भाजपा की राजनीति पर सवाल, संवैधानिक मूल्यों पर हमला: मजदूर संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध
नई दिल्ली/रायपुर (आदिनिवासी)। राष्ट्रगीत “वन्दे मातरम्” के रचयिता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और “जन गण मन” जैसे राष्ट्रगान के रचयिता नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर — दोनों ही बांग्लाभाषी। बंगाल ने न केवल देश को सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत दी, बल्कि आज़ादी के आंदोलन से लेकर विज्ञान, संगीत, और मानवता तक में अपना लोहा मनवाया। लेकिन आज, उसी बंगाल की भाषा बोलने वाले नागरिकों को “अवैध घुसपैठिया” कहकर देश से खदेड़ने की कोशिश की जा रही है।
बीते दिनों छत्तीसगढ़ में 40 और गुड़गांव में 70 बांग्लाभाषी मजदूरों को हिरासत में लिया गया। महाराष्ट्र से भी बांग्लाभाषी श्रमिकों को “पुशबैक” कर बांग्लादेश भेजा गया—जबकि वे भारत के नागरिक साबित हुए। इस स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं: क्या भाषा ही अब नागरिकता की कसौटी बन गई है?
मजदूर संगठन का तीखा विरोध: “यह संविधान पर हमला है”
राजमिस्त्री मजदूरों के संगठन ‘रेजा-कुली एकता यूनियन’ के प्रांतीय उपाध्यक्ष नजीब कुरैशी ने इस कार्रवाई की कड़ी निंदा करते हुए कहा,
“भाजपा की नीतियां समाज को बांटने और एकरूपता थोपने की हैं। बांग्लाभाषी नागरिकों को निशाना बनाकर वे न केवल मानवीय अधिकारों का हनन कर रहे हैं, बल्कि संविधान की बहुलतावादी आत्मा को भी आघात पहुँचा रहे हैं।”
उन्होंने कहा कि बंगाली समुदाय ने देश को विवेकानंद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जगदीश चंद्र बोस, सत्यजीत रे जैसे अमूल्य रत्न दिए। और अब उन्हें ‘घुसपैठिया’ कहना इतिहास से छल और वर्तमान से हिंसा है।
संघ विचारधारा: ‘एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल’ का एजेंडा?
कुरैशी का कहना है कि भाजपा की प्रेरणा आरएसएस की उस सोच से आती है, जो एकरूपता को राष्ट्रवाद मानती है।
“उनका नारा ‘हिन्दू, हिंदी, हिंदुस्तान’ इस सोच को उजागर करता है—जहां विविधता के लिए कोई जगह नहीं। ऐसे में अलग धर्म और भाषा वाले समुदाय निशाने पर आ जाते हैं।”
भाषा, संस्कृति और पहचान के अधिकार पर इस तरह के हमले को लोकतंत्र और संविधान की आत्मा के खिलाफ बताया गया है।
आरएसएस और मुस्लिम लीग में समानता का दावा
मजदूर नेता ने ऐतिहासिक दृष्टांत देते हुए कहा, “पाकिस्तान में जब मुस्लिम लीग ने उर्दू को जबरन थोपने की कोशिश की, तो बांग्ला भाषा आंदोलन ने इसका विरोध किया और अंततः बांग्लादेश का निर्माण हुआ। आज भारत में आरएसएस वही काम हिंदी के माध्यम से कर रहा है।”
यह चेतावनी भी दी गई कि हिंदी थोपने की राजनीति भारत की भाषाई विविधता, राज्यों की स्वायत्तता और लोकतांत्रिक संघीय ढांचे को नष्ट करने की ओर बढ़ रही है।

आदिवासी, दलित और गरीब भी खतरे में
नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई।
“छत्तीसगढ़ के लाखों आदिवासियों और दलितों के पास न तो जन्म प्रमाणपत्र हैं, न ज़मीन के दस्तावेज। ऐसे में क्या वे भी विदेशी ठहराए जाएंगे?”
मजदूर नेता ने सवाल उठाया कि बांग्लादेश से आए हिंदुओं को नागरिकता देने की बात कहने वाली भाजपा, देश के आदिवासियों को कहां रखेगी जो न तो ‘हिंदू’ हैं, न ही उनके पास कोई प्रमाण?
भाषा आधारित राज्यों और संघीय ढांचे पर हमला
भारत में राज्य भाषा के आधार पर बने, यह संवैधानिक हकीकत है। लेकिन एक भाषा को पूरे देश पर थोपने का प्रयास इस सोच को नकारने की साजिश है।
“बांग्लाभाषा दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी भाषा है। फिर उसे विदेशी भाषा, और बांग्लाभाषियों को विदेशी कहना—एक बेहद खतरनाक, असंवैधानिक सोच है।”
राजनीति से ऊपर उठकर पहचान और गरिमा की रक्षा का सवाल
आज जब बांग्लाभाषी समुदाय को शक की नजर से देखा जा रहा है, तब ज़रूरत है सच्चे भारतीय होने की पहचान को समझने की—जो भाषा, धर्म या जाति से नहीं, बल्कि समान अधिकार, गरिमा और मानवता के मूल्यों से बनती है।
भाजपा की विभाजनकारी नीति पर समाज के सभी वर्गों को सचेत होकर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करनी होगी। क्योंकि यदि आज बंगालियों पर हमला हुआ है, तो कल यह चक्र किसी और भाषा, जाति या समुदाय की ओर घूमेगा।
यह केवल बांग्लाभाषियों का सवाल नहीं है, यह पूरे भारत की विविधता, बहुलता और लोकतंत्र की आत्मा का सवाल है। जो भाषा राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान रच सकती है, वह ‘घुसपैठिया’ नहीं हो सकती।