यह हमारे समय का प्रहसन ही है कि एक ओर मोदी सरकार ‘जय श्रीराम’ के कानफाड़ू शोर के साथ भाजपा प्रायोजित ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान चला रही है, वही दूसरी ओर हसदेव के जंगल को अडानी के नाम करने की तैयारी कर रही है। केते एक्सटेंशन के नाम से अडानी को तीसरा कोयला ब्लॉक सौंपने के लिए तमाम नियम कायदों को ताक पर रखकर 2 अगस्त को पर्यावरणीय सुनवाई हो रही है। इस खदान के लिए 8 लाख से ज्यादा पेड़ काटे जाने का अंदेशा है। इतने पौधे तो पूरे राज्य में भाजपाई कार्यकर्ताओं द्वारा भी नहीं लगाए जाएंगे।
सात माह पहले छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों में कांग्रेस की सरकार थी। तब राजस्थान की सरकार हसदेव के जंगलों को अडानी के लिए लेने की जी-तोड़ कोशिश कर रही थी। छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी राजस्थान को रोशन करने के लिए लालायित थे और राज्य के संरक्षण में हसदेव की कटाई भी शुरू करवा चुके थे। लेकिन हसदेव के आदिवासियों और राज्य की जनता के मुखर विरोध और पूरी दुनिया की पर्यावरण प्रेमी जनता की एकजुटता के कारण उन्हें कटाई रोकनी पड़ी। इस राज्य प्रायोजित कटाई के खिलाफ पूरे छत्तीसगढ़ की जनता ने हजारों की संख्या में एकजुट होकर हसदेव में न्याय मार्च का आयोजन किया था। तब की विपक्षी भाजपा ने भी इस कटाई का विरोध किया था।
आज छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों में भाजपा की सरकार है। अब राजस्थान की भाजपा सरकार अडानी के लिए हसदेव के जंगल चाहती है और अब छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार पलक पांवड़े बिछाकर अडानी का स्वागत करने को आतुर है और विपक्षी कांग्रेस विरोध का दिखावा कर रही है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस हो या भाजपा, अडानी के लिए कुछ नहीं बदलता।
छत्तीसगढ़ के हसदेव क्षेत्र में अडानी की दो कोयला खदानें पहले से ही चल रही है — परसा और परसा ईस्ट केते बासन (पीईकेबी)। ये दोनों खदानें लगभग 10000 एकड़ क्षेत्र में फैली हुई है। हसदेव के जंगलों को मध्य भारत का फेफड़ा कहा जाता है और जो लोग भारत में हसदेव के जंगलों की जैव विविधता, उसके पर्यावरणीय महत्व और यहां निवास करने वाले आदिवासी समुदाय के लिए उसकी सामाजिक-आर्थिक उपादेयता से परिचित हैं, वे आसानी से अंदाज लगा सकते हैं कि इन दोनों खदानों के कारण जैव-पारिस्थितिकी का पहले ही कितना नुकसान हो चुका है और आदिवासी समुदाय को विस्थापन की कितनी भयंकर पीड़ा भुगतनी पड़ी है। इन दोनों खदानों को चालू करते हुए आदिवासी समुदाय से जो वादे किए गए थे, उनमें से एक भी पूरे नहीं हुए।
अब अडानी को खदान विस्तार के नाम से 4400 एकड़ से ज्यादा में फैली तीसरी खदान भी चाहिए, जिसे यदि मंजूरी मिल गई तो 4350 एकड़ सघन वन क्षेत्र में सैकड़ों साल से खड़े 8 लाख से ज्यादा पेड़ों का स्वाहा होना तय है। इसके साथ ही दसियों गांव विस्थापन और आजीविका की बर्बादी की चपेट में आयेंगे।
पर्यावरणीय सुनवाई अवैध
लेकिन केते एक्सटेंशन खदान के लिए पर्यावरण सुनवाई ही अवैध है, क्योंकि जिस पर्यावरण प्रभाव आंकलन के आधार पर यह सुनवाई होने वाली है, वह मार्च 2021 में जारी की गई थी। पर्यावरण मंत्रालय के नियमों के अनुसार यह रिपोर्ट इतनी पुरानी हो चुकी है कि इसके आधार पर जन सुनवाई नहीं हो सकती। लेकिन छत्तीसगढ़ का पर्यावरण संरक्षण मंडल इसी आधार पर सुनवाई कर रहा है, तो समझ सकते हैं कि उसके इस अवैध कृत्य को हरी झंडी कहां से मिली है।
यदि पर्यावरण मंडल के इस रुख को छोड़ भी दिया जाय, तब भी कोई भी कारक ऐसा नहीं है, जो इस जन सुनवाई को वैध बनाएं। राज्य के वन विभाग और खनिज संसाधन विभाग, दोनों ने इस खदान परियोजना का विरोध किया है और खदान विस्तार के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पर भी अपनी आपत्ति दर्ज की है। यह परियोजना लेमरू हाथी रिजर्व के 10 किमी. के दायरे में आती है तथा इस रिजर्व क्षेत्र को छत्तीसगढ़ राजपत्र में 22 अक्टूबर 2021 को अधिसूचित भी किया जा चुका है। अब यह ‘नो गो एरिया’ है। भारतीय वन्य जीव संस्थान की भी रिपोर्ट है कि हसदेव में किसी भी खनन परियोजना को बढ़ावा देने से इस क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर ‘अपरिवर्तनीय’ प्रभाव पड़ेगा और हाथी कॉरिडोर के प्रभावित होने से मानव-हाथी द्वंद्व बढ़ेगा। इसके साथ ही, इस खदान के कारण हसदेव नदी का 10,000 वर्ग किमी. का कैचमेंट एरिया भी प्रभावित होगा, जिससे विभिन्न जल स्रोतों और बांगो बांध का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। इससे कृषि और औद्योगिक क्षेत्र के लिए जल आपूर्ति खतरे में पड़ जाएगी, जिससे 50 लाख लोगों की आजीविका और उनका जीवन यापन भी खतरे में पड़ जाएगा।
इन्हीं सब कारणों के मद्देनजर 26 जुलाई 2022 को छत्तीसगढ़ विधानसभा द्वारा हसदेव अरण्य में प्रस्तावित सभी कोयला खदानों को निरस्त करने हेतु सर्वसम्मति से संकल्प पारित किया गया था। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर यह कहा है कि परसा ईस्ट केते बासन खदान से राजस्थान सरकार की अगले बीस सालों की जरूरतें पूरी हो सकती है।
इस प्रकार, भाजपा सरकार द्वारा यह जन सुनवाई इन तमाम रिपोर्टों को दरकिनार करके और विधानसभा के संकल्प प्रस्ताव और सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा का उल्लंघन करके आयोजित की जा रही है, जिससे वह संवैधानिक तौर से अभी भी बंधी हुई है।
कहानी! अडानी द्वारा लूट की
केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार, राजस्थान में जनवरी 2024 में 18,128 मेगावॉट बिजली की मांग थी। राजस्थान की कुल बिजली उत्पादन क्षमता 40,209 मेगावॉट है, जिसमें सौर ऊर्जा से 26,815 मेगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता शामिल है। राज्य में कोयले से चलने वाले पॉवर प्लांटों की क्षमता केवल 9200 मेगावॉट ही है। बिजली के मामले में राजस्थान सरकार ने वर्ष 2030 तक केवल सौर ऊर्जा से ही एक लाख मेगावॉट बिजली उत्पादन कर पूरी तरह से आत्मनिर्भर होने और देश के अन्य राज्यों को अतिरिक्त बिजली बेचने का लक्ष्य रखा है। केंद्र सरकार के अनुसार इस मामले में वह प्रगति कर रहा है। इन तथ्यों को देखते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिया गया हलफनामा विश्वसनीय है कि परसा ईस्ट केते बासन खदान से राजस्थान सरकार की अगले बीस सालों की जरूरतें पूरी हो सकती है। तब फिर राजस्थान सरकार द्वारा एक और कोयला खदान की जिद क्यों?
यह कहानी अडानी द्वारा कोयले की लूट पर जाकर टिकती है। राजस्थान सरकार ने जिस एमडीओ के जरिए कोयला खुदाई का कार्य अडानी को सौंपा है, उस अनुबंध का प्रमुख प्रावधान यह है कि राजस्थान सरकार अपने बिजली संयंत्रों को चलाने के लिए अडानी से 4000 कैलोरी प्रति किलोग्राम से नीचे की गुणवत्ता का कोयला स्वीकार नहीं करेगी और कम गुणवत्ता वाले रिजेक्टेड कोयले को हटाने और निबटाने का काम अडानी करेगी। पूरा गड़बड़ घोटाला इसी अनुबंध में छिपा है, क्योंकि छत्तीसगढ़ और देश के अन्य भागों में सरकारी और निजी बिजली संयंत्रों में इस्तेमाल किए जाने वाले कोयले की औसत गुणवत्ता 3400 कैलोरी प्रति किलोग्राम है। एसईसीएल से छत्तीसगढ़ के निजी उद्योग 2200 कैलोरी तक की गुणवत्ता वाला कोयला लेते हैं।
एक आरटीआई कार्यकर्ता डीके सोनी को मय दस्तावेज रेलवे ने वर्ष 2022 में जानकारी दी थी कि वर्ष 2021 में ही अडानी ने परसा केते माइंस से 29.58 लाख टन रिजेक्टेड कोयले का परिवहन किया है, जो रेल से कुल कोयला परिवहन का 26.6% होता है। यह कोयला अडानी को मुफ्त में उपलब्ध हो रहा है, जिसका उपयोग वह अपने पॉवर प्लांटों को चलाने और निजी उद्योगों को बेचने के लिए कर रहा है। अडानी द्वारा कोयला चोरी की पूरी कहानी को राज्य के प्रसिद्ध सांध्य दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ ने अपने 22 दिसंबर 2022 के अंक में मुखपृष्ठ पर उजागर किया था।
परसा केते माइंस की वार्षिक उत्पादन क्षमता 150 लाख टन है। यदि रिजेक्टेड कोयले की मात्रा 26.6% ही मानी जाए, तब कुल रिजेक्टेड कोयले की मात्रा लगभग 40 लाख टन बैठती है। इस रिजेक्टेड कोयले का 60% का उपयोग अडानी अपने खुद के बिजली संयंत्रों के लिए कर रहा है। इस समय गैर-आयातित कोयले का खुले बाजार में भाव औसतन 7000 रूपये प्रति टन है और इस दर पर रिजेक्टेड कोयले का मूल्य होता है 2800 करोड़ रूपये! और यह लूट केवल वर्ष 2021 की है, जबकि यहां अडानी द्वारा वर्ष 2013 से खनन जारी है। पिछले 10 वर्षों में अडानी ने केंद्र और राज्य की कॉरपोरेटपरस्त सरकार के साथ मिलकर छत्तीसगढ़ की केवल एक खदान से ही 28000 करोड़ रुपयों का 4 करोड़ टन कोयला लूटा है! पीईकेबी खदान का खनन वर्ष 2028 तक होना था, लेकिन लूट की हवस के चलते अडानी ने वर्ष 2022 तक ही पूरा खदान खोद डाला और अब वह तीसरे खदान केते एक्सटेंशन की मांग कर रहा है।
यहां यह भी उल्लेख करना समीचीन है कि कोल इंडिया अपना कोयला 3405 रूपये प्रति टन की दर से बेचती है, जबकि राजस्थान सरकार को अडानी से सरकारी खदानों से ही निकला कोयला 3915 रूपये प्रति की दर से खरीदती है। यह अंतर 510 रूपये प्रति टन का है। वर्ष 2021 में राजस्थान सरकार ने 81.63 लाख टन कोयला खरीदा था, जिससे अडानी को 416.28 करोड़ रुपयों का अतिरिक्त फायदा हुआ था। पिछले दस सालों में राजस्थान को होने वाला नुकसान लगभग 4163 करोड़ रुपए बैठता है। राजस्थान की जनता को बिजली महंगी मिलने का यह भी बड़ा कारण है।
छत्तीसगढ़ में अडानी द्वारा कोयले की यह लूट प्रदेश में बस्तर से लेकर सरगुजा तक प्राकृतिक संसाधनों की हो रही कॉर्पोरेट लूट का केवल एक छोटा-सा उदाहरण है। इस लूट को आम जनता का एकजुट संघर्ष ही रोक सकता है। 2 अगस्त को केते एक्सटेंशन खदान की पर्यावरण सुनवाई में उस क्षेत्र की आदिवासी जनता का तीखा विरोध सामने आएगा। इसी कड़ी में संयुक्त किसान मोर्चा ने भी इसी माह “अडानी – छत्तीसगढ़ छोड़ो” के नारे पर एक जन सम्मेलन भी आयोजित करने की घोषणा की है।
(आलेख : संजय पराते)