बुधवार, अक्टूबर 15, 2025

मानवीय शोषण का बढ़ता संकट: धर्म, कानून और राजनीति के जाल में सिसकता समाज

Must Read

“मानवीय शोषण का बढ़ता संकट: धर्म, कानून और राजनीति के जाल में फंसे समाज की गहरी सच्चाई, अन्याय और उससे मुक्ति के रास्तों पर विचारोत्तेजक विश्लेषण।”

मानव सभ्यता के लंबे इतिहास में शोषण कोई नया शब्द नहीं है। परंतु आज जब विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने जीवन को आधुनिक और सुविधाजनक बनाने की संभावना दी है, तब भी शोषण का दंश समाज के हर हिस्से को घायल कर रहा है। धर्म, कानून और राजनीति जैसे संस्थान, जो मूलतः मानव की रक्षा और सामूहिक विकास के लिए बने थे, विडंबना यह है कि आज अक्सर वही शोषण के उपकरण बन गए हैं। यही स्थिति आज के समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है।

धर्म: आध्यात्मिक मुक्ति से अंधभक्ति और शोषण तक
धर्म का मूल उद्देश्य मानव को जीवन का उच्चतर अर्थ समझाना, नैतिकता और करुणा का विकास करना था। किंतु इतिहास गवाह है कि जैसे-जैसे धर्म संस्थागत हुआ, वह सत्ता और स्वार्थ का साधन बन गया।

अंधविश्वास और कर्मकांड : इंसान को सोचने-विचारने से रोककर उसे अंधभक्ति की बेड़ियों में बांध दिया गया। ‘पाप’ और ‘पुण्य’ के नाम पर गरीब जनता को भयभीत कर लूटा गया।

धर्म बनाम मानवता : जाति प्रथा, अस्पृश्यता और लिंग भेद जैसे अमानवीय प्रथाओं को धर्म का सहारा लेकर वैध ठहराया गया। नतीजा यह हुआ कि करोड़ों लोग इंसान होकर भी इंसान नहीं माने गए।

धार्मिक सत्ता और राजनीति : आज भी धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए होता है। मंदिर-मस्जिद की राजनीति जनता को आपस में बांटकर असली मुद्दों – रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य – से दूर ले जाती है।
यानी धर्म, जो मुक्तिदाता होना चाहिए था, वह बंधन और शोषण का एक औज़ार बन गया।

कानून: न्याय का रक्षक या शक्तिशाली का हथियार?
कानून का अस्तित्व इसीलिए हुआ कि समाज में न्याय, समानता और सुरक्षा कायम रहे। किंतु वास्तविकता में कानून का इस्तेमाल अक्सर सत्ता और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है।

न्याय की देरी भी अन्याय ही होता है : अदालतों में वर्षों तक मामलों का लटकना गरीब को न्याय से वंचित करता है। अमीर और ताकतवर महंगे वकीलों और राजनीतिक संबंधों से राहत पा लेते हैं, जबकि गरीब जीवन भर न्यायालयों के चक्कर लगाता रहता है।
कानून और दमन : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक, भीड़तंत्र को संरक्षण, पुलिसिया ज्यादती – यह सब दिखाता है कि कानून का इस्तेमाल असहमति को दबाने के लिए भी किया जाता है।
कानून का दोहरा चेहरा : मजदूर अपने हक के लिए हड़ताल करें तो गैरकानूनी; कॉरपोरेट खुलेआम टैक्स चोरी करें तो “समझौता”। यही दोहरा मापदंड शोषण की जड़ है।
इस प्रकार, कानून भी अक्सर न्याय का नहीं बल्कि शोषण का सहायक बन जाता है।

राजनीति: जनसेवा से सत्ता का खेल
राजनीति लोकतंत्र की आत्मा है, जिसका उद्देश्य जनता की सेवा और सामाजिक परिवर्तन होना चाहिए। किंतु आज राजनीति स्वार्थ, धन और जाति-धर्म की गणित में उलझाकर समाज को और ज्यादा विभाजित कर रही है।

वोट बैंक की राजनीति : जनता की गरीबी, बेरोज़गारी और बीमारी राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा नहीं, बल्कि “मतदाताओं को बांधने का हथियार” बन गया है।
भ्रष्टाचार और सत्ता लालसा : विकास के नाम पर अरबों का भ्रष्टाचार होता है, जबकि गांव-गांव में भूख और बेरोज़गारी फैली हुई है।
जनता बनाम शासक वर्ग : राजनीति एक ऐसा वर्ग बना चुकी है जो जनता से अलग और ऊंचा है। जनप्रतिनिधि चुनाव के बाद जनता से कट जाते हैं और अपने सत्ता की सुरक्षा में रम जाते हैं।
राजनीति, जो जनकल्याण का साधन थी, अब अक्सर शोषण और धोखे का माध्यम बन गई है।

धर्म, कानून और राजनीति का त्रिकोणीय जाल

आज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि धर्म, कानून और राजनीति तीनों मिलकर शोषण का “त्रिकोणीय जाल” बुनते हैं।
धर्म भावनाओं को नियंत्रित करता है।
कानून व्यवहार को बांध देता है।
और राजनीति सत्ता पर कब्जा रखती है।
तीनों मिलकर ऐसा तंत्र बनाते हैं जिसमें आम आदमी हर तरफ से अपने आप को फंसा हुआ पाता है। यदि वह सवाल पूछे तो धर्म उसे “पापी और अपराधी” बताता है, कानून उसे “अवैध” करार देता है और राजनीति उसे “देशद्रोही” बना देती है।

शोषण का सामाजिक प्रभाव

आर्थिक असमानता : धन और संसाधन मुट्ठीभर वर्ग के पास केंद्रित हैं, जबकि करोड़ों लोग मूलभूत जरूरतों से वंचित हैं।
सांस्कृतिक क्षरण : समाज में वैचारिक स्वतंत्रता और वैज्ञानिक सोच कमजोर होते जा रही है।
मानसिक गुलामी : लोग अपने शोषकों को ही ‘रक्षक’ मानते हैं और उनके पीछे अंधभक्ति में चलते हैं।
यही कारण है कि समाज धीरे-धीरे “मानवता से वंचित भीड़” में बदलता जा रहा है।

क्या है रास्ता?
शोषण की इस भयावह स्थिति से निकलने के लिए केवल नारे या सुधारवादी उपाय काफी नहीं हैं। इसके लिए गहरे वैचारिक और संरचनात्मक बदलाव की आवश्यकता है।

🔹धर्म का मानवीकरण : धर्म को करुणा, समानता और मानवता का आधार बनाना होगा। अंधविश्वास और कट्टरता को चुनौती देना जरूरी है।
🔹कानून में समानता : कानून केवल किताबों में नहीं, व्यवहार में भी समान रूप से लागू हो। न्याय सस्ता, तेज और सबके लिए सुलभ होना चाहिए।
🔹राजनीति का सामाजीकरण : राजनीति में नैतिकता और जनहित को सर्वोच्च मानना होगा। राजनीति को व्यवसाय नहीं, सेवा बनाना होगा।
🔹जनचेतना का उत्थान : सबसे अहम है जनता की जागरूकता। जब तक जनता धर्म, कानून और राजनीति के भ्रमजाल को तोड़कर सच नहीं समझेगी, तब तक शोषण का तंत्र मजबूत बना रहेगा।

आज का समाज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां धर्म, कानून और राजनीति तीनों मिलकर शोषण का जाल बुन रहे हैं। यह जाल केवल गरीब और वंचितों को ही नहीं बल्कि पूरी मानवता का धीरे-धीरे दम घोंट रहा है। यदि हम इस जाल से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें प्रश्न पूछने की हिम्मत करनी होगी, अन्याय के खिलाफ खड़े होने की ताकत जुटानी होगी और अपने भीतर “मानवता” को सर्वोच्च मानना होगा।
मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है, न्याय ही सबसे बड़ा कानून और समानता ही सबसे बड़ी राजनीति। जब तक समाज इन मूल्यों को आत्मसात नहीं करेगा, तब तक शोषण का यह संकट बढ़ता ही रहेगा।

- Advertisement -
  • nimble technology
Latest News

बालको के सेवानिवृत्त कामगारों की हक और सम्मान की लड़ाई तेज़ — 15 अक्टूबर को एकता पीठ में होगी निर्णायक बैठक

स्थान: एकता पीठ परिसर, ऐक्टू यूनियन कार्यालय, बालकोनगर, कोरबासमय: प्रातः 11:30 बजे से कोरबा (आदिनिवासी)। बालको के सेवानिवृत्त श्रमिकों के...

More Articles Like This