समाज में जब निजी सम्पत्ति नहीं थी तो कोई वर्ग नहीं था अर्थात कोई अमीर-गरीब नहीं था, कोई ऊँच-नीच नहीं था बराबरी थी। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब निजी सम्पत्ति के बाद आये.
समाज में जब निजी सम्पत्ति नहीं थी तो कोई वर्ग नहीं था अर्थात कोई अमीर-गरीब नहीं था, कोई ऊँच-नीच नहीं था बराबरी थी। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब निजी सम्पत्ति के बाद आये। और यह निजी सम्पत्ति उत्पादन के लिए होने वाले श्रम विभाजन और इसके विकास के क्रम में विनिमय की समस्याओं को हल करने के लिए पैदा हुई। दरअसल सामूहिक सम्पत्ति को बेचने और खरीदने की कठिनाई बढ़ती जा रही थी, जिसे आसान करने के लिए निजी सम्पत्ति आवश्यक हो गयी थी।
परन्तु निजी सम्पत्ति के आने से एक नयी समस्या आ गयी। अमीरी और गरीबी दरअसल निजी सम्पत्ति सबके पास बराबर रह ही नहीं सकती। हजारों बार निजी सम्पत्ति बराबर-बराबर बाँट कर देख लीजिये, हर बार थोडे़ ही समय बाद लोगों में अमीरी-गरीबी दिखने लगेगी। अतः कोई भी भारी भरकम संविधान लागू करके देख लीजिये, निजी सम्पत्ति के रहते समानता आ ही नहीं सकती। निजी सम्पत्ति के समाज में अनिवार्य रूप से दो परस्पर विरोधी वर्ग होते ही हैं। परस्पर विरोधी इसलिये कि दोनों के हित एक दूसरे के विपरीत होते हैं। इसी वजह से इन विरोधी वर्गों के बीच संघर्ष होता रहता है। इस वर्ग संघर्ष में शोषक वर्ग बहुत सचेतन रूप से अपने दुश्मन वर्ग (शोषित-उत्पीड़ि़त वर्ग) का दमन करने के लिये एक तरफ अपनी राजसत्ता अर्थात जेल, अदालत, सेना, पुलिस, नौकरशाही आदि का निर्माण करता है। वहीं दूसरी तरफ शोषित-पीड़ित वर्ग की शक्ति को क्षीण करने के लिये ‘फूट डालो-शासन करो’ की नीति के तहत उन्हें आपस में ही लड़ाता है। लड़ाने के लिये जाति, धर्म, पंथ, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र आदि का इस्तेमाल करता है। जहाँ अमेरिका में जनता से जनता को लड़ाने के लिये मुख्यतः नस्ल का इस्तेमाल किया जाता रहा है, वहीं भारत जैसे पिछडे़ देश में जनता से जनता को लड़ाने के लिये शोषक वर्ग मुख्यतः जाति-व्यवस्था का इस्तेमाल करता रहा है।
कार्ल मार्क्स ने भारत की जाति-व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने का अनुमान बहुत पहले ही लगा लिया था। उनका अनुमान था कि ‘‘भारत की जनता का शोषण करने के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद जो रेलों, पुलों, सड़कों, बडे़ कारखानों आदि का विकास कर रहा है, उससे भारतीय समाज की जड़ता टूटेगी और वर्ण एवं जाति व्यवस्था छिन्न-भिन्न होगी’’ मार्क्स का यह अनुमान सही साबित हुआ। पूँजीवादी साम्राज्यवादी विकास के कारण अधिकांश जातिगत पेशे छिन्न-भिन्न हो गये हैं।
शोषक वर्ग का जहाँ-जहाँ मुनाफा प्रभावित हो रहा था, वहां-वहां से इसने जातिगत भेद-भाव को निर्ममतापूर्वक उखाड़ फेंका है जैसे-होटल, अस्पताल, स्कूल, रेल, बस, हवाई जहाज, दुकान आदि में जातिगत भेद-भाव को हटा दिया है। दूसरे शब्दों में बाजार में जहाँ उसे मुनाफा कमाना है, वहाँ पर वह जाति नहीं देखता, वह ग्राहक की जेब देखता है मगर वहीं राजनीति में, जातियों का जमकर इस्तेमाल करता है।
शोषक वर्ग जहाँ एक तरफ सरकारी नौकरियों को खत्म करता जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी नौकरियों में आरक्षण का झगड़ा भी बढ़ाता जा रहा है। कमजोर वर्गों को आरक्षण देना बुरा नहीं है मगर आरक्षण के पीछे शोषक वर्ग की जो फूट डालो-शासन करो की नीति है, वह बहुत घिनौनी है। पूँजीपति वर्ग जातिगत भेद-भाव को बनाये रखने के लिये आरक्षण को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
मार्क्स ने यह कहा था कि, *शोषक वर्ग की राजसत्ता उतनी ही मजबूत और टिकाऊ होती है, जितनी कि वो शोषित-उत्पीड़ित वर्ग की उभरती हुई प्रतिभाओं को आत्मसात करने में सक्षम होता है* भारत के संदर्भ में मार्क्स का यह कथन इस रूप में सही साबित हो रहा है कि शोषक वर्ग अपनी आरक्षण नीति के जरिये शोषित उत्पीड़ित वर्ग की उभरती हुई प्रतिभाओं को आत्मसात करके अपनी राजसत्ता को मजबूत करता रहा।
सरकारी नौकरियों के लगातार खत्म होने, बेरोजगारों की भारी संख्या के मुकाबले रोजगार बहुत कम होने के कारण अब यह उत्पीड़ित वर्ग की प्रतिभाओं को पर्याप्त रूप में आत्मसात नहीं कर पा रहा है। जिसके कारण उसकी राजसत्ता भी अब कमजोर हो रही है। अतः अपनी राजसत्ता को मजबूत बनाये रखने के लिये शोषक वर्ग समय-समय पर अपना फासीवादी रूप दिखा कर जनता को डराता-धमकाता रहता है।
ऐसी परिस्थिति में यदि शोषक वर्ग के विरुद्ध वास्तविक संघर्ष छेड़ना है तो उत्पीड़ित वर्ग का संगठन जरूरी है तथा उत्पीड़ित-शोषित वर्गों को संगठित करने के लिये जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष भी जरूरी है। जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष को कारगर बनाने के लिये जाति की उत्पत्ति, उसके अस्तित्व एवं विकास तथा लक्ष्य एवं उद्देश्य का भौतिकवादी ज्ञान जरूरी है।
मार्क्सवाद के अनुसार-‘‘जाति व्यवस्था, किसी ब्राह्मण के लिख देने या कह देने मात्र से नहीं बन सकती है।’’ उत्पादक श्रम करने वाले वर्ग में जातियों के निर्माण की दो शर्तें जरूरी हैं –
1- लम्बे समय तक पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही तरह का औजार चलाते रहना।
2- औजारों में लम्बे समय तक गुणात्मक बदलाव ना होना ।
उपरोक्त शर्तें पूरी न हों तो करोड़ों ब्राह्मण मिलकर भी एक जाति नहीं बना सकते तथा इन शर्तों के पूरा होने पर एक भी ब्राह्मण न हो तो भी जाति बन सकती है।
सवाल उठता है कि ब्राह्मणों में जातियां कैसे बनीं जबकि वे कोई औजार नहीं चलाते थे। ब्राह्मणों में जो जातियां हैं उनमें कई ऐसी हैं जिनका आपस में रोटी-बेटी का संबंध है, ये सब वास्तव में अलग-अलग गोत्र हैं जो उपजाति के तौर पर पहचानी जाती हैं। हालांकि ब्राह्मणों में कई ऐसीजातियां हैं कि जिनमें छुआछूत तक की समस्या आज भी बनी हुई है। दर असल प्रारंभिक दौर में जाति व्यवस्था लचीली थी जिससे अलग-अलग जातिगत पेशों से जुड़े लोग भी ब्राह्मण का पेशा अपना लिया करते थे। इसके अलावा उनकी और उनके यजमानों की आर्थिक हैसियत के आधार पर भी उनमें ऊंच-नीच की भावना बनी हुई है- जैसे राजपुरोहित सबसे ज्यादा सम्मानित रहा है।, क्षेत्रों के आधार पर भी उनमें छोटे-बड़े की भावना है। और भी कारण हो सकते हैं जिनका शोध किया जाना चाहिए। मगर बुनियादी कारण आर्थिक ही है।
दूसरा गम्भीर सवाल यह है कि “अगर पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही तरह का औजार चलाने से जातियों की उत्पत्ति होती है तो सामंती दौर में पेशे तो मुश्किल से 35–40 किस्म के ही थे इतने कम पेशे से हजारों जातियां कैसे बन गयीं?” यह सवाल उत्पत्ति का नहीं उसके विकास का सवाल है। एक लम्बे विकास क्रम में विभिन्न भाषाओं, बोलियों और क्षेत्रों के आधार पर एक ही पेशे से जुड़े लोगों की जातियों के अनेकों नामों से जाना गया जिसे शोषक वर्ग ने फूट डालने की नीयत से अलग-अलग जाति की मान्यता दे दी । इस प्रकार लम्बे समय से जारी सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक हस्तक्षेपों के कारण जातीय विभाजन का मौजूदा स्वरूप हमारे सामने मौजूद हैं।
*जाति निवारण*-मार्क्सवाद के अनुसार जाति कोई वस्तु नहीं है कि इसे उठाया और फेंक दिया। जाति एक विचार है। इसे हटाने के लिये, इसके स्थान पर कोई दूसरा विचार रखना पडे़गा।
निवारण का उपाय-मार्क्सवाद के अनुसार जाति की चेतना को हटाने के लिये वर्ग की चेतना स्थापित करनी होगी तथा इसके लिये वर्ग-संघर्ष को तीखा करते हुए शोषक वर्ग की राजसत्ता ढहाकर मेहनतकश वर्ग की राजसत्ता स्थापित करनी होगी तथा समाजवादी अर्थव्यवस्था कायम करके जाति व्यवस्था की बुनियाद अर्थात सामन्ती अर्थव्यवस्था को ढहाना पड़ेगा। इसके बावजूद जातिवाद करने व जातीय पहचान बनाने वालों को दण्डित करने का प्रावधान करना पडे़गा तब कहीं जाति व्यवस्था का उन्मूलन होगा।
उपरोक्त क्रान्तिकारी काम करने की बजाय यदि आप सोचते हैं कि लोगों को समझा-बुझा कर सुधारवादी तरीके से जातिवाद खत्म कर देंगे तो यह एक और ऐतिहासिक भूल ही होगी, क्योंकि सुधारवादी तरीके से बहुत बडे़-बडे़ महापुरुषों का फार्मूला फेल हो चुका है। बुद्ध ने अपने धारदार तर्कों एवं उपदेशों के माध्यम से वर्ण व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहा मगर उनके और उनके अनुयायियों के प्रयासों से एक ‘बौद्ध धर्म’ खड़ा हो गया परन्तु वर्ण-व्यवस्था नहीं टूटी। कबीर ने अपने तीखे तर्कों-उपदेशों के जरिये जाति व्यवस्था पर हमला किया, परिणामस्वरूप एक ‘कबीर पंथ’ चल पड़ा मगर जाति व्यवस्था नहीं टूट पायी। रैदास ने अपने बेवाक तर्कों से जाति श्रेष्ठता को चुनौती दी, उनके उपदेशोें से कुछ लोग ‘रैदसिया चमार’ बन गये परन्तु जाति व्यवस्था नहीं टूटी। दक्षिण भारत के बसेश्वरनाथ ने भी जाति-व्यवस्था पर उपदेशात्मक हमला किया परिणामस्वरूप लिंगायत पंथ बन गया मगर जाति व्यवस्था नहीं टूट पायी। इसी तरह सैकड़ों महापुरूषों के सुधारात्मक प्रयास फेल हो गये।
मार्क्सवादी रास्ते से इतर डा0 अम्बेडकर ने ‘जाति उन्मूलन’ का अपना सुधारात्मक प्रयास किया मगर जाति नहीं टूटी। उन्होंने ‘‘भारत में जाति प्रथा” नामक लेख में जातियों की उत्पत्ति के बारे में बताते हुए लिखा है कि, “…मनु के विषय में मैं कठोर लगता हूं परन्तु मुझमें इतनी शक्ति नहीं कि मैं उसका भूत उतार सकूं। वह एक शैतान की तरह जिन्दा है, किन्तु मैं नहीं समझता कि वह सदा जिंदा रह सकेगा। एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति नहीं बनायी। और न वह ऐसा कर सकता था। जाति व्यवस्था मनु से पूर्व विद्यमान थी, वह तो सिर्फ इसका पोषक था।”
(बाबा साहब डा. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय खण्ड – १ ‘भारत में जातिप्रथा’ पेज-२९ )
इसी पेज पर आगे लिखते हैं- “…ब्राह्मण और कई बातों के लिए दोषी हो सकते हैं और मैं नि:संकोच कह सकता हूं कि वे हैं भी किन्तु गैर ब्राह्मण समुदाय पर जाति व्यवस्था थोपना उनके बूते के बाहर की बात थी।”
“जाति भेद का उच्छेद” नामक लेख में लिखते हैं कि…’जातियां लोगों ने खुद अपने ऊपर थोप ली।’ इसी लेख में डा0 अम्बेडकर के अनुसार जातियों की समस्या का निवारण यह है कि, ‘‘बड़ी जातियों के लोग इसे खुद मिटायें, परन्तु वे ऐसा नहीं करेंगे।” अतः जाति विहीन धर्म अपनाना ही निवारण है। उनके अनुसार निवारण का उपाय यह है कि हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्धधर्म अपनाया जाये। डा0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया मगर उन्हें जाति से छुटकारा नहीं मिला। आज भी बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुयायी हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्धधर्म अपना रहे हैं परन्तु उनकी जाति नहीं छूट पा रही है। यहाँ तक कि सिख, ईसाई, मुसलमान, यहूदी बनने पर भी जातियां नहीं टूट रही है। इन ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान में रख कर, सभी महापुरुषों की असफलताओं से सबक लेकर तथा उनके प्रयास, त्याग और बलिदान का सम्मान करते हुए हमें मार्क्स से भी सबक लेना होगा। *मार्क्स ने कहा था- ‘‘उनके सारे के सारे आन्दोलन महानतम् त्याग और बलिदान के बावजूद भी अपने विरोधी तत्वो में बदल जाते हैं, जिन्हें अपने जनान्दोलन की उत्पत्ति का, उसके अस्तित्व एवं विकास तथा लक्ष्य एवम् उद्देश्य का भौतिकवादी ज्ञान नहीं होता।’’* मार्क्स के इस कथन की रोशनी में जातीय आंदोलन से सम्बन्धित ‘‘बहुजन मूवमेन्ट’’ को देखा जा सकता है।
जहाँ डाॅ0 अम्बेडकर ने बताया कि ‘‘मनु कितना भी धूर्त रहा हो परन्तु उसने जातियाँ नहीं बनायी ।,’’ वहीं उनके कुछ तथाकथित अनुयायियों ने ब्राह्मणों को जाति-व्यवस्था का निर्माता बताकर 15% सवर्णों के खिलाफ जाति आंदोलन शुरू किया। जाति उन्मूलन की बजाय जाति व्यवस्था का इस्तेमाल करके सत्ता में पहुँचने के लिए ‘‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’’ के नारे के आधार पर सभी वंचित जातियों को उनका हक देने का वादा किया परन्तु कई-कई बार सरकार बना कर सत्ता की मलाई काटने के बावजूद भी मायावती जी/मुलायम जी,अखिलेश जी,लालू जी,नीतीश कुमारजी,करुणानिधि, देवगौडा़,चौटाला,आदि ने इस नारे के आधार पर एक भी नीति नहीं बना पाये। इस आंदोलन में गरीब लोगों ने जाति के नाम पर जो त्याग और बलिदान किया उसका फायदा शोषक वर्गों को हुआ। आप देख सकते हैं कि, ज्यों-ज्यों 15 बनाम 85 का मूवमेंट मजबूत हुआ त्यों-त्यों कम्युनिस्ट पार्टियाँ कमजोर होती गयीं और धुर दक्षिणपंथी आर0एस0एस0 (भाजपा) जैसे संगठन मजबूत होते गये।
अब डाॅ0 अम्बेडकर के तथाकथित अनुयायियों में से अधिकांश लोग जाति उन्मूलन की बजाय हताश होकर जाति व्यवस्था के आगे घुटना टेक चुके हैं। वे मान चुके हैं कि, ये जाति व्यवस्था कभी नहीं टूटेगी। अतः इसे तोड़ने की बजाय इसी जाति-व्यवस्था पर घमण्ड किया जाये। इसी समझ और हताशा के परिणामस्वरूप वे ‘‘दि ग्रेट चमार’’ ‘‘डेन्जर चमार’’, ‘‘छोरा चमार का’’ आदि लिख रहे हैं। शायद उन्हें नहीं मालूम कि जातिवाद की सड़ांध पर गर्व करना अम्बेडकरवाद विरोधी कृत्य है।
साथियों! जातिवाद अजर-अमर नहीं है। न तो ये सदा रहा है, न सदा रहेगा। अगर कोई चीज सत्य है, तो वो है ‘परिवर्तन’। अतः हताश होने की जरूरत नहीं है, और न ही पूंजीवादी नेताओं के भरोसे रह कर बैठने की जरूरत है। उनके भरोसे बैठना कायरता होगी। अतः ‘अप्प दीपो भव’ के बुद्ध और अम्बेडकर के सूत्र को पकड़कर, स्वस्थ बहस और स्वस्थ तर्क करते हुए मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, राजनीतिक अर्थशास्त्र एवं समाजवाद के सिद्धान्तों को लेकर आगे बढ़ना होगा। किसी वीर पुरूष के भरोसे नहीं बल्कि यह कारनामा खुद करना होगा।
न हमसफर न किसी हमनशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा !
वतन की रेत हमें ऐडियाँ रगड़ने दे
हमें यकीन है पानी यही से निकलेगा ! -रजनीश भारती
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा