रविवार, मई 25, 2025

ईश्वर पर सवाल उठाने वाला भगत सिंह का दिल छू लेने वाला लेख: “मैं नास्तिक क्यों हूं?”

Must Read

लाहौर, 27 सितंबर 1931

(प्रकाशित: द पीपुल अखबार)
लेखक: भगत सिंह

भारत के वीर सपूत और आजादी के दीवाने भगत सिंह ने जेल की कालकोठरी में बैठकर एक ऐसा लेख लिखा, जो आज भी हर दिल को झकझोर देता है। यह लेख 27 सितंबर 1931 को लाहौर के मशहूर अखबार “द पीपुल” में छपा था। इसमें भगत सिंह ने ईश्वर के वजूद पर गहरे और तर्कपूर्ण सवाल उठाए। उन्होंने दुनिया के बनने, इंसान के जन्म, उसके दुखों, शोषण और समाज में फैली अराजकता को बेबाकी से सामने रखा। यह लेख उनके सबसे चर्चित लेखों में से एक है, जो उनकी सोच की गहराई और नास्तिकता की वजह को बयां करता है।

एक मुलाकात और लेख की शुरुआत

यह कहानी शुरू होती है 1930-31 से, जब स्वतंत्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में बंद थे। बाबा एक धार्मिक इंसान थे। जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह ईश्वर में यकीन नहीं रखते, तो वे परेशान हो गए। किसी तरह वे भगत सिंह की कोठरी तक पहुंचे और उन्हें ईश्वर पर भरोसा करने की सलाह दी। लेकिन भगत सिंह नहीं माने। नाराज बाबा ने कहा, “प्रसिद्धि ने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है। तुम अहंकारी हो गए हो, और यही अहंकार तुम्हें ईश्वर से दूर कर रहा है।” इस टिप्पणी ने भगत सिंह को सोचने पर मजबूर किया और जवाब में उन्होंने यह लेख लिखा।

यह कहानी शुरू होती है 1930-31 से, जब स्वतंत्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में बंद थे। बाबा एक धार्मिक इंसान थे। जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह ईश्वर में यकीन नहीं रखते, तो वे परेशान हो गए। किसी तरह वे भगत सिंह की कोठरी तक पहुंचे और उन्हें ईश्वर पर भरोसा करने की सलाह दी। लेकिन भगत सिंह नहीं माने। नाराज बाबा ने कहा, “प्रसिद्धि ने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है। तुम अहंकारी हो गए हो, और यही अहंकार तुम्हें ईश्वर से दूर कर रहा है।” इस टिप्पणी ने भगत सिंह को सोचने पर मजबूर किया और जवाब में उन्होंने यह लेख लिखा।

क्या अहंकार ने मुझे नास्तिक बनाया?

भगत सिंह लिखते हैं, “एक सवाल मेरे सामने खड़ा है- क्या मैं अहंकार की वजह से सर्वशक्तिमान ईश्वर को नहीं मानता? मेरे कुछ दोस्तों का कहना है कि मैं घमंड में डूब गया हूँ, जो मुझे ईश्वर से दूर ले जा रहा है। मैं मानता हूँ कि मैं इंसान हूँ, और इंसान की कमजोरियाँ मुझमें भी हैं। अहंकार भी मेरे स्वभाव का हिस्सा है। मेरे साथी मुझे कई बार ‘निरंकुश’ कहते थे। मेरे दोस्त बटुकेश्वर दत्त भी मुझे ऐसा कहते थे। कई बार लोग शिकायत करते कि मैं अपने विचार उन पर थोपता हूँ। यह कुछ हद तक सच है। लेकिन क्या यह अहंकार मुझे नास्तिक बना सकता है?”

वे आगे कहते हैं, “मैंने इस सवाल का गहराई से अध्ययन किया। क्या मेरा घमंड मुझे ईश्वर से दूर ले गया, या यह मेरे तर्क और सोच का नतीजा है? मैं समझ नहीं पाता कि अहंकार किसी को ईश्वर से कैसे दूर कर सकता है। अगर कोई इंसान खुद को ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी या ईश्वर मानने लगे, तब भी वह पूरी तरह नास्तिक नहीं हो सकता। मैं तो उस सर्वशक्तिमान के वजूद को ही नकारता हूँ। यह अहंकार नहीं, बल्कि मेरी सोच है।”

नास्तिकता की जड़ें: बचपन से क्रांति तक

भगत सिंह बताते हैं कि उनकी नास्तिकता कोई नई बात नहीं थी। वे लिखते हैं, “मैंने ईश्वर पर यकीन करना तब छोड़ दिया, जब मैं एक अनजान नौजवान था। कॉलेज में मैं न तो बहुत मेहनती था, न ही घमंडी। मैं शर्मीला और थोड़ा निराशावादी था। मेरे बाबा, जिनके साथ मैं बड़ा हुआ, एक कट्टर आर्य समाजी थे। मैंने डीएवी स्कूल में पढ़ाई की, जहाँ सुबह-शाम प्रार्थना और गायत्री मंत्र जपता था। तब मैं पूरा भक्त था।”

लेकिन समय बदला। वे लिखते हैं, “असहयोग आंदोलन के दौरान मैं नेशनल कॉलेज में आया। यहाँ मैंने धर्म और ईश्वर पर सवाल उठाना शुरू किया। क्रांतिकारी दल में शामिल होने के बाद भी मेरी सोच बदलती गई। मैंने बाकुनिन, मार्क्स, लेनिन जैसे नास्तिक विचारकों को पढ़ा। 1926 तक मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान ईश्वर की बात बकवास है।”

दुनिया के दुख और ईश्वर का जवाब

भगत सिंह पूछते हैं, “अगर ईश्वर है, तो उसने यह दुनिया क्यों बनाई- दुख, शोषण और गरीबी से भरी हुई? क्या वह इन दुखों का मजा लेता है? नीरो ने रोम जलाया, चंगेज खाँ ने हजारों को मारा, लेकिन ईश्वर हर पल लाखों को दुख देता है। फिर उसे कैसे सही ठहराया जाए?” वे कहते हैं, “मैंने देखा कि गरीबी एक अभिशाप है। एक गरीब बच्चा पढ़ नहीं सकता, समाज उसे ठुकराता है। क्या यह उसके पिछले जन्म का फल है? यह तर्क मुझे मंजूर नहीं।”

वे आगे लिखते हैं, “ईश्वर में यकीन इंसान को सुकून देता है। लेकिन मैं उस सुकून को नहीं चुन सकता। मैं जानता हूँ कि फाँसी का फंदा मेरा आखिरी पड़ाव होगा। उसके बाद कुछ नहीं बचेगा। फिर भी, मैंने अपनी जिंदगी आजादी के लिए कुर्बान की, बिना किसी स्वार्थ के।”

आखिरी परीक्षा: फाँसी के फंदे तक

1927 में लाहौर में गिरफ्तारी के दौरान पुलिस ने भगत सिंह को डराने की कोशिश की। उन्हें कहा गया कि अगर वे क्रांतिकारी गतिविधियों का बयान दें, तो छोड़ दिए जाएंगे। लेकिन भगत सिंह हँसे और बोले, “हम अपनी जनता पर बम नहीं फेंकते।” पुलिस ने फाँसी की धमकी दी, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। वे लिखते हैं, “यह मेरी असली परीक्षा थी। मैंने फैसला किया कि मुश्किल वक्त में भी ईश्वर की शरण नहीं लूँगा। मैं नास्तिक था और नास्तिक ही रहूँगा।”

भावनाओं और तर्क का मेल

भगत सिंह का यह लेख सिर्फ तर्कों का पुलिंदा नहीं, बल्कि एक संवेदनशील इंसान की भावनाओं की गहराई भी है। वे कहते हैं, “ईश्वर में यकीन मेरा बोझ हल्का कर सकता था। लेकिन मैंने सच को चुना। मैं चाहता हूँ कि लोग अंधविश्वास छोड़ें और अपने पैरों पर खड़े हों। मेरी मौत कोई अंत नहीं, बल्कि आजादी की लड़ाई का हिस्सा है।”

एक महान योद्धा का संदेश

भगत सिंह का यह लेख न सिर्फ उनकी नास्तिकता की कहानी है, बल्कि एक क्रांतिकारी की सोच और उसके जज्बे की मिसाल भी है। जेल की सलाखों के पीछे, फाँसी से कुछ कदम दूर, उन्होंने न सिर्फ ईश्वर पर सवाल उठाए, बल्कि इंसानियत के दुखों को आवाज दी। यह लेख हर उस इंसान को सोचने पर मजबूर करता है जो दुनिया के दुखों को देखकर चुप रह जाता है। भगत सिंह आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके ये शब्द हमें हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे।

- Advertisement -
  • nimble technology
Latest News

निर्वाचन आयोग का बड़ा फैसला: मतदान केंद्रों पर मिलेगी मोबाइल जमा सुविधा, प्रचार नियमों में भी बदलाव

रायपुर (आदिनिवासी)। मतदाताओं की सुविधा को ध्यान में रखते हुए भारत निर्वाचन आयोग ने दो महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए...

More Articles Like This