शनिवार, अप्रैल 19, 2025

हसदेव में कोयला खनन के लिए आदिवासियों पर अत्याचार: सरकार की नीतियों पर उठे गंभीर सवाल!

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AILAJ की आलोचना, संविधान और वन्यजीव संरक्षण की अनदेखी

रायपुर (आदिनिवासी)। छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में जारी अवैध खनन और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हुई हिंसा ने मानव अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस (AILAJ) ने इस हिंसा की कड़ी निंदा करते हुए इसे असंवैधानिक और मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया है।

हसदेव अरण्य, जो अडानी जैसी कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए कोयला खनन का मुख्य केंद्र बन गया है, आदिवासी समुदायों और जैव विविधता से भरा एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यहां आदिवासी समुदाय अपनी जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे, लेकिन छत्तीसगढ़ पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया। यह घटना संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 में निहित शांतिपूर्ण विरोध और सभा के अधिकार का खुला उल्लंघन है।

पुलिस की कार्रवाई पर सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि पुलिस द्वारा बल का प्रयोग केवल अपरिहार्य परिस्थितियों में ही होना चाहिए, वह भी न्यूनतम हानि पहुंचाने वाले तरीकों से। रामलीला मैदान केस [(2012) 5 SCC 1] और अन्य मामलों में अदालत ने यह सिद्धांत स्थापित किया है। बावजूद इसके, हसदेव में पुलिस ने निहत्थे ग्रामीणों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर बेरहमी से हमला किया। ऐसे प्रदर्शनकारी, जिनमें रामलाल करियाम जैसे लोग शामिल थे, सिर्फ अपने घरों और जंगलों की रक्षा के लिए खड़े थे।

अवैध खनन का संकट

हसदेव अरण्य में अवैध खनन लंबे समय से एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। आदिवासी समुदायों की भूमि पर कोयला खनन की परियोजनाओं को लगातार आगे बढ़ाया जा रहा है, जो पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (PESA) और वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) का सीधा उल्लंघन है। इन कानूनों के अनुसार, ग्राम सभाओं की सहमति अनिवार्य होती है, लेकिन यहां फर्जी हस्ताक्षर और जाली सहमतियां बनाकर खनन को मंजूरी दी गई है। यह आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों पर सीधा हमला है, जो उनकी आजीविका और सांस्कृतिक पहचान से गहरे जुड़े हैं।

आदिवासी अधिकारों का हनन

भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करती है, जिसमें स्पष्ट है कि उनकी भूमि के किसी भी उपयोग से पहले उनकी सहमति अनिवार्य है। बावजूद इसके, हसदेव के साल्ही और हरिहरपुर के ग्रामीणों ने बताया कि उनसे कोई सहमति नहीं ली गई और जाली दस्तावेज़ों के आधार पर उनकी भूमि का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह संविधान और मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है।

पर्यावरणीय प्रभाव और सरकारी उदासीनता

हसदेव अरण्य के वन क्षेत्र में जारी खनन गतिविधियाँ न केवल आदिवासियों के अधिकारों का उल्लंघन कर रही हैं, बल्कि यह पर्यावरण पर भी विनाशकारी प्रभाव डाल रही हैं। भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (ICFRE) और भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) की रिपोर्टों में इस क्षेत्र में वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान को उजागर किया गया है। इसने वन्यजीवों, खासकर हाथियों और इंसानों के बीच संघर्ष को बढ़ावा दिया है।

सरकार की ओर से इस “नो-गो” क्षेत्र में खनन की अनुमति देकर आर्थिक लाभ को पर्यावरण और आदिवासियों के अधिकारों से ऊपर रखा गया है। यह दर्शाता है कि सरकार का पर्यावरण संरक्षण और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के प्रति रवैया किस हद तक कमजोर है।

सरकार की नीतियों पर आलोचना

AILAJ ने छत्तीसगढ़ की सरकार की आदिवासी और पर्यावरण विरोधी नीतियों की कड़ी आलोचना की है। बार-बार यह देखा गया है कि सरकार कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता देते हुए संवैधानिक जिम्मेदारियों को नज़रअंदाज़ कर रही है। यह न केवल आदिवासियों के अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी चोट है।

हम मांग करते हैं कि अवैध खनन को तुरंत रोका जाए और हसदेव के लोगों पर हुई पुलिस हिंसा के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को जवाबदेह ठहराया जाए।

इस पूरे घटनाक्रम ने यह सिद्ध कर दिया है कि सरकार और कॉर्पोरेट्स का गठजोड़ आदिवासियों और पर्यावरण की रक्षा के बजाय उन्हें नुकसान पहुंचाने में जुटा है। ऐसे में, जनता की जागरूकता और एकजुटता ही इस अन्याय को समाप्त करने का सबसे बड़ा साधन हो सकता है।

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