शुक्रवार, अगस्त 29, 2025

विश्व आदिवासी दिवस पर सत्ता का मौन: भाजपा “आदिवासी” शब्द से क्यों डरती है?

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“जब पूरी दुनिया आदिवासी दिवस मना रही थी तब भारत में भाजपा ने चुप्पी क्यों साध ली? जानिए “आदिवासी” शब्द से उनके डर की असली वजह और उसके राजनीतिक मायने।”

9 अगस्त को पूरे विश्व में, विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया। यह दिन केवल उत्सव का नहीं, बल्कि स्मरण का दिन है – उस संघर्ष और बलिदान का, जो आदिवासी समाज ने अपनी पहचान, संस्कृति और जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए दिया है।
लेकिन, भारत की राजनीति में एक अजीब-सी चुप्पी देखने को मिली। सत्ता पक्ष भाजपा के छोटे-बड़े सभी नेता – चाहे वह पार्षद हो, विधायक या सांसद, मुख्यमंत्री हो या प्रधानमंत्री, यहाँ तक कि एक आदिवासी राष्ट्रपति तक – ने इस अवसर पर आदिवासी समाज को शुभकामनाएं तक नहीं दीं। एक साइलेंट, घनघोर चुप्पी।
सवाल यह उठता है कि आखिरकार सत्ता और विशेषकर भाजपा, “आदिवासी दिवस” और “आदिवासी” शब्द से इतनी दूरी क्यों बनाती है?

“आदिवासी” बनाम “जनजाति/वनवासी” : शब्दों की राजनीति

“शब्द केवल ध्वनि नहीं होते, वे अर्थ और इतिहास लेकर भी चलते हैं।”
“आदिवासी” का मतलब है – आदि का निवासी, मूलनिवासी, यानी इस धरती के सबसे पहले वाला बाशिंदा होना।
अगर सत्ता यह मान ले कि भारत में आदिवासी ही सबसे पहले थे, तो यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि बाकी जाति-समुदाय बाद में आए और उन्होंने आदिवासियों की भूमि, जल, जंगल और संसाधनों पर कब्ज़ा जमाया।
यानी “आदिवासी” शब्द खुद-ब-खुद एक राजनीतिक अधिकार और ऐतिहासिक स्वामित्व की मांग खड़ी कर देता है।

इसीलिए भाजपा और उसके सहयोगी, वैचारिक संगठन इस शब्द से बचकर “जनजाति” या “वनवासी” कहना और प्रचारित करना ज्यादा पसंद करते हैं।

“जनजाति” कहना = केवल एक समुदाय, समाज का हिस्सा।

“वनवासी” कहना = जंगलों में रहने वाले, मुख्यधारा से बाहर।

जबकि “आदिवासी” कहना = भारत के असली मालिक और सबसे पहले नागरिक।

“वनवासी” शब्द : एक सोचा-समझा एजेंडा

“वनवासी” शब्द केवल संयोग से नहीं आया, बल्कि आरएसएस और भाजपा की वैचारिक राजनीति का एक सुनियोजित हिस्सा है।
इस शब्द का इस्तेमाल यह जताने के लिए किया गया कि आदिवासी जंगलों तक सीमित हैं और “सभ्य समाज” से बहुत दूर हैं।
यानी, उनकी अपनी संस्कृति, परंपरा, आस्था और भाषा को “मूल” न मानकर, उन्हें हिंदू समाज में “लिस्टिंग” करने की हमेशा कोशिश की जाती है।

जबकि सच्चाई यह है कि आदिवासी न तो हिंदू हैं, न मुस्लिम, न ईसाई।
वे अपनी प्रकृति-आधारित संस्कृति और जीवन पद्धति के साथ हजारों सालों से अस्तित्व में हैं।
“वनवासी” कहना उनके इतिहास को छोटा करना है, जबकि “आदिवासी” कहना उन्हें भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता का वाहक मानना है।

बिरसा मुंडा और 15 नवंबर की राजनीति

इसके बदले, भाजपा ने 15 नवंबर, यानी बिरसा मुंडा की जयंती को “जनजातीय गौरव दिवस” घोषित किया है।
पहली नज़र में यह बड़ा सकारात्मक लगता है, लेकिन ध्यान दीजिए – यहाँ भी “आदिवासी” शब्द नहीं है।
क्योंकि अगर इसे “आदिवासी गौरव दिवस” कहा जाएगा, तो यह फिर उसी ऐतिहासिक सवाल को जन्म देगा –
कि क्या भारत की ज़मीन पर सबसे पहला हक़ आदिवासियों का है?

“गौरव दिवस” कहने से आदिवासी समाज की असली लड़ाई – जल, जंगल, ज़मीन और स्वशासन – सब पिछले पन्नों में धकेल दी जाती है, और यह दिन महज़ एक सांस्कृतिक उत्सव बनकर रह जाता है।
भाजपा बिरसा मुंडा का नाम तो लेती है, लेकिन उनके विद्रोह की मूल भावना – “दिकुओं” से संघर्ष और जमीन की आज़ादी – को साफ छिपा देती है।

भाजपा की वैचारिक पृष्ठभूमि

भाजपा और उससे जुड़े संगठन की नींव हिंदू राष्ट्रवाद पर टिकी है।
उनकी दृष्टि में तो आदिवासी भी हिंदू समाज का ही हिस्सा हैं।
इसलिए वे आदिवासियों की अलग पहचान को मान्यता देना ही नहीं चाहते।
“आदिवासी” कहना, मतलब यह स्वीकार करना कि यह समाज हिंदू, मुस्लिम या ईसाई आदि धर्मों से अलग अपना एक स्वतंत्र पहचान रखता है।

यही कारण है कि भाजपा आदिवासी संस्कृति को सिर्फ एक “लोक संस्कृति” बताकर हमेशा हिंदू परंपरा में मिलाने की कोशिश करती है।
त्योहार, पूजा, देवी-देवता – सबको “हिंदू रंग” देने का प्रयास किया जाता है।
लेकिन आदिवासी समाज की असली पहचान और उसकी ताकत, उसकी प्रकृति-आधारित जीवनशैली और स्वायत्तता में है, जिसे मुख्यधारा की राजनीति अक्सर स्वीकार करने से कतराती है।

सत्ता की चुप्पी : आदिवासी दिवस पर मौन क्यों?

जब पूरी दुनिया 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मना रही थी, भारत के सत्ताधारी नेता चुप क्यों रहे?

क्योंकि अगर वे इस दिन को खुले रूप से मान्यता देते, तो यह स्वीकारना पड़ता कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी हैं।

और अगर वे “मूल निवासी” हैं, तो फिर उनके जल-जंगल-जमीन पर सबसे पहला अधिकार भी उनका ही है।
यह सवाल सीधे-सीधे उनकी कॉर्पोरेट लूट, खनन और विस्थापन की उनकी पूंजीवादी राजनीति को चुनौती देता है।
यही कारण है कि भाजपा आदिवासी दिवस पर मौन रहना ही बेहतर समझती है।

आदिवासी बनाम जनजाति : फर्क क्यों मायने रखता है?

आदिवासी = भारत का सबसे पहला नागरिक, जल-जंगल-जमीन का मालिक।

जनजाति = केवल एक सामाजिक समूह, जिसे राज्य मदद दे रहा है।

वनवासी = जंगलों में रहने वाला, जिसे “सभ्य” बनाने की जिम्मेदारी सत्ता की है।

यानी कि “आदिवासी” शब्द अधिकार और स्वायत्तता देता है, जबकि “जनजाति/वनवासी” शब्द उन्हें आश्रित और अति पिछड़ा दिखाता है।
यह फर्क केवल भाषाई नहीं, बल्कि रणनीतिक, राजनीतिक और वैचारिक है।

भाजपा का असली संकट यह है कि अगर वह आदिवासियों को “आदिवासी” कहे, तो उसे यह मानना ही पड़ेगा कि भारत के असली मूलनिवासी वही हैं और बाकी सब बाद में आए। और,
यह स्वीकारना उसके पूरे हिंदू राष्ट्र के आगामी एजेंडे को चुनौती देता है।
इसलिए भाजपा आदिवासियों का वोट तो चाहती है, लेकिन उनकी असली पहचान को अब बिल्कुल नहीं बताना चाहती।

सच यह है कि –
“आदिवासी” कहना अब सत्ता के लिए भारी असहज हो रहा है, क्योंकि यह शब्द जल-जंगल-जमीन, अधिकार और इतिहास की मांग करता है। इसलिए सत्ता उन्हें “जनजाति” या “वनवासी” कहकर केवल संस्कृति और उत्सव तक ही सीमित रखना चाहती है।

अंतिम बात:
आदिवासी समाज को अपनी पहचान को लेकर अब सजग और सावधान होना होगा। क्योंकि पहचान केवल नाम का सवाल नहीं, बल्कि अस्तित्व, अस्मिता और अधिकार का भी सवाल है। अगर हम “आदिवासी” शब्द छोड़ देंगे, तो इतिहास भी हमसे पीछे छूट जाएगा और हमारा भविष्य भी खतरे में पड़ जाएगा।
“अपनी पहचान खो देना सबसे बड़ा विस्थापन होता है, और उसे बचाना सबसे बड़ा संघर्ष!”

“यह लेख आदिवासी सवाल को राजनीतिक दृष्टि से समझने की एक कोशिश है। इसमें उठाए गए सवाल हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि इस देश में आज सत्ता और समाज आखिर किस दिशा में जा रहा है। आदिवासी समाज को अपनी लड़ाई किस मोर्चे पर आगे बढ़ानी होगी, उन्हें कहां पहुंचना होगा और कब तक?”

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