“मछुआरों की नाव रैली से बांगो बांध क्षेत्र में गूंजा संघर्ष का स्वर, सरकार की ठेका नीति के खिलाफ उठी आवाज”
बुका/कोरबा (आदिनिवासी)। जल-जंगल-जमीन के सवाल पर एक बार फिर हसदेव नदी के तटों पर संघर्ष की लहर उठी है। बांगो बांध विस्थापित मछुआरों ने मत्स्य पालन के अपने अधिकार की पुनः बहाली के लिए नाव रैली निकालकर प्रशासन को स्पष्ट संदेश दिया है कि अब वे ठेकेदारों की दासता स्वीकार नहीं करेंगे। छत्तीसगढ़ किसान सभा और हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति जैसे संगठनों ने इस आंदोलन को अपना पूरा समर्थन दिया है।
छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला संविधान की पांचवीं अनुसूची में आने वाला आदिवासी बहुल इलाका है, जहां विकास कार्यों के लिए ग्राम सभाओं की सहमति आवश्यक है। पेसा कानून के प्रावधानों के बावजूद राज्य की पूर्ववर्ती कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सरकारों ने जल, जंगल और जमीन को निजी कंपनियों और ठेकेदारों के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यही नीति अब मछुआरों के अस्तित्व पर भी संकट बनकर मंडरा रही है।

🔹इतिहास में छिपा दर्द: बांध ने छीनी आजीविका, सरकार ने दिया था झूठा आश्वासन
1980 के दशक में जब हसदेव नदी पर पोढ़ी उपरोड़ा ब्लॉक में बांगो बांध का निर्माण हुआ, तब 58 आदिवासी बहुल गांव पूरी तरह डूब गए और हजारों परिवार विस्थापित हो गए। अपने घर, खेत और रोज़गार से वंचित इन परिवारों को तत्कालीन प्रशासन ने आश्वासन दिया था कि वे जलाशय में मत्स्य पालन कर जीवन-यापन कर सकेंगे। इसी आधार पर अनेक मछुआरा सहकारी समितियां गठित की गईं, जिन्होंने वर्षों तक रॉयल्टी के आधार पर मछली पालन किया।
🔹छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद शुरू हुआ निजीकरण का दौर
वर्ष 2000 में राज्य निर्माण के साथ ही निजीकरण की नीतियों ने जनहित पर गहरी चोट की। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने राज्य परिवहन निगम को समाप्त कर दिया और बाद की भाजपा सरकार ने मत्स्य पालन नीति को ठेका प्रणाली में बदल दिया। बांगो बांध, जो कभी विस्थापितों की जीविका का स्रोत था, निजी ठेकेदारों के कब्जे में चला गया।
इस ठेका व्यवस्था के कारण स्थानीय आदिवासी मछुआरे अपनी ही भूमि और जलाशय पर मजदूर बनकर रह गए। उन्होंने विरोध भी किया, परंतु मजबूत संगठन के अभाव में उनकी आवाज दबा दी गई। बीते दो दशकों से बुका विहार जलाशय निजी ठेकेदारों को सौंपा जाता रहा है।

🔹फिर उठी आवाज: मछुआरों ने बनाया अपना संगठन, किसान सभा का मिला साथ
पिछले ठेके की अवधि जून 2025 में समाप्त हुई। अब राज्य सरकार ने 10 वर्षों के नए ठेके के लिए निविदा जारी कर दी है। इसके विरोध में 52 गांवों के मछुआरे एकजुट होकर “आदिवासी मछुआरा संघ (हसदेव जलाशय)” का गठन कर चुके हैं। वे मांग कर रहे हैं कि पूर्व की तरह रॉयल्टी के आधार पर ही मछली पालन का अधिकार दिया जाए, ताकि स्थानीय समुदाय अपनी आजीविका को स्वतंत्र रूप से चला सके।
🔹संघर्ष का विस्तार: नाव रैली से लेकर एसडीएम कार्यालय तक गूंजी आवाज
5 अक्टूबर को बांगो बांध प्रभावितों का एक बड़ा सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें छत्तीसगढ़ किसान सभा, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति और अन्य जनसंगठनों के नेताओं – प्रशांत झा, दीपक साहू, रामलाल करियाम, मुनेश्वर पोर्ते, फिरतू बिंझवार, अथनस तिर्की, रामबली आदि ने भाग लिया। वक्ताओं ने कहा कि हसदेव जलाशय का निजीकरण आदिवासियों के संवैधानिक और आजीविका अधिकारों का खुला उल्लंघन है।
सम्मेलन के बाद सैकड़ों मछुआरों ने जलाशय में नाव रैली निकाली और सरकार से निविदा रद्द करने की मांग की। इसके अगले दिन, 6 अक्टूबर को उन्होंने एसडीएम कार्यालय का घेराव कर ज्ञापन भी सौंपा।
◽संघर्ष की दिशा और महत्व
यह आंदोलन केवल मत्स्य पालन के अधिकार का सवाल नहीं, बल्कि आदिवासियों के आत्म-सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई है। पेसा और वनाधिकार कानून की भावना के अनुरूप जल, जंगल और जमीन पर ग्राम सभाओं के स्वामित्व को सुनिश्चित करना लोकतंत्र की बुनियादी जिम्मेदारी है। मछुआरों की यह नाव रैली उसी न्यायपूर्ण व्यवस्था की पुकार है, जिसे दशकों से अनसुना किया जा रहा है।
(रिपोर्ट : संजय पराते)