गुरुवार की दोपहर चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर जो घटा, उसके बाद की वीडियोज कुलविंदर कौर जी की भी हैं और कंगना रनौत जी की भी हैं – मगर उस एक्शन की कोई वीडियो नहीं दिखी, जिसकी रिएक्शन में ये दोनों बोली हैं। इसलिए थोड़ी दुविधा है। यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि जो कंगना जी के गाल पर लगा : वह चांटा था, तमाचा था, झापड़ था, थप्पड़ था, रहपट था या लप्पड़ था, चपेट थी या चमाट थी। ये सिर्फ शब्दों का मामला नहीं है – ये सभी अलग-अलग तरह की क्रियाएं हैं, इनकी प्रक्रियाएं भी अलग होती हैं, जैसे : चांटा मारा जाता है, तमाचा लगाया जाता है, झापड़ रसीद किया जाता है, थप्पड़ गुंजाया जाता है, लप्पड़ चिपकाया जाता है, रहपट चटकाया जाता है और चपेट चपेटी जाती है, चमाट दी जाती है। हरेक की ध्वन्यात्मकता – साउंड इफ़ेक्ट — और उससे पैदा होने वाली झंकृति – वाइब्रेशन — की तरंगों की तीव्रता और प्रभावशीलता की अवधि भिन्न होती है ; ज्यादा विस्तार में नहीं जा रहे, क्योंकि डॉ. डैंग अनुपम खेर इसे ‘कर्मा’ फिल्म में वाक्यों में प्रयोग करके बता चुके हैं।
असल अंतर रूप में नहीं, सार में होता है। जैसे इनमें से हरेक के पीछे के आवेग और संवेग, इरादे और उद्देश्य भी अलग होते हैं। ये – इनमें पटका, थपेड़, थपेड़ा, थपड़ी, चांप, चटकारा, थपकी और जोड़ लें – अलग-अलग क्रियाएं ध्यान दिलाने, रोष जताने, सबक सिखाने, भिन्न-भिन्न मात्राओं का गुस्सा निकालने, सजा देने जैसे अलग-अलग भाव से भीनी होती हैं। आगे कभी एक्शन के समय की सीसीटीवी रिकॉर्डिंग सामने आयेगी, तब शायद तय करना आसान हो जाएगा कि गुरुवार को जो हुआ, वह घटना किस शब्द संबोधन की अधिकारी है। तब तक के लिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिलहाल इन पंक्तियों का मकसद इस एक तमाचे या वह जो भी था, पर मचे तमाशे और उसमें भी कथित सिविल सोसायटी में मची – भले अभी तक धीमी-धीमी – हाय तौबा पर है। “अरे ऐसा नहीं होना चाहिए था”, “हम कंगना से सहमत नहीं हैं, किन्तु जो हुआ वह भी सही नहीं है”, “एक महिला के साथ एक महिला द्वारा अपनी पोजीशन का फ़ायदा उठाकर हमला” से शुरू होकर इस तरह की प्रतिक्रियाएं गिरते, ररकते, लुढ़कते, फिसलते कुलविंदर कौर जी और उनके बहाने किसान आंदोलन को कोसने और पंजाब में कथित रूप से “बढ़ते आतंकवाद और उग्रवाद को कैसे हैंडल करेंगे” कहते हुए पूरे पंजाब को धिक्कारने तक पहुँच जाती हैं। (ऐसा स्वयं कंगना जी और उनके जैसे कुछ औरों ने कहा है।)
इन स-भ्रांत जनों और जनियों में से कुछ ने तो भारतीय दंड संहिता ही बदल दी और इस घटना को हिंसा करार दे दिया और जिन्हें कभी याद नहीं आये, उनने भी गांधी जी की दुहाई देना शुरू कर दिया। ये अलग बात है कि दूसरा गाल आगे करने की गांधी की सलाह तो कंगना जी ने भी नहीं मानी थी। ये द्विज अपर मिडिल क्लासिये इतना लिजलिजा, गिलगिला चुनिन्दापन – सेलेक्टिवनेस – कहाँ से लाते हैं? इनकी संवेदनाओं की पोटली में ऐसी कौन सी गुठुर गाँठ लगी है, जो एक ख़ास तमाचे पर तो झटाक से खुल जाती है – मगर जब कर्नाटक में राकेश टिकैत के चेहरे पर काली स्याही फेंककर भद्दी गाली गलौज की जाती है, जब बीच चुनाव अभियान में ठेठ दिल्ली में एक भाजपाई गुंडा गठबंधन के प्रत्याशी कन्हैया कुमार और उनके प्रचार में चलने वाली महिला कार्यकर्ता पर हमला कर देता है, जब चिदम्बरम पर जूता फेंकने वाले से लेकर इस तरह के अपराधों में लिप्त सारे – सारे यानी सारे – व्यक्तियों से भाजपा भरत मिलाप करती है उन्हें अपना नेता बनाती है, जब यौन अपराधों के आरोपी ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ कार्यवाही की मांग करने के जुर्म में भारत की खेल दुनिया की चमकदार आकाशगंगाओं के कपड़े और बाल खींचकर मारपीट की जाती है, जब गौरी लंकेश की ह्त्या के बाद जश्न मनाया जाता है और “एक कुतिया क्या मरी, पिल्ले बिलबिलाने लगाने लगे” जैसे बोलवचन बोले जाते हैं, जब कठुआ की 8 वर्ष की मासूम आसिफा बानो एक पूजाघर के गर्भगृह में अमानुषिक हवस और यातनाओं की शिकार बनाकर मार डाली जाती है, जब हाथरस की बेटी मुखाग्नि और सम्मानजनक अंतिम विदाई तक से वंचित कर दी जाती है, जब फिल्म इंडस्ट्री में भी चुन चुनकर लिंचिंग जैसी की जाती है, पठान और जवान के लिए शाहरुख तक नहीं बख्शे जाते (फिलहाल इतना ही, यह सूची ऐसे मसलों पर इनकी सेलेक्टिव चुप्पी से भी ज्यादा लम्बी है।) ; तब इनकी संवेदनाओं की गठरी की गाँठ, गोर्डियन गाँठ की तरह खुलने से मुकर जाती है । इनके ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि सोशल मीडिया एकाउंट्स झाँक लीजिये, सुन्न बटा सन्नाटा पसरा मिलेगा । ये कौन लोग हैं? ये कहाँ से आते हैं?
कईयों को तो अचानक वर्दी का माहात्म्य याद आने लगा – कहने लगे कि वर्दी पहनकर तो ऐसा नहीं करना चाहिए था। यह अज्ञानी कुतर्क इस काबिल भी नहीं कि इसका खंडन भी किया जाए। यहाँ भी यह नस्ल पाखंडी ही है। उन्हें इस वर्दी का प्रताप अगर किसान-मजदूरों के साथ हर रोज के बर्ताव, मणिपुर से बीजापुर होते हुए आदिवासी बसाहटों के संताप में नहीं दिखता, तो रेलवे प्लेटफॉर्म, चौराहों पर गरीबों को रुई की तरह धुनते हुए तो कभी न कभी दिखा ही होगा!! उस वक़्त वर्दी का अनुशासन याद नहीं आया। खैर!!
हम इस घटना को सही मानते हैं या गलत?
इस सवाल से पहले का सवाल यह है कि आखिर हम होते कौन हैं निर्णय सुनाने वाले? यदि राजनीतिक और सामाजिक जीवन में इस तरीके का इस्तेमाल किया जाता है, तो हमें राय बनानी भी चाहिए, बेधडक देनी भी चाहिए, बनाते भी हैं, देते भी हैं। निंदा भी करते हैं, भर्त्सना भी करते हैं, उनके विरुद्ध खड़े भी होते हैं । मगर न तो कुलविंदर जी राजनीति में हैं, ना हीं उन्होंने किसी राजनीतिक मतभेद या इरादे से ऐसा किया है। इधर बुद्ध, उधर कन्फ्यूशियस कह गए हैं कि किसी भी घटना को उसके सन्दर्भ से काटकर नहीं देखा जाना चाहिए। इसका सन्दर्भ वे दो वाक्य हैं जो क्रिया के बाद कुलविंदर जी ने बोले हैं। वे कहती हैं कि : “इसने बयान दिया था न कि महिलाएं सौ-सौ रुपये के लिए बैठती हैं वहां पर। ये बैठेगी वहां पर? उस वक़्त जब इसने बयान दिया था, तब किसान आंदोलन में मेरी माँ बैठी थी।” इस तरह साफ़ हो जाता है कि वे अपनी माँ के बारे में इतने घिनौने स्तर की बात किये जाने और उन्हें अपमानित किये जाने से आहत थी।
कंगना जी का यह बयान सिर्फ एक बार का नहीं था। उन्होंने झुकी कमर वाली अत्यंत वृद्ध महिला मोहिंदर कौर के किसान आन्दोलन के एक फोटो को शाहीन बाग़ की दादी बिलकिस बानो बताते हुए लिखा था कि “हा हा हा, ये वही दादी है, जिसे टाइम मैगज़ीन ने मोस्ट पावरफुल इंडियन के तौर पर अपनी लिस्ट में शामिल किया था और ये 100 रुपये में उपलब्ध हैं।“ एक जन्मना स्त्री कंगना एक बुजुर्ग स्त्री के सौ रूपये में उपलब्ध होने की बात कहकर सारी सीमाएं लांघ रही थीं, खुद के महिला होने के नाते पाए जाने वाले बर्ताब के हक को गँवा रही थीं!! उनके सहविचारी अनुपम खेर की भाषा में कहें तो यह “एक महिला द्वारा एक महिला पर अपनी पोजीशन का फायदा उठाकर किया गया हमला है।“ असल हिंसा यह है – जुगुप्सा जगाने वाली घृणित हिंसा। हिंसा सिर्फ दैहिक नहीं होती, वह वाचिक भी होती है ; शरीर से नहीं होती, शब्दों से भी होती है।
इन पंक्तियों के लेखक की परवरिश चम्बल के इलाके की है – अपने राजनीतिक सरोकारों के चलते किश्तों में उसे करीब साढ़े तीन वर्ष उस जेल में रहना पड़ा है, जहां जिन्हें डाकू कहा जाता है, उनकी भरमार थी। फूलन देवी सहित प्रायः सभी से लम्बी चर्चाएँ हुयी ; वे अपने को डाकू नहीं, बागी कहते थे और 90 फीसदी मामलों में ठीक ही कहते थे, फूलन जी सहित वे अपनी तरह के बागी थे। उनके अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि जब समाज और उसके प्रतिष्ठान, न्यायप्रणाली और सामाजिक मूल्यों को बनाये रखने के जिम्मेदार लोग अपनी भूमिका निबाहना बंद कर देते हैं, आततायियों, अपराधियों और उनकी बेहूदगियों को अश्लीलता की हद तक संरक्षण देने लगते हैं, तब व्यक्ति/व्यक्तियों में हताशा पैदा होती है। यह हताशा रोष, विक्षोभ और असहायता की खीज के ऐसे स्फोटों में दिखाई देती है।
इसलिए कोई फतवा, कोई सदुपदेश, कोई राय देने के पहले कुलविंदर जी की मनोदशा में खुद को देखिये ; एक युवती, क़ानून के राज में विश्वास करने वाली युवती, क़ानून व्यवस्था बनाए रखने का प्रशिक्षण पाई भारत की बेटी उम्मीद करती है कि उसकी माँ सहित देश की स्त्रियों के बारे में अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्ति को समाज उपेक्षित करेगा। वह व्यक्ति जिस विचार समूह, जिस पार्टी में है, वे उसकी निंदा करेंगे, उससे पल्ला झाडेंगे, क़ानून उसे दण्डित करेगा। एक दिन भरी दोपहरी में उसे दिखता है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि इसका एकदम उलटा हुआ और वही बदजुबान, शाब्दिक हिंसा का आदतन अपराधी, असभ्य और अभद्र व्यक्ति पुरस्कृत और सम्मानित होकर हेंकड़ी दिखाते हुए उसके सामने आ जाता है, तो जो निराशा और खीज होती है, वह इस तरह की घटनाओं की वजह बनती है।
चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर उठा हाथ हताशा में उठा हुआ हाथ था – एक बेटी का अपनी माँ के मान में उठा हाथ था। जब माँ सामने हो, तो नौकरी-वौकरी, सजा-वजा की परवाह कौन करता है। कुलविंदर कौर जी की जगह शुभप्रीत कौर भी होती, तो यही करती।
गुरुवार की दोपहर उठे उस हाथ का तमाचा किसी एक गाल पर नहीं पड़ा, वह तमाचा उन सब के गाल, भाल और कपाल पर है, जो सामाजिक जीवन में भूमिका निबाहने का साहस जुटाने वाली स्त्रियों को इतना नीचे जाकर लांछित और अपमानित करते हैं, ऐसा किये जाने पर मूकदर्शक बन जाते हैं या गुदगुदाहट महसूस करते हैं। उन पर भी है, जो ऐसा किये जाने को महिमा मंडित करते हैं, गैंगरेप के मुजरिमों के स्वागत में जलूस निकालते हैं, बिलकिस बानो काण्ड के अपराधियों को राष्ट्रभक्त और उच्च कुलीन हिन्दू बताकर सिर्फ हिन्दुओं को ही नहीं, पूरे हिन्दुस्तान की मनुष्यता को कलंकित करते हैं ।
इन वजहों को रोक दीजिये, यही हाथ एक से दो होकर आपस में जुड़कर प्रणाम और नमस्कार में बदल जायेंगे। अगर ऐसा कहने की हिम्मत नहीं है, तो मेहरबानी कीजिये ; जब्त करने की बजाय व्यक्त करने वाली कुलविंदर कौर जी को सदाचार का पाठ मत पढ़ाइये। क्योंकि “हमे क्या फर्क पड़ता है” के भाव से बहुत फर्क पड़ता है। चुनाव नतीजों के बाद अयोध्यावासियों के बारे में जो कहा जा रहा है या खुद कंगना जी ने पंजाब के बारे में जो निहायत गैर-जिम्मेदराना बात कही है, वे ताजे उदाहरण है ; कुलविंदर जैसे हाथ भविष्य में इस तरह से नहीं उठें, इसके लिए जरूरी है कि ऐसी उकसावेपूर्ण बातों और उनके उद्गमों के खिलाफ हमारे हाथ खड़े हों!!
पुनश्च : कंगना रनौत के सामने ‘जी’ इसलिए भर नहीं लिखा गया कि वे अब माननीय सांसद महोदया है। मान पद-वद से नहीं मिलता, उसे अर्जित किया जाता है ; कंगना जी ने इसका विलोम कमाया है। इसलिए भी नहीं कि कुलविंदर कौर के आगे ‘जी’ लगाना था, सो संतुलन बनाना था ; बल्कि इसलिए लिखा है कि कुछ फिल्मों में उनका अभिनय पसंद आया था – उन्हें देखकर हमेशा मेदिनीपुर की कमला और अमला नाम की दो लड़कियों की कहानी याद आती है। कोई सौ साल पहले भेडियों का एक समूह इनमें से एक उठाकर ले गया था और इन्हें पाला था ; कुछ वर्ष बाद जब इन्हें मुक्त कराया गया, तब यह पता चला कि जो बहन उनके झुण्ड में रही, वह मनुष्यों की सारी आदतें भूलकर उन्हीं की तरह बर्ताब करना सीख गयी थी। गेट वेल सून कंगना जी!
(आलेख : बादल सरोज)
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)