा, या वे हमेशा की तरह सिस्टम की उदासीनता के शिकार बने रहेंगे? अपनी राय हमें जरूर बताएं।