गुरूवार, नवम्बर 21, 2024

निजीकरण नहीं, बल्कि पुनः रियासतीकरण: क्या देश को पूंजीपतियों के हाथों सौंपने की तैयारी है?

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देश की आर्थिक नीतियों में बड़े बदलावों के साथ, एक नई लेकिन चिंताजनक दिशा की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। 1947 में आजादी के बाद, भारत सरकार ने 562 रियासतों को एकजुट कर एक मजबूत और संप्रभु लोकतंत्र की स्थापना की थी। उस समय, रेल, बैंक और कारखानों का राष्ट्रीयकरण करके एक सशक्त भारत का निर्माण किया गया था। लेकिन आज, ऐसा प्रतीत होता है कि हम उसी स्थान पर वापस आ रहे हैं—हालांकि, इस बार रास्ता निजीकरण का है, जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

1947 से पहले का दौर: पुनः वापसी?
आज देश में निजीकरण की आड़ में पूंजीवादी व्यवस्था को फिर से लागू करने की कोशिशें की जा रही हैं। सरकारी संपत्ति को निजी हाथों में सौंपने की इस प्रक्रिया को निजीकरण नहीं, बल्कि पुनः रियासतीकरण कहा जा सकता है। अब रियासतें नहीं, बल्कि कुछ पूंजीपति घराने देश की संपत्ति के मालिक बनने जा रहे हैं। यह बदलाव न केवल आर्थिक असमानता को बढ़ाएगा, बल्कि लोकतंत्र के वजूद को भी खतरे में डाल सकता है।

निजीकरण के दुष्परिणाम
सरकारी संपत्तियों को निजी हाथों में देने का अर्थ है, देश को 1947 के पहले वाली स्थिति में वापस ले जाना। उस समय, संपत्ति पर रियासतों का कब्जा था, और अब वही स्थिति कुछ पूंजीपति घरानों के माध्यम से दोहराई जा रही है। ये नए ‘रजवाड़े’ सिर्फ लाभ कमाने के लिए काम करेंगे, न कि जनता की सेवा के लिए। मुफ्त इलाज के अस्पताल, धर्मशाला या प्याऊ जैसे संस्थानों की जगह अब हर कदम पर मुनाफा कमाने वाली व्यवस्था होगी।

जनता का क्या होगा?
वर्तमान में, सरकारी स्कूल, कॉलेज और अस्पताल लाभ की दृष्टि से नहीं देखे जाते, लेकिन अगर इन्हें भी निजी हाथों में सौंप दिया गया, तो आम जनता का क्या होगा? यदि देश की जनता प्राइवेट स्कूलों और अस्पतालों की लूट-खसोट से संतुष्ट है, तो रेलवे और अन्य सरकारी संस्थानों के निजीकरण का भी स्वागत किया जाएगा। परंतु सरकार का काम मुनाफाखोरी नहीं, बल्कि सामाजिक सेवा है।

निजीकरण: एक सुनियोजित साजिश
सरकार का तर्क है कि घाटे के चलते सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया जा रहा है। लेकिन यह एक सुनियोजित साजिश की तरह लगता है, जहाँ पहले सरकारी संस्थानों को जानबूझकर असफल बनाया जाता है, फिर उन्हें बदनाम किया जाता है, और अंत में निजीकरण के नाम पर अपने पूंजीपति आकाओं को सौंप दिया जाता है। पार्टी फंड में निवेश करने वाले पूंजीपति, दान नहीं, बल्कि निवेश करते हैं और चुनाव बाद मुनाफे की फसल काटते हैं।

विरोध की आवश्यकता
यह समय है कि हम निजीकरण का विरोध करें और सरकार को उसकी जिम्मेदारियों से भागने न दें। सरकारी संपत्तियों को बेचने के बजाय, प्रबंधन को सुधारा जाए। सरकार का काम केवल मुनाफा कमाना नहीं, बल्कि समाज की सेवा करना है। हमें यह समझना होगा कि अगर हमने आंखें मूंदकर यह सब देखते रहे, तो देश को कुछ पूंजीपतियों के गुलाम बनने से कोई नहीं रोक सकता।
आइए, इस प्रक्रिया का विरोध करें और सुनिश्चित करें कि सरकार अपनी जिम्मेदारियों से भागे नहीं, बल्कि उन्हें निभाए।
(आलेख: राजेश मरकाम)

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