आज 20 मार्च 2025 को हम उस महान विभूति को याद करते हैं, जिन्होंने न केवल खेल के मैदान में भारत का नाम रोशन किया, बल्कि संविधान सभा के मंच से लेकर जंगलों और सड़कों तक आदिवासियों के अधिकारों के लिए अथक संघर्ष किया। जयपाल सिंह मुंडा, जिन्हें प्यार से “मरांग गोमके” (महान नेता) कहा जाता है, एक ऐसी शख्सियत थे, जिनका जीवन प्रेरणा का स्रोत और संघर्ष का प्रतीक है। उनकी पुण्यतिथि पर आइए उनके जीवन और विरासत को श्रद्धा के साथ स्मरण करें।
जयपाल सिंह मुंडा का जीवन परिचय: एक असाधारण व्यक्तित्व का उदय
जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 3 जनवरी 1903 को झारखंड के खूंटी जिले के टकरा गांव में एक मुंडा आदिवासी परिवार में हुआ था। उनका प्रारंभिक जीवन गरीबी और चुनौतियों से भरा था, लेकिन उनकी प्रतिभा को मिशनरियों ने पहचाना। रांची के सेंट पॉल स्कूल में पढ़ाई के बाद, उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय भेजा गया। वहां उन्होंने न केवल अकादमिक क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की, बल्कि हॉकी के मैदान में भी अपनी छाप छोड़ी। 1925 में उन्हें “ऑक्सफोर्ड ब्लू” का प्रतिष्ठित खिताब मिला, जो खेल में उनकी असाधारण प्रतिभा का प्रमाण था।
1928 में एम्स्टर्डम ओलंपिक में जयपाल सिंह मुंडा ने भारतीय हॉकी टीम के कप्तान के रूप में इतिहास रचा। उनके नेतृत्व में भारत ने अपना पहला ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता, जिसने औपनिवेशिक भारत को गर्व का क्षण प्रदान किया। लेकिन उनकी यात्रा यहीं नहीं रुकी। आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) की कठिन परीक्षा पास करने के बावजूद, उन्होंने प्रशासनिक सेवा छोड़कर आदिवासियों के कल्याण के लिए राजनीति में कदम रखा। यह निर्णय उनके जीवन का एक निर्णायक मोड़ था, जिसने उन्हें खेल के हीरो से समाज सुधारक और नेता बनाया।
संविधान सभा में योगदान: आदिवासियों की बुलंद आवाज
जयपाल सिंह मुंडा संविधान सभा के सदस्य के रूप में 1946 में चुने गए। इस मंच पर उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों की जोरदार वकालत की। उनका पहला भाषण (19 दिसंबर 1946) आज भी इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। उन्होंने कहा, “मैं उन लाखों लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं, और जिन्हें बैकवर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स कहा जाता है। पर मुझे अपने जंगली होने पर गर्व है।”
उन्होंने संविधान सभा में “अनुसूचित जनजाति” की जगह “मूलवासी आदिवासी” शब्द का प्रयोग करने की मांग की और आदिवासियों के लिए आरक्षण जैसे प्रावधानों को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके भाषणों ने न केवल आदिवासी समुदाय की पीड़ा को उजागर किया, बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को संरक्षित करने का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी वाकपटुता और तर्कशक्ति ने संविधान निर्माताओं को यह एहसास दिलाया कि भारत का लोकतंत्र तभी पूर्ण होगा, जब इसमें आदिवासियों की आवाज शामिल होगी।

आदिवासी महासभा की स्थापना: एकजुटता का प्रतीक
1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी महासभा की स्थापना की, जो आदिवासी समुदाय के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। इसका उद्देश्य था आदिवासियों को संगठित करना, उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाना और शोषण के खिलाफ संघर्ष करना। इस मंच के माध्यम से उन्होंने बिहार से अलग झारखंड राज्य की मांग को मजबूती दी। महासभा ने न केवल राजनीतिक जागरूकता फैलाई, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को भी बढ़ावा दिया।
1939 में रांची में आयोजित एक विशाल सभा में उन्हें सर्वसम्मति से इसका नेतृत्व सौंपा गया। अपने भाषण में उन्होंने कहा, “मैं पूर्ण निष्ठा के साथ उस कार्य के लिए समर्पित हूं, जिसकी महती जिम्मेदारी आप मुझे सौंप रहे हैं।” इस संगठन ने बाद में 1950 में “झारखंड पार्टी” का रूप लिया, जो आदिवासियों के लिए एक मजबूत राजनीतिक मंच बना।
झारखंड राज्य की मांग: एक सपने का पीछा
जयपाल सिंह मुंडा ने सबसे पहले 1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सामने झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग रखी। उनका सपना था कि मध्य-पूर्वी भारत के आदिवासी क्षेत्रों—झारखंड, उड़ीसा का उत्तरी भाग, छत्तीसगढ़ और बंगाल के कुछ हिस्सों—को मिलाकर एक स्वायत्त राज्य बनाया जाए। इस मांग को उन्होंने संविधान सभा और झारखंड पार्टी के जरिए आगे बढ़ाया।
1952 के चुनावों में झारखंड पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया, जिसमें 3 लोकसभा सीटें और बिहार विधानसभा में 34 सीटें जीतीं। हालांकि, 1963 में कांग्रेस के साथ विलय के बाद यह आंदोलन कमजोर पड़ गया, लेकिन जयपाल की नींव पर ही 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ। उनका यह संघर्ष आज भी हमें सिखाता है कि सपनों को हकीकत में बदलने के लिए दृढ़ संकल्प और त्याग जरूरी है।
भाषाई और सांस्कृतिक पहचान: आदिवासीयत का गर्व
जयपाल सिंह मुंडा अपनी मातृभाषा मुंडारी के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में भी पारंगत थे। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई और आईसीएस की तैयारी के बावजूद, उन्होंने अपनी आदिवासी पहचान को कभी नहीं छोड़ा। ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी उन्होंने अपना नाम “ईश्वर दास” के बजाय “जयपाल सिंह मुंडा” ही रखा, जो उनकी जड़ों से गहरे जुड़ाव को दर्शाता है।
उन्होंने “आदिवासी सकम” नामक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन भी किया, जो आदिवासी महासभा का मुखपत्र था। इस माध्यम से उन्होंने आदिवासी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करने का प्रयास किया। उनका मानना था कि आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर ही उसकी असली ताकत है।
आधुनिक संदर्भ में महत्व: एक जीवंत प्रेरणा
आज के समय में, जब आदिवासी समुदाय जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है, जयपाल सिंह मुंडा के विचार और प्रयास पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। उनका यह कथन—”आप आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते, बल्कि उनसे समानता और सह-अस्तित्व सीखना होगा”—आधुनिक भारत के लिए एक सबक है। पर्यावरण संरक्षण, सामुदायिक जीवन और आत्मनिर्भरता जैसे मूल्य, जो आदिवासी संस्कृति का हिस्सा हैं, आज वैश्विक संकटों के समाधान के रूप में देखे जा रहे हैं।
उनकी विरासत आज भी झारखंड और पूरे भारत के आदिवासी युवाओं को अपने हक के लिए लड़ने और अपनी पहचान को गर्व से अपनाने की प्रेरणा देती है।
स्मृति और सम्मान: एक अमर नायक की याद
जयपाल सिंह मुंडा की स्मृति में कई सम्मान स्थापित किए गए हैं। मध्य प्रदेश के अमरकंटक में इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी में “जयपाल सिंह मुंडा स्टेडियम” उनके खेल और नेतृत्व के योगदान का प्रतीक है। झारखंड में उनके नाम पर सड़कें, स्कूल और स्मारक बनाए गए हैं, जो उनकी उपलब्धियों को जीवित रखते हैं। उनकी पुण्यतिथि पर हर साल लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जिससे यह साबित होता है कि उनका प्रभाव समय की सीमाओं से परे है।
जयपाल सिंह मुंडा: एक अनंत प्रेरणा
जयपाल सिंह मुंडा सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक विचार थे—आदिवासी गर्व, संघर्ष और आत्मसम्मान का विचार। खेल के मैदान से लेकर संविधान सभा तक, और आदिवासी महासभा से झारखंड आंदोलन तक, उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनकी पुण्यतिथि हमें याद दिलाती है कि उनका सपना अब भी अधूरा है—एक ऐसा भारत जहां हर आदिवासी को उसका हक, सम्मान और पहचान मिले। आइए, इस अवसर पर उनके संकल्प को दोहराएं और उनके दिखाए मार्ग पर चलें। मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा को शत-शत नमन!
– गीतराज नेताम